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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
15. फल विक्रयिणी पर कृपा
कदली-बदरी-पीलू-नारंग आदि विविध फलों से परिपूरित टोकरी को फल-विक्रयिणी ने अपने सिर से उतारा, उतारकर भूमि पर रख दिया तथा वहीं अश्वत्थ की शीतल छाया में वह विश्राम करने लगी। एक तो वृद्ध शरीर, दूसरे बोझल टोकरी का भार-वृद्धा अत्यन्त श्रान्त हो गयी है। हेमन्त के शीत में भी उसके ललाट पर प्रस्वेद कण झलक रहे हैं। वह अपने बिखरे हुए रजत-धवन केशों को समेटकर, उनमें एक गाँठ लगा देती है तथा फटे आँचल की छोर से स्वेदमार्जन करती है। वह जहाँ बैठी है, उसके ठीक सामने प्रासाद से संलग्न व्रजेश की क्षेत्र-वाटिका (खलिहान) हे। नवधान्य के अंबार लगे हैं। फल-विक्रयिणी इन्हीं अगणित विशाल धान्यस्तूपों की ओर देखने लग जाती है। अब तो मध्यान्ह हो चुका है। जिस समय अरुणोदय ही हुआ था, ओस बिन्दु सर्बत्र बिखरे पड़े थे, उस समय फल-विक्रयिणी अपने घर से चली थी। तब से वह ‘फल ले लो जी, फल’ यह पुकार लगाती हुई व्रजपुर की वीथियों में घूमती रही है। राजपथ के दोनों पाश्वों में अवस्थित श्रेणीबद्ध उत्तुंग मणिमय भवनों के द्वार पर जा-जाकर उसने अनेकों बार गोपशिशुओं का ध्यान आकर्षित करने की चेष्टा की। पर दैवकी लीला! आज किसी ग्राहक का दर्शन नहीं हुआ, किसी गोपशिशु ने उसके आह्वान का उत्तर तक न दिया; कोई भी व्रजपुरन्ध्री फल का सौदा करने नहीं आयी, किसी भी चंचल गोपबालक ने मोलतोल करने का खेल तक नहीं किया। अभी तक बोहनी ही नहीं हुई है। फल-विक्रयिणी के मुख पर निराशा छा जाती है। वह सोचने लगती है- क्या आज का दिन ऐसे ही समाप्त होगा? पता नहीं, किसका मुख देखकर उठी थी! इसी समय अश्वत्थपत्र चंचल हो उठते हैं, मानो संकेत कर रहे हों- “नहीं, नहीं, फल-विक्रयिणी! निराश मत हो। अरे! आज तो तेरे जीवन-सौभाग्य का परम पुनीत सर्वोत्तम समुज्ज्वल प्रभात है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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