विषय सूची
श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
2. मथुरा से श्री वसुदेव का संदेश लेकर दूत का आगमन और नन्द जी के द्वारा उसका सत्कार
यमुना की चञ्चल लहरियों को भुजाओं से चीरता हुआ श्री वसुदेव का दूत व्रजपुर की ओर अग्रसर हो रहा है। उसकी दृष्टि नन्दप्रासाद के उत्तुंग स्वर्णिम गुम्बज पर केन्द्रित है। वह स्पष्ट देख पा रहा है - इस घन-तमसाच्छान्न रात्रि को दिन-सा बनाता हुआ एक मणिमय मंगल दीप प्रासाद के शिखर-कलश पर सुशोभित है। दीप की शीतल किरणे सर्वत्र फैल रहीं हैं, मानो व्रजेश के वंशदीप (नवजात पुत्र) की स्निग्ध ज्योति से प्राणान्वित हो कर वह मणिदीप भी आज अतिशय उत्फुल्ल हो रहा हो, हँस रहा हो! दूत किनारे लगा। जिस घाट पर व्रजेश प्रतिदिन स्नान करने आते हैं, वहीं धारा से ऊपर उठ आया, तट पर खड़ा हो गया। पुनः एक बार उसने उमड़ी हुई यमुना की ओर देखा, उसे अत्यन्त आश्चर्य है- ऐसी प्रखर धारा में अँधेरी रात के समय तैर कर वह सकुशल इस पार अनायास कैसे आ गया। उसने अञ्जलि बाँध ली, घुटने टेक दिये तथा सिर से पृथ्वी को छू कर इस अप्रत्याशित रक्षा के लिये विश्व पति की अभिवन्दना की। दूत को यह पता नहीं कि जिनके अव्यक्त पादपंकज में वह अपना सिर लुटा रहा है, वे विश्वेश्वर ही व्रजेश्वर के घर पधारे हैं। अपनी मधुर चरितावली से आत्माराम योगीन्द्र-मुनीन्द्रों को भी भक्ति पथ का पथिक बनाने की अभिसंधि लेकर, लीला-रस-सुधा की शत-सहस्र मन्दाकिनी धाराओं में अपने भक्तों-को बहाते हुए सदा के लिये आनन्द सिन्धु में निमग्न कर देने का संकल्प करके, दैत्य सेना के गुरुतर भार को सहने में असमर्थ धरणी का मार उतारने के उद्देश्य से वे स्वयं विश्वपति ही व्रज में पधारे हैं और ऐसे पधारे हैं, मानो सर्वथा प्राकृत शिशु ही हों-
|
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (श्रीआनन्दवृन्दावनचम्पूः)
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज