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एक क्षण बीतते न बीतते नीलसुन्दर ने पुकार कर कहा- ‘भैयाओ! अपनी आँखें खोल लो।’ और शिशुओं ने पलक उघाड़ कर देखा। फिर तो एक साथ सभी विस्मित हो उठे- ‘अरे! यह तो भाण्डीरवट है। कहाँ गया वह मुञ्ज का वन, क्या हुई वह दावाग्नि, अपने-आप हम सब वहाँ से यहाँ कैसे चले आये? जलने जा रहे थे हम सब, गायें उस भीषण ज्वाला से चीत्कार कर रही थीं; किंतु किसी को कुछ भी न हुआ। हम सभी सुरक्षित यहाँ आ पहुँचे। यह तो विचित्र-सी बात है हो! कन्नू ने तो हद कर दी रे!’
- ततक्ष तेऽक्षीण्युन्मील्य पुनर्भाण्डीरमापिता:।
- निशाम्य विस्मिता आसन्नात्मानं गाश्च मोचिता:॥[1]
- ता छिन नैन उधारि सखा सब देखहीं।
- खेलत पुरब खेल तहीं चलि लेखहीं।।
- सो थल जाइ निहारि रहे चकचौंधि हैं।
- मोहन जानि प्रभाव करे सब चौंधि हैं।।
- दृग उधारि जो चहहिं अभीर।
- ठाढ़े बट भांडीर के तीर।।
- कहन लगे अति बिस्मय पाए।
- कित हम हुते, कितै अब आए।।
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