श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
11. तृणावर्त-उद्धार
पर मूढ़ तृणावर्त यह नहीं देख सका कि श्रीकृष्णचन्द्र की अचिन्त्य लीला महाशक्ति अघटघटनापटीयसी योगमाया उसे देख रही है- आज से नहीं, उस दिन से देख रहीं है, जिस दिन पाण्डयनरेश सहस्राक्ष ने पुष्पभद्रा के तट पर प्रज्वलित अग्निकुण्ड में प्रवेश कर अपने प्राण विसर्जन किये थे, उन्हीं का अनुगमन उनकी सहस्र प्रेयसियों ने भी किया था, अग्नि- प्रवेश से पूर्व सहस्राक्ष पश्चात्ताप की ज्वाला में जल रहे थे, क्रन्दन कर रहे थे-‘हाय! मैं कामान्ध था, ऋषि दुर्वासा की अभ्यर्थना न कर सका और इसीलिये ऋषि ने शाप दे दिया-
‘रे पापिष्ठ! जा, तू असुर हो जा! अरे! तू योगीन्द्र था; पर अब जा, योगभ्रष्ट होकर इस गन्धसादन पर्वत से दूर पृथ्वीतल पर चला जा। नराधम! तुझे वहाँ भारतवर्ष में एक लाख वर्ष तक निवास करना पड़ेगा। तब तुझे श्रीहरि के चरणारविन्द का स्पर्श प्राप्त होगा और तू निश्चय ही गोलोकधाम में चला जायगा।’ |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (ब्रह्मवैवत्र्तपुराणम्)
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