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जिन आँखों में निरन्तर विष की ज्वाला जलती रहती, कालिय के उन नेत्रों में ही एक अतिशय पवित्र दैन्य का संचार होने लगा। क्रमशः इन्द्रियों की, प्राणों की शक्ति भी लौट आयी। नासा छिद्रों से व्यथा भरे दीर्घ निःश्वास अवश्य आ रहे हैं, किंतु भक्ति रस की आर्द्रता उसे आत्मसात करती जा रही हैं और यह लो, उसके अत्यन्त सुलम्बित भयावह सर्प-शरीर के अन्तराल में एक सौम्य देव विग्रह की अभिव्यक्ति हो गयी। पहले भी कालिय में देवों के अनुरूप अगणित शक्तियाँ वर्तमान थीं, वह इच्छित रूप धारण कर सकता था और आज तो वह श्रीकृष्णचन्द्र के पादपद्मों का पावन स्पर्श पाकर परम कृतार्थ हो चुका हैं फिर इस समय अञ्जलि बाँध कर आराध्य देव की आराधना करने का सुदुर्लभ अवसर वह क्यों छोड़ दें। इसीलिये अपने दुर्मद-दोषहारी श्रीहरि व्रजराज नन्दन के समक्ष कृताञ्जलि होकर वह अवस्थित हुआ है, उनका स्तवन करने जा रहा है -
- प्रतिलब्धेन्द्रियप्राण: कालिय: शनकैर्हरिम्।
- कृच्छ्रात्समुच्छ्वसन् दीन: कृष्णं प्राह कृताञ्जलि:॥[1]
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