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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
9. शिशु श्रीकृष्ण का अन्नप्राशन-महोत्सव, कुबेर के द्वारा गोकुल में स्वर्ण वृष्ठि
शिशिर का ब्राह्म मुहूर्त है। दो घड़ी पश्चात् माघ शुक्ला चतुर्दशी का प्रभात होगा। इसी के साथ व्रजेन्द्र नन्दन के अन्न प्राशन का उत्सव-समारोह भी आरम्भ होगा, मानो इसकी सूचना प्रातः समीर को भी मिल चुकी है। इसीलिये वह गवाक्षरन्घ्रों के पथ से आया; आकर प्रथम पर्यंङ्कशायिनी व्रजेन्द्र महिषी के, फिर उनके वक्षःस्थल पर विराजित निद्रित व्रजेन्द्र नन्दन कृष्ण चन्द्र के पादार विन्द उसने स्पर्श किये। स्पर्श से कृतार्थ होकर राशि-राशि कुन्द पुष्पों से संचित परिमल अपने दुकूल से निकाल कर शयनागार में सर्वत्र विखेर दिया। उत्सव के उपलक्ष में अपनी क्षुद्र भेंट चढ़ा दी तथा फिर अतिशय शीघ्रता से आनन्दातिरेक वश चञ्चल हो कर ‘झुर-झुर’ शब्द करता हुआ अन्य व्रज वासियों को जगाने चला गया। व्रजरानी तो जागी हुई ही हैं। वे सारी रात क्षण भर के लिये भी सो नहीं सकीं हैं। फिर भी रात्रि कब कैसे समाप्त हो गयी, यह उन्होंने नहीं जाना। जानती कैसे? वे तो अनेक सुखमय मनोरथों की कल्पना में विभोर थीं, नीलमणि का भावी अन्न प्राशन प्रत्यक्ष वर्तमान-सी बनकर नेत्रों में भरा था। वे उस दृश्य में, अपने नीलमणि में तन्मय हो रही थीं। किंतु प्रातः समीर के स्पर्श से जननी के प्रशान्त वात्सल्य सिन्धु में एक कम्पन हुआ। उसमें एक लहर उठ आयी। जननी के कृष्णमय मन-प्राण इस लहरी से सिक्त हो गये थे एवं तत्क्षण उनमें स्फुरणा हुई - कहीं मेरे नीलमणि के अंग अनावृत हों, शिशिर की शीतल वायु से उनमें ठंग लग गयी तो ? बस, व्रजरानी तुरंत उठ बैठी एवं वस्त्र सँभालने लगीं। वास्तव में ही यशोदा नन्दन ने श्री अंगों से कहीं-कहीं वस्त्र हट गये थे। जननी उन्हें गोद में लेकर वस्त्रों में ढँकने लगीं। इसी समय उनका ध्यान नीलमणि के वक्षःस्थल की ओर गया, वक्षःस्थल का श्रीवत्स चिह्न मणि दीप के प्रकाश में स्पष्ट चम-चम कर रहा था ; किंतु जननी को पुनः भ्रम हो ही गया। इससे पूर्व भी जननी कई बार भ्रमित हो चुकी है। इस भ्रम का प्रारम्भ तो प्रथम स्तनदान के समय हुआ था। उस समय जातकर्म के पश्चात् जननी स्तन्यपान करा रही थीं। पुत्र के प्रत्येक अंग का सौन्दर्य निरखती हुई जननी के हृदय की ओर देखा था। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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