- महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 14 में श्रीकृष्ण द्वारा महात्मा उपमन्यु के आश्रम का वर्णन हुआ है[1]
विषय सूची
कृष्ण-शंकर संवाद
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- भगवान शंकर के कर्मों की गति का यथार्थ रूप से ज्ञान होना अशक्य है। ब्रह्मा और इन्द्र आदि देवता, महर्षि तथा सूक्ष्मदर्शी आदित्य भी जिनके निवास स्थान को नहीं जानते, सत्पुरुषों के आश्रयभूत उन भगवान शिव के तत्त्व का ज्ञान मनुष्य मात्र को कैसे हो सकता है? अत: मैं उन असुर विनाशक व्रतेश्वर भगवान शंकर के कुछ गुणों का आप लोगों के समक्ष यथार्थ रूप से वर्णन करूंगा। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! ऐसा कहकर भगवान श्रीकृष्ण आचमन करके पवित्र हो बुद्धिमान परमात्मा शिव के गुणों का वर्णन करने लगे। भगवान श्रीकृष्ण बोले- यहाँ बैठे हुए ब्राह्मण -शिरोमणियों! सुनो, तात युधिष्ठिर! और गंगानन्दन भीष्म! आप लोग भी यहाँ भगवान शंकर के नामों का श्रवण करें। पूर्वकाल में सांब की उत्पति के लिये अत्यन्त दुष्कर तप करने मैंने जिस दुर्लभ नाम समूह का ज्ञान प्राप्त किया था और समाधि के द्वारा भगवान शंकर का जिस प्रकार यथावत रूप से साक्षात्कार किया था, वह सब प्रसंग सुना रहा हूँ। युधिष्ठिर! बुद्धिमान रुक्मिणी नन्दन प्रधुम्न के द्वारा पूर्वकाल में जब शम्बरासुर मारा गया और वे द्वारका में आये, तब से बारह वर्ष व्यतीत होने के पश्चात रुक्मिणी के प्रद्युम्न, चारुदेष्ण आदि पुत्रों को देखकर पुत्र की इच्छा रखने वाली जाम्बवती मेरे पास आकर इस प्रकार बोली- 'अच्युत! आप मुझे अपने ही समान शूरवीर, बलवानों में श्रेष्ठ तथा कमनीय रूप-सौदर्य से युक्त निष्पाप पुत्र प्रदान कीजिए। इसमें विलम्ब नहीं होना चाहिए। 'यदुकुल धुरन्धर! आपके लिये तीनों लोकों में कोई भी वस्तु अलम्य नहीं है। आप चाहें तो दूसरे-दूसरे लोकों की सृष्टि कर सकते हैं। 'आपने बारह वर्षों तक व्रतपरायण हो अपने शरीर को सुखाकर भगवान पशुपति की आराधना की और रुक्मिणी देवी के गर्भ से अनेक पुत्र उत्पन्न किये। 'मधुसूदन! चारुदेष्ण, सुचारु, यशोधर, चारूयशा, प्रद्युम्न और शम्भु- इन सुन्दर पराक्रमी पुत्रों को जिस प्रकार आपने रुक्मिणी देवी के गर्भ से उत्पन्न किया है उसी प्रकार मुझे भी पुत्र प्रदान कीजिये।' देवी जाम्बवती के इस प्रकार प्रेरणा देने पर मैंने उस सुन्दरी से कहा- 'रानी! मुझे जाने की अनुमति दो। मैं तुम्हारी प्रार्थना सफल करूंगा'। उसने कहा- 'प्राणनाथ! आप कल्याण और विजय पाने के लिये जाइये। यदुनन्दन! ब्रह्मा, शिव, काश्यप, नदियां, मनोऽनुकुल देवगण, क्षेत्र, औषधियां, यज्ञवाह (मंत्र), छन्द, ऋषिगण, यज्ञ, समुद्र, दक्षिणा, स्तोभ (सामगानपूरक 'हावु' 'हायि' आदि शब्द), नक्षत्र, पितर, ग्रह, देवपत्नियां, देवकन्याएं और देवमाताएं, मन्वन्तर, गौ, चन्द्रमा, सूर्य, इन्द्र, सावित्री, ब्रह्माविद्या, ऋतु, वर्ष, क्षण, लव, मुहूर्त, निमेष और युग- ये सर्वत्र आपकी रक्षा करें। आप अपने मार्ग पर निर्विघ्न यात्रा करें और अनघ! आप सतत समाधान रहें'। इस तरह जाम्बवती के द्वारा स्वस्तिवाचन के पश्चात मैं उस राजकुमारी की अनुमति ले नरश्रेष्ठ पिता वसुदेव, माता देवकी तथा राजा उग्रसेन के समीप गया। वहाँ जाकर विद्याधर राजकुमारी जाम्बवती ने अत्यंत आर्त होकर मुझसे जो प्रार्थना की थी वह सब मैंने बताया और उन सबसे तप के लिये जाने की आज्ञा ली। गद और अत्यंत बलवान बलराम जी से विदा मांगी। उन दोनों बड़े दु:ख से अत्यंत प्रेमपूर्वक उस समय मुझसे कहा - 'भाई! तुम्हारी तपस्या निर्विघ्न पूर्ण हो।[1]
कृष्ण द्वारा उपमन्यु के आश्रम का वर्णन
गुरुजनों की आज्ञा पाकर मैंने गरुड़ का चिन्तन किया। उसने (आकर) मुझे हिमालय पर पहुँचा दिया। वहाँ पहुँचकर मैंने गरुड़ को विदा कर दिया। मैंने उस श्रेष्ठ पर्वत पर वहाँ अदभूत भाव देखे। मुझे वहाँ का स्थान तपस्या के लिये अद्भूत, उत्तम ओर श्रेष्ठ क्षेत्र दिखायी दिया। वह व्याघ्र पाद के पुत्र महात्मा उपमन्यु का दिव्य आश्रम था, जो ब्राहृी शोभा से सम्पन्न तथा देवताओं और गन्धर्वों द्वारा सम्मानित था। धुव, ककुभ (अर्जुन), कदम्ब, नारियल, कुरबक, केतक, जामुन, पाटल, बड़, वरुणक, वत्सनाभ, बिल्व, सरल, कपित्थ, प्रियाल, साल, ताल, बेर, कुन्द, पुन्नाग, अशोक, आम्र, अतिमुक्त, महुआ, कोविदार, चम्पा तथा कटहल आदि बहुत-से फल-फूल देने वाले विविध वन्य वृक्ष उस आश्रम की शोभा बढ़र रहे थे। फूलों, गुल्मों और लताओं से वह व्याप्त था। केले के कुंज उसकी शोभा को और भी बढ़ा रहे थे। नाना प्रकार के पक्षियों के खाने योग्य फल और वृक्ष उस श्रम के अलंकार थे। यथास्थान रखी हुई भस्मराशि से उसकी बड़ी शोभा हो रही थी। रूरू, वानर, शार्दूल, सिंह, चीते, मृग, मयुर, बिल्ली, सर्प, विभिन्न जाति के मृगों के झुंड, भैंस तथा रीछों से उस आश्रम का निकटवर्ती वन भरा हुआ था। जिनके मस्तक से पहली बार मदकी धारा फूटकर बही थी, ऐसे हाथी वहाँ के उपवन की शोभा बढ़ाते थे। हर्ष में भरे हुए नाना प्रकार के विहंगम वहाँ के वृक्षों पर बसेरे लेते थे। अनेकानेक वृक्षों के विचित्र वन सुन्दर फूलों से सुशोभित हो मेघों के समान प्रतीत होते थे और उन सबके द्वारा उस आश्रम की अनुपम शोभा हो रही थी। सामने से नाना प्रकार के पुष्पों के परागपुंज से पूरित तथा हाथियों के मद की सुगन्ध से सुवासित मन्द-मन्द अनुकूल वायु आ रही थी, जिसमें दिव्य रमणियों के मधुर गीतों की मनोरम ध्वनि विशेषरूप से व्याप्त थी। वीर! पर्वत शिखरों से झरते हुए झरनों की झर-झर ध्वनि, विहंगमों के सुन्दर कलरव, हाथियों की गर्जना, किन्नरों के उदार (मनोहर) गीत तथा सामगान करने वाले सामवेदी विद्वानों के मंगलमय शब्द उस वन-प्रान्त को संगीत मय बना रहे थे। जिसके विषय में दूसरे लोग मन से सोच भी नहीं सकते, ऐसी अचिन्त्य शोभा से सम्पन्न वह पर्वतीय भाग अनेकानेक सरोवर से अलंकृत तथा फूलों से आच्छादित विशाल अग्निशालाओं द्वारा विभूषित था। नरेश्वर! पुण्सलिला जाहृनीव सदा उस क्षेत्र की शोभा बढ़ाती हुई मानो उसका सेवन करती थीं। अग्नि के समान तेजस्वी तथा धर्मात्माओं में श्रेष्ठ अनेकानेक महात्माओं से वह स्थान विभूषित था। वहाँ चारों और श्रेष्ठ ब्राह्मण निवास करते थे। उनमें से कुछ लोक केवल वायु पीकर रहते थे। कुछ लोग जल पीकर जीवन धारण करते थे। कुछ लोग निरन्तर जप में संलग्न रहते थे। कुछ साधक मैत्री- मुदिता आदि साधनाओं द्वारा अपने चित्त का शोधन करते थे। कुछ योगी निरन्तर ध्यानमग्न रहते थे। कोई अग्निहोत्र का धूआं, कोई गरम-गरम सूर्य की किरणें और कोई दूध पीकर रहते थे। कुछ लोग गोसेवा का व्रत लेकर गौओं के ही साथ रहते और विचरते थे। कुछ लोग खाद्य वस्तुओं को पत्थर से पीसकर खाते थे और कुछ लोग दांतों से ही ओखली-मुसली का काम लेते थे। कुछ लोग किरणों और फेनों का पान करते थे तथा कितने ही ऋषि मृगचर्या का व्रत लेकर मृगों के ही साथ रहते और विचरते थे।[2]
कोई पीपल के फल खाकर रहते, कोई जल में ही सोते तथा कुछ लोग चरी, वल्कल और मृगचर्म धारण करते थे। अत्यंत कष्टसाध्य नियमों का निर्वाह करते हुए विविध तपस्वी मुनियों का दर्शन हुए मैंने उस महान आश्रम में प्रवेश करने का उपक्रम किया। भरतवंशी नरेश! महात्मा तथा पुण्यकर्मा शिव आदि देवताओं से समादृत हो वह आश्रममण्डल सदा ही आकाश में चन्द्रमण्डल की भाँति शोभा पाता था। वहाँ तीव्र तपस्या वाले महात्माओं के प्रभाव तथा सांनिध्य से प्रभावित होने वाले सांपों को साथ खेलते थे और व्याघ्र मृगों के साथ मित्र की भाँति रहते थे। वेद-वेदांगों के पारंगत विद्वान श्रेष्ठ ब्राह्मण जिसका सेवन करते थे तथा नाना प्रकार के नियमों द्वारा विख्यात हुए महात्मा महर्षि जिसकी शोभा बढ़ाते थे, समस्त प्राणियों के लिये मनोरम उस श्रेष्ठ आश्रम में प्रवेश करते ही मैंने जटावल्कलधारी, प्रभावशाली, तेज और तपस्या से अग्नि के समान देदीप्यमान, शान्तस्वभाव और युवावस्था से सम्पन्न ब्रह्माणशिरोमणि उपमन्यु को शिष्यों से घिरकर बैठा देखा।[3]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 14 श्लोक 21-42
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 14 श्लोक 43-57
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 14 श्लोक 58-79
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| तिल का दान और उसके फल का माहात्म्य
| नाना प्रकार के दानों का फल
| लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताओं की पूजा का निरूपण
| श्राद्धविधान आदि का वर्णन
| दान के पाँच फल
| अशुभदान से भी शुभ फल की प्राप्ति
| नाना प्रकार के धर्म और उनके फलों का प्रतिपादन
| शुभ और अशुभ गति का निश्चय कराने वाले लक्षणों का वर्णन
| मृत्यु के भेद
| कर्तव्यपालनपूर्वक शरीरत्याग का महान फल
| काम, क्रोध आदि द्वारा देहत्याग करने से नरक की प्राप्ति
| मोक्षधर्म की श्रेष्ठता का प्रतिपादन
| मोक्षसाधक ज्ञान की प्राप्ति का उपाय
| मोक्ष की प्राप्ति में वैराग्य की प्रधानता
| सांख्यज्ञान का प्रतिपादन
| अव्यक्तादि चौबीस तत्त्वों की उत्पत्ति आदि का वर्णन
| योगधर्म का प्रतिपादनपूर्वक उसके फल का वर्णन
| पाशुपत योग का वर्णन
| शिवलिंग-पूजन का माहात्म्य
| पार्वती के द्वारा स्त्री-धर्म का वर्णन
| वंश परम्परा का कथन और श्रीकृष्ण के माहात्म्य का वर्णन
| श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन और भीष्म का युधिष्ठिर को राज्य करने का आदेश
| श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम्
| जपने योग्य मंत्र और सबेरे-शाम कीर्तन करने योग्य देवता
| ऋषियों और राजाओं के मंगलमय नामों का कीर्तन-माहात्म्य
| गायत्री मंत्र का फल
| ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन
| कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन
| ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद
| वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन
| ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन
| ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन
| अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन
| कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार
| ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना
| भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
| श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना
| श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना
| श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन
| भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन
| धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता
| भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन
| साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण
| युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना
| भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना
| नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य
| भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन
| भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना
| भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना
| भीष्म का प्राणत्याग
| धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार
| गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना
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