श्रीकृष्ण द्वारा धर्म का तथा अपनी महिमा का वर्णन

महाभारत आश्वमेधिक पर्व के वैष्णव धर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 92 में श्रीकृष्ण द्वारा धर्म का तथा अपनी महिमा का वर्णन हुआ है।[1]

श्रीकृष्ण द्वारा धर्म का वर्णन

वैशम्‍पायन जी कहते हैं– राजन! धर्मपुत्र युधिष्‍ठिर के इस प्रकार प्रश्‍न करने पर सम्‍पूर्ण धर्मों को जानने वाले भगवान श्रीकृष्‍ण अत्‍यन्‍त प्रसन्‍न होकर उनसे धर्म के सूक्ष्‍म विषयों का वर्णन करने लगे- ‘उत्तम व्रत का पालन करने वाले कुन्‍तीनन्‍दन! तुम धर्म के लिये इतना उद्योग करते हो, इसलिये तुम्‍हें संसार में कोई वस्‍तु दुर्लभ नहीं है।

‘राजेन्‍द्र! सुना हुआ, देखा हुआ, कहा हुआ, पालन किया हुआ और अनुमोदन किया हुआ धर्म मनुष्‍य को इन्‍द्र पर पहुँचा देता है। ‘परंतप! धर्म ही जीव का माता– पिता, रक्षक, सुहृद, भ्राता, सखा और स्‍वामी है। ‘अर्थ, काम, भोग, सुख, उत्तम ऐश्‍वर्य और सर्वोत्तम स्‍वर्ग की प्राप्‍ति भी धर्म से ही होती है। ‘यदि इस विशुद्ध धर्म का सेवन किया जाय तो वह महान भय से रक्षा करता है। धर्म से ही मनुष्‍य को ब्राह्मणत्त्व और देवत्‍व की प्राप्‍ति होती है। धर्म ही मनुष्‍य को पवित्र करता है। ‘युधिष्‍ठिर! जब काल – क्रम से मनुष्‍य का पाप नष्‍ट हो जाता है, तभी उसकी बुद्धि धर्माचरण मं लगती है।[1]

‘हजारों योनियों में भटकने के बाद भी मनुष्‍ययोनि का मिलना कठिन होता है। ऐसे दुर्लभ मनुष्‍य- जन्‍म को पाकर भी जो धर्म का अनुष्‍ठान नहीं करता, वह महान लाभ से वंचित रह जाता है। ‘आज जो लोग निन्‍दित, दरिद्र, कुरुप, रोगी, दूसरों के द्वेष पात्र और मूर्ख देखे जाते हैं, उन्‍होंने पूर्वजन्‍म में धर्म का अनुष्‍ठान नहीं किया है। ‘किंतु जो दीर्घ जीवी शूर– वीर, पण्‍डित, भोग– साम्रगी से सम्‍पन्‍न, निरोग और रूपवान हैं, उनके द्वारा पूर्व जन्‍म में निश्‍चय ही धर्म का सम्‍पादन हुआ है। ‘इस प्रकार शुद्ध भाव से किया हुआ धर्म का अनुष्‍ठान उत्तम गति की प्राप्‍ति कराता है, परन्‍तु जो अधर्म का सेवन करते हैं, उन्‍हें पशु– पक्षी आदि तिर्यग्‍योनियों में गिरना पड़ता है।

‘कुन्‍तीपुत्र युधिष्‍ठर! अब मैं तुम्‍हें एक रहस्‍य की बात बताता हूँ, सुनो। पाण्‍डुनन्‍दन! मै तुम भक्‍त से परम धर्म का वर्णन अवश्‍य करूंगा। ‘तुम मेरे अत्‍यन्‍त प्रिय हो और सदा मरी ही शरण में स्‍थित रहते हो। तुम्‍हारे पूछने पर मैं परम गोपनीय आत्‍म तत्त्व का भी वर्णन कर सकता हूँ, फिर धर्म संहिता के लिये तो कहना ही क्‍या है? ‘इस समय धर्म की स्‍थापना और दुष्‍टों का विनाश करने के लिये अपनी माया से मानव–शरीर में अवतार धारण किया है। ‘जो लोग मुझे केवल मनुष्‍य-शरीर में ही समझकर मेरी अवहेलना करते हैं, वे मूर्ख हैं और संसार के भीतर बारंबार तिर्यग्‍योनियों में भटकते रहते हैं। ‘इसके विपरीत जो ज्ञान दृष्‍टि से मुझे सम्‍पूर्ण भूतों में स्‍थित देखते हैं, वे सदा मुझ में मन लगाये रहने वाले मेरे भक्‍त हैं, ऐसे भक्‍तों को मैं परम धाम में अपने पास बुला लेता हूँ। ‘पाण्‍डु पुत्र! मेरे भक्‍तों का नाश नहीं होता, वे निष्‍पाप होते हैं।

मनुष्‍यों में उन्‍हीं का जन्‍म सफल है, जो मेरे भक्‍त हैं। ‘पाण्‍डुनन्‍दन! पापों में अभिरत रहने वाले मनुष्‍य भी यदि मेरे भक्‍त हो जाय तो वे सारे पापों से वैसे ही मुक्‍त हो जाते हैं, जैसे जल से कमल का पत्ता निर्लिप्‍त रहता है। ‘हजारों जन्‍मों तक तपस्‍या करने से जब मनुष्‍यों का अन्‍त:करण शुद्ध हो जाता है, तब नि:संदेह भक्‍ति का उदय होता है। ‘मेरा जो अत्‍यन्‍त गोपनीय कूटस्‍थ, अचल और अविनाशी परस्‍वरूप है, उसका मेरे भक्‍तों को जैसा अनुभव होता है, वैसा देवताओं को भी नहीं होता। ‘पाण्‍डव! जो मेरा अपरस्‍वरूप है, वह अवतार लेने पर दृष्‍टि गोचर होता है।

कृष्ण द्वारा महिमा का वर्णन

संसार के समस्‍त जीव सब प्रकार के पदार्थों से उसकी पूजा करते हैं। ‘हजारों और करोड़ो कल्‍प आकर चले गये, पर जिस वैष्‍णरूप को देवगण देखते हैं, उसी रूप से मैं भक्‍तों को दर्शन देता हूँ। ‘जो मनुष्‍य मुझे जगत की उत्‍पत्ति, स्‍थित और संहार का कारण समझकर मेरी शरण लेता है, उसके ऊपर कृपा करके मैं उसे संसार– बन्‍धन से मुक्‍त कर देता हूँ। ‘मैं ही देवताओं का आदि हूँ। ब्रह्मा आदि देवताओं की मैंने ही सृष्‍टि की है। मैं ही अपनी प्रकृति का आश्रय लेकर सम्‍पूर्ण संसार की सृष्‍टि करता हूँ।[2]


‘मैं अव्‍यक्‍त परमेश्‍वर ही तमोगुण का आधार रजोगुण के भीतर स्‍थित और उत्‍कृष्‍ट सत्त्वगुण में भी व्‍याप्‍त हूँ। मुझे लोभ नहीं है। ब्रह्मा से लेकर छोटे से कीड़े तक सब मैं व्‍याप्‍त हो रहा हूँ। ‘द्युलोक को मेरा मस्‍तक समझो। सूर्य और चन्‍द्रमा मेरी आंखें हैं। गौ, अग्‍नि और ब्राह्मण मेरे मुख हैं और वायु मेरी सांस है। ‘आठ दिशाएँ मेरी बांहें, नक्षत्र मेरे आभूषण और सम्‍पूर्ण भूतों को अवकाश देने वाला अन्‍तरिक्ष मेरा वक्ष:स्‍थल है। बादलों और हवा के चलने का जो मार्ग है, उसे मेरा अविनाशी उदर समझो। ‘युधिष्‍ठिर! द्वीप, समुद्र और जंगलों से भरा हुआ यह सबको धारण करने वाला भूमण्‍डल मेरे दोनों पैरों के स्‍थान में है। ‘आकाश में एक गुणवाला हूँ, वायु में दो गुणवाला हूँ, अग्‍नि में तीन गुणवाला हूँ और जल में चार गुणवाला हूँ। पृथ्‍वी में पांच गुणों से स्‍थित हूँ।

वही मैं तन्‍मात्रारूप पंचमहाभूतों में शब्‍दादि पांच गुणों से स्‍थित हूँ। ‘मेरे हजारों मस्‍तक, हजारों मुख, हजारों नेत्र, हजारों भुजाएं, हजारों उदर, हजारों ऊरु और हजारों पैर हैं। ‘मैं पृथ्‍वी को सब ओर से धारण करके नाभि से दस अंगुल ऊंचे सबके हृदय में विराजमान हूँ। सम्‍पूर्ण प्राणियों में आत्‍मारूप से स्‍थित हूं, इसलिये सर्वव्‍यापी कहलाता हूँ। ‘राजन! मैं अचिन्‍त्‍य, अन्‍नत, अजर, अजन्‍मा, अनादि, अवध्‍य, अप्रमेय, अव्‍यय, निर्गुण, गुहास्‍वरूप, निर्द्वन्‍द्व, निर्मम, निष्‍कल, निर्विकार और मोक्ष का आदि कारण हूँ। नरेश्‍वर! सुधा और स्‍वधा और स्‍वाहा भी मैं ही हूँ। ‘मैंने ही अपने तेज और तप से चार प्रकार के प्राणि समुदाय को स्‍नेह पाश रूप रज्‍जू से बांधकर अपनी माया से धारण कर रखा है। ‘मैं चारों आश्रमों का धर्म, चार प्रकार के होताओं से सम्‍पन्‍न होने वाले यज्ञ का फल भोगने वाला चतुर्व्‍यूह, चतुर्यज्ञ और चारों आश्रमों को प्रकट करने वाला हूँ।

युधिष्‍ठिर! प्रलयकाल में समस्‍त जगत का संहार करके उसे अपने उदर में स्‍थापित कर दिव्‍य योग का आश्रय ले मैं एकार्णव के जल में शयन करता हूँ। ‘एक हजार युगों तक रहने वाली ब्रह्मा की रात पूर्ण होने तक महावर्ण में शयन करने के पश्‍चात स्‍थावार– जंगम प्राणियों की सृष्‍टि करता हूँ। ‘प्रत्‍येक कल्प में मेरे द्वारा जीवों की सृष्‍टि और संहार का कार्य होता है, किंतु मेरी माया से मोहित होने के कारण वे जीव मुझे नहीं जान पाते। ‘प्रलयकाल में जब दीपक के शान्‍त होने की भाँति समस्‍त व्‍यक्‍त सृष्‍टि लुप्‍त हो जाती है, जब खोज करने योग्‍य मुझ अदृश्‍य रूप की गति का उनको पता नहीं लगता। ‘राजन! कहीं कोई भी ऐसी वस्‍तु नहीं है, जिसमें मेरा निवास न हो तथा कोई ऐसा जीव नहीं है, जो मुझमें स्‍थित न हो। ‘जो कुछ भी स्‍थूल– सूक्ष्‍म रूप यह जगत हो चुका है और होने वाला है, उन सबमें उसी प्रकार मैं ही जीव रूप से स्‍थित हूँ। ‘अधिक कहने से क्‍या लाभ, मैं तुमसे यह सच्‍ची बात बता रहा हूँ कि भूत और भविष्‍य जो कुछ है, वह सब मैं ही हूँ। ‘भरतनन्‍दन! सम्‍पूर्ण भूत मुझसे ही उत्‍पन्‍न होते हैं और मेरे हीस्‍वरूप हैं।[3] फिर भी मेरी माया से मोहित रहते हैं, इसलिये मुझे नहीं जान पाते। ‘राजन्! इस प्रकार देवता, असुर और मनुष्‍यों सहित समस्‍त संसार का मुझसे ही जन्‍म और मुझमें ही लय होता है’।[4]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णव धर्म पर्व भाग-1
  2. महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णव धर्म पर्व भाग-2
  3. महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णव धर्म पर्व भाग-3
  4. महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णव धर्म पर्व भाग-4

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