श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना

महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 159 में श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन हुआ है।[1]

श्रीकृष्ण का संवाद

वैशम्पायन जी कहते हैं जनमेजय! श्रीकृष्ण ने कहा- तात! पहले की बात है, मेरे घर में एक हरित-पिंगल वर्ण वाले ब्राह्मण ने निवास किया था। वह चिथड़े पहिनता और बेल का डंडा हाथ में लिये रहता था। उसकी मूँछें और दाढियाँ बढ़ी हुई थी। वह देखने में दुबला-पतला और ऊँचे कद का था। इस भूतल पर जो बड़े-से-बड़े मनुष्‍य हैं, उन स‍बसे वह अधिक लंबा था और दिव्‍य तथा मानव लोकों में इच्‍छानुसार विचरण करता था। वे ब्राह्मण देवता जिस समय यहाँ पधारे थे, उस समय धर्मशालाओं में और चौराहों पर यह गाथा गाते फिरते थे कि ‘कौन मुझ दुर्वासा ब्राह्मण को अपने घर में सत्‍कारपूर्वक ठहरायेगा। यदि मेरा थोड़ा-सा भी अपराध बन जाय तो मैं समस्‍त प्राणियों पर अत्‍यन्‍त कुपित हो उठता हूँ। मेरे इस भाषण को सुनकर कौन मेरे लिये ठहरने का स्‍थान देगा? इस बात के लिये उसे सतत सावधान रहना होगा।[1]

दुर्वासा के चरित्र का वर्णन

बेटा! जब कोई भी उनका आदर न कर सका तब मैंने उन्‍हें अपने घर में ठहराया। वे कभी तो एक ही समय इतना अन्‍न भोजन कर लेते थे, जितने से कई हजार मनुष्‍य तृप्‍त हो सकते थे और कभी बहुत थोड़ा अन्‍न खाते तथा घर से निकल जात थे। उस दिन फिर घर को नहीं लौटते थे। व़े अकस्‍मात जोर-जोर से हँसने लगते और अचानक फूट-फूटकर रो पड़ते थे। उस समय इस पृथ्‍वी पर उनका समवयस्क कोई नहीं था। एक दिन अपने ठहरने के स्‍थान पर जाकर वहाँ बिछी हुई शय्‍याओं, बिछौनों और वस्‍त्राभूषणों से अलंकृत हुई कन्‍याओं को उन्‍होंने जलाकर भस्‍म कर दिया और स्‍वयं वहाँ से खिसक गये। फिर तुरंत ही मेरे पास आकर वे कठोर व्रत का पालन करने वाले मुनि मुझ से इस प्रकार बोले- ‘कृष्‍ण! मैं शीघ्र ही खीर खाना चाहता हूँ। मैं उनके मन की बात जानता था, इसलिये घर के लोगों से पहले से ही आज्ञा दे दी थी कि ‘सब प्रकार के उत्तम मध्‍यम अन्‍नपान और भक्ष्‍य-भोज्‍य पदार्थ आदरपूर्वक तैयार किये जायँ।’ मेरे कथनानुसार सभी चीजें तैयार थीं ही, अत: मैंने मुनि को गरमागरम खीर निवेदन किया। उसको थोड़ा-सा ही खाकर वे तुरंत मुझसे बोले- ‘कृष्‍ण! इस खीर को शीघ्र ही अपने सारे अंगों में पोत लो‘।[2]

मैंने बिना विचारे ही उनकी इस आज्ञा का पालन किया। वही जूठी खीर मैंने अपने सिर पर तथा अन्‍य सारे अंगों में पोत ली। इतने ही में उन्‍होंने देखा कि तुम्‍हारी सुमुखी माता पास ही खड़ी-खड़ी मुसकरा रही हैं। मुनि की आज्ञा पाकर मैंने मुसकराती हुई तुम्‍हारी माता के अंगों में भी खीर लपेट दी। जिसके सारे अंगों में खीर लिपटी हुई थी, उस महारानी रुक्मिणी को मुनि ने तुरंत रथ में जोत दिया और उसी रथ पर बैठकर वे मेरे घर से निकले। वे बुद्धिमान ब्राह्मण दुर्वासा अपने तेज से अग्नि के समान प्रकाशि हो रहे थे। उन्‍होंने मेरे देखते-देखते जैसे रथ के घोड़ों पर कोड़े चलाये जाते हैं, उसी प्रकार भोली-भाली रुक्मिणी का भी चाबुक से चोट पहुँचाना आरम्‍भ किया। उस समय मेरे मन में थोड़ा-सा भी ईर्ष्‍या जनित दुख नहीं हुआ। इसी अवस्‍था में वे महल से बाहर आकर विशाल राजमार्ग से चलने लगे। यह महान आश्‍चर्य की बात देखकर दशार्ह वंशी यादवों को बड़ा क्रोध हुआ। उनमें से कुछ लोग वहाँ आपस में इस प्रकार बातें करने लगे-न‘भाइयों! इस संसार में ब्राह्मण ही पैदा हों, दूसरा कोई वर्ण किसी तरह पैदा न हो। अन्‍यथा यहाँ इन बाबाजी के सिवा और कौन पुरुष इस रथ पर बैठ कर जीवित रह सकता था। ‘कहते हैं- विषैले साँपों का विष बड़ा तीखा होता है, परंतु ब्राह्मण उससे भी अधिक तीक्ष्‍ण होता है। जो ब्राह्मणरूपी विषधर सर्प से जलाया गया हो, उसके लिये इस संसार में कोई चिकित्‍सक नहीं है’। उन दुर्धर्ष दुर्वासा के इस प्रकार रथ से यात्रा करते समय बेचारी रुक्मिणी रास्‍ते में लड़खड़ाकर गिर पड़ी, परंतु श्रीमान दुर्वासा मुनि इस बात को सहन न कर सके। उन्‍होंने तुरंत उसे चाबुक से हाँकना शुरू किया। जब वह बारंबार लड़खड़ाने लगी, तब वे और भी कुपित हो उठे और रथ से कूदकर बिना रास्‍ते के ही दक्षिण दिशा की ओर पैदल ही भागने लगे।[2]

दुर्वासा द्वारा श्रीकृष्ण को वरदान

इस प्रकार बिना रास्‍ते के ही दौड़ते हुए विप्रवर दुर्वासा के पीछे-पीछे मैं उसी तरह सारे शरीर में खरी लपेटे दौड़ने लगा और बोला- ‘भगवन! प्रसन्‍न होइये। ‘तब वे तेजस्‍वी ब्राह्मण मेरी ओर देखकर बोले- ‘महाबाहु श्रीकृष्‍ण! तुमने स्‍वभाव से ही क्रोध को जीत लिया है। उत्तम व्रतधारी गोविन्‍द! मैंने यहाँ तुम्‍हारा कोई भी अपराध नहीं देखा है, अत: तुम पर प्रसन्‍न हूँ। तुम मुझसे मनोवांछित कामनाएँ माँग लो। ‘तात! मेरे प्रसन्‍न होने का जो भावी फल है, उसे विधिपूर्वक सुनो। जब तक देवताओं और मनुष्‍यों का अन्‍न में प्रेम रहेगा, तब तक जैसा अन्‍न के प्रति उनका भाव या आकर्षण होगा, वैसा ही तुम्‍हारे प्रति भी बना रहेगा। ‘तीनों लोकों में जब तक तुम्‍हारी पुण्‍यकीर्ति रहेगी, तब तक त्रिभुवन में तुम प्रधान बने रहोगे। जनार्दन! तुम सब लोगों के परम प्रिय होओगे। ‘जनार्दन! तुम्‍हारी जो-जो वस्‍तु मैंने तोड़ी-फोड़ी, जलायी या नष्‍ट कर दी है, वह सब तुम्‍हें पूर्ववत या पहले से भी अच्‍छी अवस्‍था में सुरक्षित दिखायी देगी। ‘मधुसूदन! तुमने अपने सारे अंगों में जहाँ तक खीर लगायी है, वहाँ तक के अंगों में चोट लगने से तुम्‍हें मृत्यु का भय नहीं रहेगा। अच्‍युत! तुम जब तक चाहोगे, यहाँ अमर बने रहोगे। ‘परंतु यह खीर तुमने अपने पैरों के तलवों में नहीं लगायी है। बेटा! तुमने ऐसा क्‍यों किया? तुम्‍हारा यह कार्य मुझे प्रिय नहीं लगा। ‘इस प्रकार जब उन्‍होंने मुझसे प्रसन्‍नतापूर्वक कहा, तब मैंने अपने शरीर को अद्भुत कान्ति से सम्‍पन्‍न देखा। फिर मुनि ने रुक्मिणी से भी प्रसन्‍नतापूर्वक कहा- ‘शोभने! तुम सम्‍पूर्ण स्त्रियों में उत्तम यश और लोक में सर्वोत्तम कीर्ति प्राप्‍त करोगी।[3]

भामिनि! तुम्‍हें बुढ़ापा या रोग अथवा कान्ति हीनता आदि दोष नहीं दू सकेंगे। तुम पवित्र सुगन्‍ध से सुवासित होकर श्रीकृष्‍ण की आराधना करोगी। ‘श्रीकृष्‍ण की जो सोलह हजार रानियाँ हैं, उन सबमें तुम श्रेष्‍ठ और पति के सालोक्‍य की अधिकारिणी होओगी। ‘प्रद्युम्‍न! तुम्‍हारी माता से ऐसा कहकर वे अग्नि के समान प्रज्‍वलित होने वाले महातेजस्‍वी दुर्वासा यहाँ से प्रस्थित होते समय फिर मुझसे बोले- ‘केशव! ब्राह्मणों के प्रति तुम्‍हारी सदा ऐसी ही बुद्धि बनी रहे। ‘प्रभावशाली पुत्र! ऐसा कहकर वे वहीं अन्‍तर्धान हो गये। उनके अदृश्‍य हो जाने पर मैंने अस्‍पष्‍ट वाणी में धीरे से यह व्रत लिया कि ‘आज से कोई ब्राह्मण मुझसे जो कुछ कहेगा, वह सब मैं पूर्ण करूँगा।‘ बेटा! ऐसी प्रतिज्ञा करके परम प्रसन्‍नचित्त होकर मैंने तुम्‍हारी माता के साथ घर में प्रवेश किया। पुत्र! घर में प्रवेश करके मैं देखता हूँ तो उन ब्राह्मण ने जो कुछ तोड़-फोड़ या जला दिया था, वह सब नूतनरूप से प्रस्‍तुत दिखायी दिया। रुक्मिणीनन्‍दन! वे सारी वस्‍तुएँ नूतन और सुदृढ़ रूप में उपलब्‍ध हैं, यह देखकर मुझे बड़ा आश्‍चर्य हुआ और मैंने मन-ही-मन द्विजों की सदा ही पूजा की। इस तरह मैंने उनसे विप्रवर दुर्वासा का सारा माहात्‍म्य कहा था। प्रभो! कुन्‍तीनन्‍दन! इसवी प्रकार आप भी सदा मीठे वचन बोलकर और नाना प्रकार के दान देकर महाभाग ब्राह्मणों की सर्वदा पूजा करते रहें। भरतश्रेष्‍ठ! इस प्रकार ब्राह्मण के प्रसाद से मुझे उत्तम फल प्राप्‍त हुआ। वे भीष्‍म जी मेरे विषय में जो कुछ कहते हैं, वह सब सत्‍य है।[3]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 159 श्लोक 1-17
  2. 2.0 2.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 159 श्लोक 18-35
  3. 3.0 3.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 159 श्लोक 36-56

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प्रधानता | त्रिवर्ग का निरूपण | कल्याणकारी आचार-व्यवहार का वर्णन | विविध प्रकार के कर्मफलों का वर्णन | अन्धत्व और पंगुत्व आदि दोषों और रोगों के कारणभूत दुष्कर्मों का वर्णन | उमा-महेश्वर संवाद में महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन | प्राणियों के चार भेदों का निरूपण | पूर्वजन्म की स्मृति का रहस्य | मरकर फिर लौटने में कारण स्वप्नदर्शन | दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन | यमलोक तथा वहाँ के मार्गों का वर्णन | पापियों की नरकयातनाओं का वर्णन | कर्मानुसार विभिन्न योनियों में पापियों के जन्म का उल्लेख | शुभाशुभ आदि तीन प्रकार के कर्मों का स्वरूप और उनके फल का वर्णन | मद्यसेवन के दोषों का वर्णन | पुण्य के विधान का वर्णन | व्रत धारण करने से शुभ फल की प्राप्ति | शौचाचार का वर्णन | आहार शुद्धि का वर्णन | मांसभक्षण से दोष तथा मांस न खाने से लाभ | गुरुपूजा का महत्त्व | उपवास की विधि | तीर्थस्थान की विधि | सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य | अन्न, सुवर्ण और गौदान का माहात्म्य | भूमिदान के महत्त्व का वर्णन | कन्या और विद्यादान का माहात्म्य | तिल का दान और उसके फल का माहात्म्य | नाना प्रकार के दानों का फल | लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताओं की पूजा का निरूपण | श्राद्धविधान आदि का वर्णन | दान के पाँच फल | अशुभदान से भी शुभ फल की प्राप्ति | नाना प्रकार के धर्म और उनके फलों का प्रतिपादन | शुभ और अशुभ गति का निश्चय कराने वाले लक्षणों का वर्णन | मृत्यु के भेद | कर्तव्यपालनपूर्वक शरीरत्याग का महान फल | काम, क्रोध आदि द्वारा देहत्याग करने से नरक की प्राप्ति | मोक्षधर्म की श्रेष्ठता का प्रतिपादन | मोक्षसाधक ज्ञान की प्राप्ति का उपाय | मोक्ष की प्राप्ति में वैराग्य की प्रधानता | सांख्यज्ञान का प्रतिपादन | अव्यक्तादि चौबीस तत्त्वों की उत्पत्ति आदि का वर्णन | योगधर्म का प्रतिपादनपूर्वक उसके फल का वर्णन | पाशुपत योग का वर्णन | शिवलिंग-पूजन का माहात्म्य | पार्वती के द्वारा स्त्री-धर्म का वर्णन | वंश परम्परा का कथन और श्रीकृष्ण के माहात्म्य का वर्णन | श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन और भीष्म का युधिष्ठिर को राज्य करने का आदेश | श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम् | जपने योग्य मंत्र और सबेरे-शाम कीर्तन करने योग्य देवता | ऋषियों और राजाओं के मंगलमय नामों का कीर्तन-माहात्म्य | गायत्री मंत्र का फल | ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन | कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन | ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद | वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन | ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन | ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन | अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन | कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार | ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना | भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन | श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना | श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना | श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता | भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन | साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण | युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना | भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना | नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य | भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन | भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना | भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना | भीष्म का प्राणत्याग | धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार | गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना

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