श्रीकृष्ण के उपदेश का उपसंहार

महाभारत आश्वमेधिक पर्व के वैष्णव धर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 92 में श्रीकृष्ण उपदेश के उपसंहार का वर्णन हुआ है।[1]

श्रीकृष्ण के उपदेश का उपसंहार

युधिष्‍ठिर ने पूछा– भगवन! यदि कोई ब्राह्मण परदेश गया हो और वहीं काल की प्रेरणा से उसका शरीर नष्‍ट हो जाये तो उसकी प्रेतक्रिया (अन्‍त्‍येष्‍टि–संस्‍कार) किस प्रकार सम्‍भव है?

श्रीभगवान ने कहा– राजन्! यदि किसी अग्‍निहोत्री ब्राह्मण की इस प्रकार मृत्‍यु हो जाए तो उसका संस्‍कार करने के लिये प्रेतकल्‍प में बताये अनुसार उसकी काष्‍ठमयी प्रतिमा बनवानी चाहिये। वह काष्‍ठ पलाश का ही होना उचित है।

युधिष्‍ठिर! मनुष्‍य के शरीर में तीन सौ साठ हड्डियां बतायी गयी हैं। उन सबकी शास्‍त्रोक्‍त रीति से कल्‍पना करके उस प्रतिमा का दाह करना चाहिये। युधिष्ठिर ने पूछा- भगवन्! जो भक्‍त तीर्थयात्रा करने में असमर्थ हों, उन सबको तारने के लिये कृपया किसी विशेष तीर्थ का धर्मानुसार वर्णन कीजिये। श्री भगवान् ने कहा– राजन्! सामवेद का गायन करने वाले विद्वान् कहते हैं कि सत्‍य सब तीर्थों को पवित्र करने वाला है। सत्‍य बोलना और किसी जीव की हिंसा न करना– ये तीर्थ कहलाते हैं। युधि‍ष्‍ठि‍र! तप, दया, शील, थोडे में संतोष करना– ये सदगुण भी तीर्थरूप में ही हैं तथा पतिव्रता नारी भी तीर्थ है।[1]

संतोषी ब्राह्मण और ज्ञान को भी तीर्थ कहते हैं। मेरे भक्त सदैव तीर्थरूप हैं और शंकर के भक्‍त विशेषतया तीर्थ हैं। संन्‍यासी और विद्वान भी तीर्थ कहे जाते हैं। दूसरों को शरण देने वाले पुरुष भी तीर्थ हैं। जीवों को अभय दान देना भी तीर्थ ही कहलाता है। मैं तीनों लोकों में उद्वेगशून्‍य हूँ। दिन हो या रात, मुझे कभी किसी से भी भय नहीं होता; किंतु शुद्र का मर्यादा-भंग करना मुझे बुरा लगता है।

वेदों का वर्णन

राजन्! देवता, दैत्य और राक्षसों से भी मैं नहीं डरता। परंतु शूद्र के मुख से जो वेद का उच्‍चारण होता है, उससे मुझे सदा ही भय बना रहता है। इसलिये शूद्र को मेरे नाम का भी प्रणव के साथ उच्‍चारण नहीं करना चाहिये, क्‍योंकि वेदवत्‍ता विद्वान इस संसार में प्रणव को सर्वोत्‍कृष्‍ट वेद मानते हैं। शूद्र मुझमें भक्‍ति रखते हुए ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्‍यों की सेवा करें– यही उनका परम धर्म है। द्विजों की सेवा से ही शूद्र परम कल्‍याण के भागी होते हैं। इसके सिवा उनके उद्धार का दूसरा कोई उपाय नहीं है। ब्रह्मा जी ने शूद्रों को तामस गुणों से युक्‍त उत्‍पन्‍न करके उनके लिये द्विजों की सेवारूप धर्म का उपदेश किया। द्विजों की भक्‍ति से शूद्र के तामसी भाव नष्‍ट हो जाते हैं। शूद्र भी यदि भक्‍तिपूर्वक मुझे पत्र, पुष्‍प, फल अथवा जल अर्पण करता है तो मैं उसके भक्‍तिपूर्वक दिये हुए उपहार को सादर शीश चढ़ाता हूँ।

सम्‍पूर्ण पापों से मुक्‍त युक्‍त होने पर भी यदि कोई ब्राह्मण सदा मेरा ध्‍यान करता रहता है तो वह अपने सम्‍पूर्ण पापों से छुटकारा पा जाता है। विद्या और विनय से सम्‍पन्‍न तथा वेदों के पारंगत विद्वान होने पर भी जो ब्राह्मण मुझमें भक्‍ति नहीं करते, वे चाण्‍डाल के समान है। जो द्विज मेरा भक्‍त नहीं है, उसके दान, तप, यज्ञ, होम और अतिथि-सत्‍कार–ये सब व्‍यर्थ है। पाण्‍डुनन्‍दन! जब मनुष्‍य समस्‍त स्‍थावर–जंगम प्राणियों में एवं मित्र और शत्रु में समान दृष्‍टि कर लेता है, उस समय वह मेरा सच्‍चा भक्‍त होता है। राजन! क्रूरता का अभाव, अहिंसा, सत्‍य, सरलता तथा किसी भी प्राणी से द्रोह न करना– यह मेरे भक्‍तों का व्रत है। पृथ्‍वीनाथ! जो मनुष्‍य मेरे भक्‍त को श्रद्धापूर्वक नमस्‍कार करता है, वह चाण्‍डाल ही क्‍यों न हो, उसे अक्षय लोकों की प्राप्‍ति होती है। फिर जो साक्षात मेरे भक्‍त हैं, जिनके प्राण मुझमें ही लगे रहते हैं तथा जो सदा मेरे ही नाम और गुणों का कीर्तन करते रहते हैं, वे यदि लक्ष्‍मी सहित मेरी विधिवत पूजा करते हैं तो उनकी सद्गति के विषय में क्‍या कहना हैं ?

अनेकों हजारों वर्षो तक तपस्‍या करने वाला मनुष्‍य भी उस पद को प्राप्‍त नहीं होता, जो मेरे भक्‍तों को अनायास ही मिल जाता है। इसलिये राजेन्‍द्र! तुम सदा सजग रहकर निरन्‍तर मेरा ही ध्‍यान करते रहो, इससे तुम्‍हें सिद्धि प्राप्‍त होगी और तुम निश्‍चय ही परम पद का साक्षात्‍कार कर सकोगे। जो होता बनकर ऋग्वेद के द्वारा, अध्‍वर्यु होकर यजुर्वेद के द्वारा, उद्गाता बनकर परम पवित्र सामवेद के द्वारा मेरा स्‍तवन करते हैं तथा अथर्ववेदीय द्विजों के रूप में जो अथर्ववेद के द्वारा हमेशा मेरी स्‍तुति किया करते हैं, वे भगवद्भक्‍त माने गये हैं। यज्ञ सदा वेदों के अधीन हैं और देवता यज्ञों तथा ब्राह्मणों के अधीन होते हैं, इसलिये ब्राह्मण देवता हैं।[2]

किसी का सहारा लिये बिना कोई ऊंचे नही चढ़ सकता, अत: सबको किसी प्रधान आश्रय का सहारा लेना चाहिये। देवता लोग भगवान रुद्र के आश्रय में रहते हैं, रुद्र ब्रह्माजी के आश्रित हैं। ब्रह्मा जी मेरे आश्रय में रहते हैं, किंतु मैं किसी के आश्रित नहीं हूँ। राजन्! मेरा आश्रय कोई नहीं हैं। मैं ही सबका आश्रय हूँ। राजन इस प्रकार ये उत्‍तम रहस्‍य की बातें मैंने तुम्‍हें बतायी हैं, क्‍योंकि तुम धर्म के प्रेमी हो। अब तुम इस उपदेश के ही अनुसार सदा आचरण करो। यह पवित्र आख्‍यान पुण्‍यदायक एवं वेद के समान मान्‍य है। पाण्‍डुनन्‍दन! जो मेरे बताये हुये इस वैष्‍णव धर्म का प्रतिदिन पाठ करेगा, उसके धर्म की वृद्धि होगी और बुद्धि निर्मल। साथ ही उसके समस्‍त पापों का नाश होकर परम कल्‍याण का विस्‍तार होगा। यह प्रसंग परम पवित्र, पुण्‍यदायक, पापनाशक और अत्‍यन्‍त उत्‍कृष्‍ट है। सभी मनुष्‍यों को, विशेषत: श्रोत्रिय विद्वानों को श्रद्धा के साथ इसका श्रवण करना चाहिये। जो मनुष्‍य भक्‍तिपूर्वक इसे सुनाता और पवित्रचित्त होकर सुनता है, वह मेरे सायुज्‍य का प्राप्‍त होता है, इसमें कोई शंका नहीं है। मेरी भक्‍ति में तत्‍पर रहने वाला जो भक्‍त पुरुष श्राद्ध में इस धर्म को सुनाता है, उसके पितर इस ब्राह्मण्‍ड के प्रलय होने तक सदा तृप्‍त बने रहते हैं।[3]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णव धर्म पर्व भाग-61
  2. महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णव धर्म पर्व भाग-62
  3. महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णव धर्म पर्व भाग-63

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