श्रीकृष्ण का वसुदेव को महाभारत युद्ध का वृत्तान्त संक्षेप में सुनाना

महाभारत आश्वमेधिक पर्व के अनुगीता पर्व के अंतर्गत अध्याय 60 में श्रीकृष्ण का वसुदेव को महाभारत युद्ध का वृत्तान्त संक्षेप में सुनाने का वर्णन हुआ है।[1]

वसुदेव द्वारा महाभारत के युद्ध के बारे में पूछना

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! वसुदेव जी ने पूछा- वृष्णिनन्दन! मैं प्रतिदिन बातचीत के प्रसंग में लोगों के मुँह से सुनता आ रहा हूँ कि महाभारत युद्ध बड़ा अद्भुत हुआ था। इसलिये पूछता हूँ कि कौरवों और पाण्डवों में किस तरह युद्ध हुआ? महाबाहो! तुम तो उस युद्ध के प्रत्यक्षदर्शी हो और उसके स्वरूप को भी भली-भाँति जानते हो। अत: अनघ! मुझसे उस युद्ध का यथार्थ वर्णन करो। महात्मा पाण्डवों का भीष्म, कर्ण, कृपाचार्य, द्रोणाचार्य और शल्य आदि के साथ जो परम उत्तम युद्ध हुआ था, वह किस तरह हुआ? दूसरे-दूसरे देशों में निवास करने वाले, भाँति-भाँति की वेशभूषा और आकृति वाले जो अस्त्र-विद्या में निपुण बहुसंख्यक क्षत्रिय वीर थे, उन्होंने भी किस प्रकार युद्ध किया था?

श्रीकृष्ण का संवाद

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! माता के निकट पिता के इस प्रकार पूछने पर कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण कौरव वीरों के संग्राम में मारे जाने का वह प्रसंग यथावत रूप से सुनाने लगे। श्रीकृष्ण ने कहा- पिता जी! महाभारत युद्ध में काम में आने वाले मनस्वी क्षत्रिय वीरों के कर्म बड़े अद्भुत हैं। वे इतने अधिक हैं कि यदि विस्तार के साथ उनका वर्णन किया जाय तो सौ वर्षों में भी उनकी समाप्ति नहीं हो सकती। अत: देवताओं के समान तेजस्वी तात! मैं मुख्य-मुख्य घटक घटनाओं को ही संक्षेप से सुना रहा हूँ, आप उन भूपतियों के कर्म तथा यथावत रूप से सुनिये। जैसे इन्द्र देवताओं की सेना के स्वामी हैं, उसी प्रकार कुरुकुलतिलत भीष्म भी श्रेष्ठ कौरववीरों के सेनापति बनाये गये थे। वे ग्यारह अक्षौहिणी सेना के संरक्षक थे। पाण्डवों के सेनानायक शिखण्डी थे, जो सात अक्षौहिणी सेनाओं का संचालन करते थे। बुद्धिमान शिखण्डी श्रीमान सव्यसाची अर्जुन के द्वारा सुरक्षित थे। उन महामनस्वी कौरवों और पाण्डवोंं में दस दिनों तक महान रोमांचकारी युद्ध हुआ। फिर दसवें दिन शिखण्डी ने महासमर में जूझते हुए गंगानन्दन भीष्म को गाण्डीव धारी अर्जुन की सहायता से बहुसंख्यक बाणों द्वारा बहुत घायल कर दिया। तत्पश्चात भीष्म जी बाण शय्या पर पड़ गये। जब तक दक्षिणायन रहा है, वे मुनिव्रत का पालन करते हुए शरशय्या पर सोते रहे हैं। दक्षिणायन समाप्त होकर उत्तरायण के आने पर ही उन्होंने मृत्यु स्वीकार की है। तदन्तर अस्त्रवेत्ताओं में श्रेष्ठ आचार्य द्रोण कौरवपक्ष के सेनापति बनाये गये। वे कौरवराज की सेना के प्रमुख वीर थे, मानो दैत्यराज बलि की सेना के प्रधान संरक्षक शुक्राचार्य हों। उस समय मरने से बची हुई नौ अक्षौहिणी सेना उन्हें सब ओर से घेर कर खड़ी थी। वे स्वयं तो युद्ध का हौसला रखते ही थे, कृपाचार्य और कर्ण भी सदा उनकी रक्षा करते रहते थे। इधर महान अस्त्रवेत्ता धृष्टद्युम्न पाण्डव सेना के अधिनायक हुए। जैसे मित्र वरुण की रक्षा करते हैं, उसी प्रकार भीमसेन मेधावी धृष्टद्युम्न की रक्षा करने लगे। पाण्डवसेना से घिरे हुए महामनस्वी वीर धृष्टद्युम्न ने द्रोण के द्वारा अपने पिता के अपमान का स्मरण कर के उन्हें मार डालने के लिये युद्ध में बड़ा भारी पराक्रम दिखाया। धृष्टद्युम्न और द्रोण के उस भीष्ण संग्राम में नाना दिशाओं से आये हुए भूपाल अधिक संख्या में मारे गये।[1] उन दोनों का वह परम दारुण युद्ध पाँच दिनों तक चलता रहा। अन्त में द्रोणाचार्य बहुत थक गये और धृष्टद्युम्न के वश में पड़कर मारे गये। तत्पश्चात दुर्योधन की सेना में कर्ण को सेनापति बनाया गया, जो मरने से बची हुई पाँच अक्षौहिणी सेनाओं से घिरकर युद्ध के मैदान में खड़ा था।[2]

उस समय पाण्डवों के पास तीन अक्षौहिणी सेनाएँ शेष थीं जिनकी रक्षा अर्जुन कर रहे थे। उनमें बहुत से प्रमुख वीर मारे गये थे, फिर भी वे युद्ध के लिए डटी हुई थीं। कर्ण दो दिन तक युद्ध करता रहा। वह बड़े क्रूर स्वभाव का था। जैसे पतंग जलती आग मेें कूद कर जल मरता है, उसी प्रकार वह दूसरे दिन के युद्ध में अर्जुन से भिड़कर मारा गया। कर्ण के मारे जाने पर कौरव हतोत्साह होकर अपनी शक्तिा खो बैठे और मद्रराज शल्य को सेनापति बनाकर उन्हें तीन अक्षौहिणी सेनाओं से सुरक्षित रखकर उन्होंने युद्ध आरम्भ किया। पाण्डवों के भी बहुत से वाहन नष्ट हो गये थे। उनमें भी अब युद्ध विषयक उत्साह नहीं रह गया था तो भी वे शेष बची हुई एक अक्षौहिणी सेना से घिरे हुए युधिष्ठिर को आगे करके शल्य का सामना करने के लिए बढ़े। कुरुराज युधिष्ठिर ने अत्यन्त दुष्कर पराक्रम करके दोपहर होत-होते मद्रराज शल्य को मार गिराया। शल्य के मारे जाने पर अमित पराक्रमी महामना सहदेव ने कलह की नींव डालने वाले शकुनि को मार दिया। शकुनि की मृत्यु हो जाने पर राजा दुर्योधन के मन में बड़ा दु:ख हुआ। उसके बहुत से सैनिक युद्ध में मार डाले गये थे। इसलिये वह अकेला ही हाथ में गदा लेकर रणभूमि से भाग निकला। इधर से अत्यन्त क्रोध में भरे हुए प्रतापी भीमसेन ने उसका पीछा किया और द्वैपायन नामक सरोवर में पानी के भीतर छिपे हुए दुर्योधन का पता लगा लिया। तदन्तर हर्ष में भरे हुए पाँचों पाण्डव मरने से बची हुई सेना के द्वारा उस पर चारों ओर से घेरा डालकर तालाब में बैठे हुए दुर्योधन के पास जा पहुँचे। उस समय भीमसेन के वाग्बाणों से अत्यन्त घायल होकर दुर्योधन तुरंत पानी से बाहर निकला और हाथ में गदा ले युद्ध के लिए उद्यत हो पाण्डवों के पास आ गया। तत्पश्चात उस महासमर में सब राजाओं के देखते-देखते भीमसेन ने पराक्रम करके धृतराष्ट्र पुत्र राजा दुर्योधन को मार डाला। इसके बाद रात के समय जब पाण्डवों की सेना अपनी छावनी में निश्चिन्त होकर सो रही थी, उसी समय द्रोणपुत्र अश्वत्थामा ने अपने पिता के वध को न सह सकने के कारण आक्रमण कर किया और सबको मार गिराया। उस समय पाण्डवों के पुत्र, मित्र और सैनिक सब मारे गये। केवल मेरे और सात्यकि के साथ पाँचों पाण्डव शेष रहे। कौरवों के पक्ष में कृपाचार्य और कृतवर्मा के साथ द्रोणपुत्र अश्वत्थामा युद्ध से जीवित बचा है। कुरुवंशी युयुत्सु भी पाण्डवों का आश्रय लेने के कारण बच गये हैं। बन्धु-बान्धवों सहित कौरवराज दुर्योधन के मारे जाने पर विदुर और संजय धर्मराज युधिष्ठिर के आश्रम में आ गये हैं। प्रभो! इस प्रकार अठारह दिनों तक वह युद्ध हुआ है। उसमें जो राजा मारे गये हैं, वे स्वर्गलोक में जा बसे हैं। वैशम्पायन जी कहते हैं- महाराज! रोंगटे खड़े कर देने वाली उस युद्ध-वार्ता को सुनकर वृष्णिवंशी लो दु:ख-शोक से व्याकुल हो गये।[2]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 60 श्लोक 1-17
  2. 2.0 2.1 महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 60 श्लोक 18-36

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