श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
19. प्रद्युम्न-हरण-शम्बर-मरण
महाराज उग्रसेन ने चारों ओर चर भेजे। यादव महारथियों ने वन, पर्वत-गृहायें, सब दुर्गम स्थान देख डाले। सब यादव-विरोधियों के यहाँ और जहाँ भी उनके द्वारा शिशु को छिपाये जाने की सम्भावना थी, सब स्थलों का पता लगा लिया। शिशु का कहीं कोई समाचार-उसके अन्वेषण का कोई सूत्र नहीं मिला। इस सब भाग-दौड़, चिन्ता-व्याकुलता में श्रीकृष्ण शान्त बने रहे। उन्होंने महारानी रुक्मिणी से कहा- 'तुम शोक त्याग दो। तुम्हारा शिशु भगवान उमाकान्त के प्रसाद से प्राप्त है। उसका अनिष्ट कोई कर नहीं सकता। उसकी रक्षा तो प्रलयंकर का आशीर्वाद कर रहा है। उसके लौटने में विलम्ब हो सकता है, किन्तु वह मंगल सहित लौटेगा- यह निश्चित है।' देवी रुक्मिणी को अपने आराध्य के वचनों पर पूरा विश्वास था। भगवान सदाशिव में आस्था थी; किन्तु माता का हृदय- दूसरा कोई उपाय न देखकर वे देवी अम्बिका की आराधना करने लगीं अपने पुत्र की कल्याण-कामना से। 'मैं सुरासुर सबके लिये अवध्य हो जाऊँ।' 'एवमस्तु !' ब्रह्मा जी वरदान देकर ब्रह्मलोक चले गये। शम्बर ने पृथ्वी से बहुत दूर समुद्र के मध्य मे अपनी राजधानी बनायी। वह निश्चिन्त था; क्योंकि उसे पता था कि लक्ष्मी अजातपुत्रा है। शम्बर महामायावी था। सैकड़ों प्रकार की माया उसे आती थीं। रात्रि में आकाश में अन्तर्हित रहते हुए द्वारिका जाना और शिशु को उठा लेना उसके लिये कुछ कठिन नहीं था। उसने अतल समुद्र में शिशु को ऊपर से गिरा दिया और निश्चिंत होकर अपने नगर चला गया। सात दिन का नन्हा शिशु ऊपर से उत्ताल तरंगों में गर्जना करते सागर में फेंक दिया गया और वह भी ऐसे स्थान पर जहाँ समुद्र जल में तिमि और तिमिंगल जैसे महामत्स्य भरे पड़े है, फिर उस शिशु का चिह्न भी बचेगा?
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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