श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
3. द्वारिका
‘कुशस्वलीं दिवि भुवि संस्तुताम्।’[1] एक कथा है महाराज शर्याति ने गर्व में आकर अपने पुत्रों के सम्मुख एक दिन कहा- ‘यह सम्पूर्ण पृथ्वी मेरी है। मैंने अपने बल से इसका उपार्जन और पालन किया है।’ शर्याति के शेष समस्त पुत्रों ने मौन रहकर पिताजी की बात स्वीकार कर ली किन्तु राजकुमार आनर्त ने कहा- ‘पिताजी। पृथ्वी-भू देवी तो श्रीहरि की नित्या प्रिया है। वही प्रभु सबके पालन-धारक है। आप, हम सब तो भूमि-पुत्र है। श्रीहरि के आश्रित है।’ शर्याति को क्रोध आ गया। उन्होंने कहा- ‘तू दुर्बुद्धि है। तू मेरे राज्य पर्यन्त से पृथ्वी का त्याग कर दे। मैंने तूझे निर्वासित कर दिया। अब तू अपने रहने के लिए श्रीहरि से पृथ्वी प्राप्त कर।’ शर्याति चक्रवर्ती राजा थे। लेकिन राजकुमार आनर्त परम भागवत, महामनस्वी थे। उन्होंने कहा- ‘मैं आपकी आज्ञा स्वीकार करता हूँ। समुद्र पर आपका शासन नहीं है। अतः जहाँ तक समुद्र का जल धरा पर आता है, मैं उतने स्थल में रहकर अपने प्रभु से अपने लिए धरा की प्रार्थना करूँगा।’ आनर्त पश्चिम समुद्र-तट पर आ गये और सागर-तट पर खड़े होकर तपस्या करने लगे। समुद्र ज्वार के समय अपनी लहरियों से उनके चरण धोता और भाटे के समय उनके पैरों के समीप अपने मोटी बिखेरकर पीछे हट जाता। निर्जल व्रत, निष्कम्प आनर्त तप कर रहे थे। वर्षों अविचल खड़े रहे वे। ‘वत्स!’ ध्यानस्थ आनर्त का रोम-रोम आनन्द मग्न हो गया जब यह अमृत ध्वनि श्रवण में पड़ी। नेत्र खोला उन्होंने, सम्मुख गरुड़ासन, वनमाली, चतुर्भुज भगवान नारायण मन्द-मन्द मुस्कराते खड़े कह रहे थे- ‘पुत्र यह दिव्य धरा अब तुम्हारी है।’ ‘प्रभु! ये मेरी माता’ आनर्त ने समुद्र में सम्मुख सौ योजन विस्तीर्ण प्रकट दिव्य भूमि को साष्टांग प्रणिपात किया। ‘यह मेरे नित्यधाम बैकुण्ठ का भाग है। तुम्हारे और तुम्हारे वंशजों के लिए मैंने इसे समुद्र पर स्थापित किया है।’ भगवान नारायण ने कहा- ‘अब यह प्रदेश तुम्हारे नाम से प्रख्यात होगा।’ ‘यहाँ कोई पर्वत नहीं है।’ आनर्त के पुत्र रेवत को यह बात अखरने लगी। पर्वत न हो तो राज्य की शोभा क्या। पाषाण, वनधातुएँ, काष्ठ, औषधियाँ, तो पर्वत से मिलती हैं। परम पराक्रमी रेवत श्रीशैल के पुत्र श्रीशैल समुद्भद एक पर्वत को उखाड़ लाये और उस धरा पर स्थापित किया। उनके द्वारा लाये जाने के कारण उसका नाम 'रैवतक-गिरि' पड़ा। इन्हीं महाराज रेवत के पुत्र ककुद्मी की पुत्री रेवतीजी हैं, जिनका पाणिग्रहण श्रीबलरामजी ने किया। महाराज ककुद्मी जब पुत्री को लेकर ब्रह्मलोक चले गये- उनका नगर और राज्य समय पाकर उजड़ गया। रुक्मी ने आक्रमण करके यहाँ के निवासियों को भगा दिया था। वहाँ वन हो गया था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद्भगवद्गीता 10. 83. 36
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