श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
15. सुभद्रा-हरण
'अब सुभद्रा का विवाह हो जाना चाहिये।' एक दिन उन्होंने श्रीकृष्णचन्द्र से कहा। पुरुषोत्तम तो केवल तुम हो और वह तुम्हारी बहिन है। तब क्या वह सदा कुमारी रहेगी?' श्रीबलराम तनिक आवेश से बोले- 'क्या है पाण्डवों के पास?' श्रीसंकर्षण रोष भरे स्वर में बोले- 'मेरी बहिन इन्द्रप्रस्थ जैसे छोटे-से ग्राम में जायेगी? देखो कृष्ण, इस संबंध में मैं तुम्हारी नहीं सुनूँगा। सुभद्रा कौरव कुल की साम्राज्ञी बनेगी। सुयोधन ही उसके उपयुक्त पात्र है।' श्रीकृष्णचन्द्र ने भाई का प्रतिवाद नहीं किया। वे मौन रह गये। श्रीबलराम ने अपना अभिप्राय छिपाया नहीं। वे सुभद्रा का विवाह दुर्योधन से करने के लिये कृत निश्चय हैं, यह बात सर्वत्र प्रसिद्ध हो गयी। एक ही कठिनाई थी इसमें। सुभद्रा मुख बना लेती थी दुर्योधन के नाम से ही भले बड़े भाई सदा सुयोधन ही कहते हों, क्योंकि वह उनका शिष्य था, किन्तु सुभद्रा मुख बिगाड़कर 'दुर्योधन' कहती और चिढ़ उठती थी। 'वह अभी बालिका है। अज्ञ है। कुछ समय में समझ जायेगी।' श्रीबलराम को अपने से दो वर्ष छोटी यह बहिन बहुत अबोध बच्ची लगती थी। अत्यधिक वात्सल्य था उनका इस बहिन पर, वैसे सुभद्रा शैशव से श्रीकृष्ण-श्रीकृष्ण की रट लगाये रहती थी। मथुरा में दोनों भाइयों के आने के पश्चात से तो वह श्रीकृष्णचन्द्र के साथ लगी रहती। उसके लिये श्रीकृष्णचन्द्र की इच्छा ही सब कुछ। श्रीकृष्ण की बात वेदवाक्य। श्रीकृष्ण का संकेत सुभद्रा का जीवन। वह तो छोटे भाई को छोड़कर दूसरे किसी को न जानती- न जानना चाहती। अर्जुन आये पहिली बार द्वारिका और फिर श्रीकृष्णचन्द्र के साथ दक्षिण कौसल चले गये। वहाँ से जब ये घनश्याम भाई विवाह करके लौटे वे गाण्डीवधन्वा भी आये थे साथ ही। सुभद्रा ने तभी देखा था उन्हें। श्रीकृष्ण के सखा- भाई के समान ही श्यामवर्ण, सुन्दर कमललोचन, विशाल बाहु और भाई कितना मानते, कितना स्नेह करते हैं उन्हें। जो श्रीकृष्ण का इतना प्रिय, वह सुभद्रा को परमप्रिय लगा। अर्जुन ने भी सुभद्रा को देखा। श्रीकृष्ण की भुवन-भूषणा, सौन्दर्यमयी, शीलमयी भगिनी- पार्थ का चित्त भी लग गया उसमें और तभी इसे श्रीकृष्ण ने लक्षित कर लिया था। लक्षित तो कर लिया इसे देवी कालिन्दी ने और माता देवकी ने भी। देवी कालिंदी ने अंत:पुर में कहा था- 'मेरी ही भाँति सुभद्रा जी को भी अपने भाई अत्यन्त प्रिय हैं और जैसे मैंने हठ कर लिया था, भाई के समान वर्ण, उनसे भी सुन्दर, प्रभावशाली से विवाह करूँगी, वैसे ये भी गौर-पुरुष की ओर देखना नहीं चाहतीं। क्या करें, यहाँ जो मेघश्याम हैं- वे तो सगे भाई हैं; किन्तु उनके समान वर्णी उनके सखा आये तो बस उनकी सेवा में जुट गयी हैं। देखें, इनकी साधना कब सफल होती है।' बात सचमुच अद्भुत थी। भगवान संकर्षण का अतिशय वात्सल्य था, रेवतीजी, रुक्मिणी, सत्यभामा जी आदि सभी महारानियाँ मानो पलकों पर सुभद्रा को रखना चाहती थीं, किन्तु सुभद्रा को तो गौरवर्ण से ही मानो रुचि नहीं थी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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