श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
12. भाग्यशालिनी भद्रा
कैकय (काकेशस) प्रदेश के नरेश धृष्टकेतु को वसुदेव जी की बहिन श्रुतिकीर्ति विवाही गयी थीं। उनके पाँच पुत्र और एक कन्या हुई। ज्येष्ठ पुत्र सन्तर्दन और कन्या भद्रा। पाँच भाईयों के पश्चात हुई बहिन। माता-पिता तथा सब भाईयों की अतिशय स्नेहभाजना। 'जन्मौषभि मन्त्रतपः समाधिजाः सिद्धयः।' योगदर्शन, केवल्यपाद।1। महर्षि पतंजलि ने कहा है कि सिद्धियों में सब या कोई भी एक-दो किसी को जन्म से प्राप्त होती है। किसी को औषधि से- विज्ञान से किसी प्रयोग से, किसी को तपस्या से अथवा मन्त्र-जप के द्वारा इष्ट देवता की कृपा से और किसी को समाधि-मन की अत्यन्त एकाग्रता से प्राप्त हो जाया करती है। भद्रा जी को जन्म से कामरूपत्व सिद्धि प्राप्त थी। वे जब जैसा रूप धारण करने का संकल्प करतीं, वैसा ही उनका रूप तथा वस्त्र, आभरणादि भी उसी के अनुरूप हो जाते थे; किन्तु यह सिद्धि उनके लिये केवल शैशव में विनोद का साधन रही। वे भाईयों को, माता-पिता को कोई रूप धारण करके भ्रम में डाल देतीं। 'भद्रा! बेटी भद्रा कहाँ गयी तू?' माता व्याकुल होकर पुकारतीं अथवा भाई ढूँढ़ते फिरते बहिन को न पाकर। उन्हें कैसे पता लगता कि कोई दूसरी कन्या, मृगी, बिल्ली या गिलहरी बनी वहीं उनकी बहिन बैठी है। तनिक विनोद- हँसती भद्रा फिर प्रकट हो जाया करती थी। शैशव गया और कौमार्य आया तो भद्रा अत्यन्त संकोचमयी हो गयीं। उन्होंने फिर सिद्धि का उपयोग ही नहीं किया। उनके किशोरी होने से पूर्व ही पिता ने युद्ध में वीरगति पायी और बड़े भाई सन्तर्दन सिंहासनासीन हुए। 'जन्मसिद्धा कामरूपिणी कैकय नरेश नन्दिनी के साथ विवाह करने का प्रस्ताव कौन करे? सब समझते थे कि वे स्वयं जिसका वरण करें, केवल वही उनका स्वामी हो सकता है। जो इच्छानुसार रूप धारण कर सकती हैं, उनको उनकी इच्छा के विपरीत कोई कैसे ला सकता है। कहीं से कोई भी रूप धारण करके निकल जाने से कोई उन्हें कैसे रोक सकेगा?' 'मेरी पुत्री भगवान वासुदेव की अर्धांगिनी बनेगी।' माता का स्वप्न तो तब से चल रहा है जब प्रसूतिगृह में उनको पता लगा कि उन्होंने कन्या को जन्म दिया है। वे तो इससे भी पूर्व कामना करती रहीं थीं- 'मेरे कोई कन्या होती। भाई वसुदेव के घर साक्षात नारायण ने अवतार ग्रहण किया है। मैं उनको कन्यादान करके उनके चरण-प्रक्षालन कर लेती।' पुत्री का जन्म सुनकर उन्हें लगा था कि उन दयाधाम नारायण ने उनकी प्रार्थना सुन ली है। पिता नहीं रहे, यह अभाव कभी भद्रा को भाइयों ने अखरने नहीं दिया। बड़े भाई सन्तर्दन तो बहिन के लिये पिता से भी अधिक स्नेहशील हो गये थे। 'भगवान वासुदेव' सन्तर्दन और उनके छोटे भाइयों की भी बचपन से अपने मामा के पुत्र बने उन श्रीपुरुषोत्तम में दृढ़ श्रद्धा थी। और जब उन वासुदेव ने कंस को मार दिया, बार-बार राजाओं के अग्रणी जरासन्ध को पराजय देना प्रारम्भ कर दिया, उनके प्रति भक्ति दृढ़ हो गयी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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