श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
7. सत्यभामा-परिणय
'क्या किया जाय? क्या उपाय?' उस अन्धकार पूर्ण भयानक गुफा में प्रवेश का उद्योग पता नहीं भीतर क्या परिणाम उत्पन्न करे। श्रीकृष्ण जब तक उसमें है, उसके सम्बन्ध में कुछ भी करना उनके संकट को बढ़ा दे सकता है। जब कोई भौतिक उपाय न रह जाय, मनुष्य को दैवी-सहायता का सहारा लिये बिना त्राण कैसे मिले। भगवती दुर्गा, महामाया, महाशक्ति-सर्वेश्वरी आद्या ही संकटहारिणी, क्लेशनाशिनी, शीघ्राभीष्टदायिनी हैं। उन भुवनेश्वरी की आराधना में लग गये द्वारिका के लोग। श्रीकृष्णचन्द्र की प्राप्ति उन पराम्बो ललिता के अनुग्रह बिना होती भी तो नहीं। सभी उनकी स्तुति, पूजन, अनुष्ठानों में लगे थे- 'श्रीद्वारिकाधीश सकुशल लौट आवें।' श्रीकृष्ण के चरणाश्रित, उनके स्वजन, स्वयं महालक्ष्मी, रुक्मिणी, वसुदेवजी और देवकी माता अनुष्ठान करें- पाक्षिक अनुष्ठान और देवी दुर्गा प्रसन्न न हों, वे कभी वासुदेव के जनों पर अप्रसन्न भी हुई हैं। वे वात्सल्यमयी, नित्यसुप्रसन्न, सदा भक्ताभीष्टदायिनी; किन्तु वे करें भी क्या। श्रीकृष्णचन्द्र सर्वतन्त्र स्वतन्त्र हैं और वे अपने अनन्य भक्त के युद्धातिथ्य की स्वीकृति में लगे हैं। उनको विवश तो कभी किया नहीं जा सकता। उनसे निवेदन- इस निवेदन का भी अवसर नहीं इस समय। देवी का पाक्षिक अनुष्ठान द्वारिकावासियों का पूर्ण हुआ। अनुष्ठान की पूर्णाहुति-भगवती की आशीर्वाद वाणी गूँजी मन्दिर में- 'अभीष्ट पूर्णमस्तु।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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