श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
87. व्याघ पुरस्कृत
सायंकाल के लगभग प्रभास के उस क्षेत्र में यादवों में संघर्ष प्रारम्भ हुआ था। मध्याह्न में ब्राह्मणों को भोजन कराके लगभग तृतीय प्रहर के प्रारम्भ में उन्होंने भोजन किया था और चतुर्थ प्रहर में उनमें विवाद प्रारम्भ हुआ था। पूरी रात उनमें वह दारुण संग्राम चला था। अरुणोदय काल में भगवान संकर्षण स्वधाम पधारे थे और श्रीकृष्णचन्द्र अश्वत्थ मूल में शान्त विराजमान हो गये थे। वह जरा नामक व्याघ जिसने मुशल के बचे लौहखण्ड को अपने बाण की नोंक बना लिया था, बड़े अँधेरे ही उठा और आखेट करने निकल पड़ा था। उसे पता था कि रात्रि भर विश्राम करके तृणचरी वनपशु सूर्योदय के किंचित पूर्व ही चरने निकल पड़ते हैं क्योंकि हिंसक पशु रात्रि के पिछले प्रहर में अपनी गुफाओं में सोने के लिए लौट जाते हैं। व्याघ की झोंपड़ी प्रभास क्षेत्र में पर्याप्त दूर होगी। रात्रि में इतना बड़ा संग्राम वहाँ हुआ इसका उसे कुछ पता नहीं था। वह बहुत अँधेरे आखेट करने निकला था और दूर से वन पशुओं की खोज में चलता आया था। इतनी भीड़, ऐसा युद्ध जहाँ रात्रिभर चला हो, वहाँ आस-पास वन-पशु कैसे रह सकते थे। जरा युद्धस्थल के बाहर की दिशा से आ रहा था। आस-पास सघन वन था समुद्र के समीप और अभी भली प्रकार प्रकाश हुआ नहीं था। उसने दूर से देखा- अश्वत्थ के समीप कुछ पीला पदार्थ झाड़ियों में-से चमक रहा है और उसका एक भाग लाल है। वह श्रीकृष्णचन्द्र का दक्षिण उरु पर रखा वामपाद तल, उसकी अरुणिमा जरा को मृग का मुख लगा उस अंधकार में। उसे लगा कि कोई मृग पीपल के नीचे बैठा है और अभी चरने उठा नहीं है। उस व्याघ ने अपना धनुष तो चढ़ा रखा ही था। धनुष पर वही बाण चढ़ाया उसने, वही प्रशप्त मुशल खण्डयुक्त बाण और झाड़ियों में छिपकर भली प्रकार लक्ष्य लेकर बाण छोड़ दिया। वही बाण श्रीकृष्णचन्द्र के वाम पादतल में आकर लगा, उसका पूरी अग्रभाग पदातल में प्रविष्ट हो गया। बाण मारकर व्याघ दौड़ा हुआ आया क्योंकि उसे भय था कि आहत मृग भाग न जाय किन्तु जैसे ही कुछ समीप आया उसका शरीर काँपने लगा। यह उसने किसको बाण मार दिया? मेघश्याम, चतुर्भुज, श्रीवत्सवक्षा अपनी कान्ति से दिशाओं को आलोकित करते तप्त स्वर्ण सुन्दर पीताम्बर धारण किये, पुण्डरीकाक्ष, वनमाली, मकराकृत कुण्डल, रत्नागद, रत्न किरीट धारण किये, कटिसूत्र, यज्ञोपवीत पहिने, मणिमाला, मुद्रिका, कंकण, नूपुर, वनमालादि विभूषित श्रीद्वारिकाधीश बैठे थे और उनका श्रीमुख घुंघराली काली अलकों से घिरा मन्दस्मित शोभित, उनके कुटिल भृकुटि, पद्यपलाशाक्ष श्रीमुख पर कहीं किंचित रोष या वेदना का चिह्न नहीं। विशाल भाल पर कोई रेखा नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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