श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
84. उद्धव को उपदेश
विस्तार से सांख्य का तत्त्वज्ञान एवं वैराग्य के वर्णन में पुरूरवा का उदाहरण दिया। अन्त में उद्धव के पूछने पर संक्षिप्त रूप से वैष्णवागम में क्रिया-योग अर्थात प्रतिमा पूजन विधि का निर्देश किया। उपसंहार करते हुए श्रीकृष्णचन्द्र ने पुनः तत्त्वज्ञान का उपदेश किया। श्रीमद्भागवत का एकादश स्कन्ध अध्याय 6 से उन्तीस तक श्रीकृष्ण के उद्धव को उपदेश का ही प्रसंग है और गीता के समान ही यह अत्यन्त गम्भीर तथा परमार्थ के जिज्ञासु के मनन के योग्य है। यहाँ सारांश देना सम्भव नहीं क्योंकि उसको संक्षिप्त नहीं किया जा सकता। उसको तो स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त विस्तृत व्याख्या की आवश्यकता होती है क्योंकि उद्धव जैसे अधिकारी के लिए संक्षिप्त रूप-सूत्ररूप में ही वह उपदेश हैं। उपदेश के प्रारम्भ में ही उद्धव को श्रीकृष्णचन्द्र ने पर्यटन अथवा बद्रीनाथ जाने का आदेश किया था। उद्धव की व्याकुलता देखकर उपदेश के अन्त में बद्रीनाथ जाने का निश्चित आदेश दे दिया। उद्धव को उपदेश मिला। उत्कृष्टतम अधिकारी श्रवणमात्र से कृत-कृत्य हो जाता है। उसे मनन निदिध्यासन की अपेक्षा नहीं रहती। स्वयं श्रीकृष्ण ने उपदेश किया, उद्धव को तत्त्वज्ञान होने में सन्देह क्या, किन्तु श्रीकृष्णचन्द्र के चरणों का सान्निध्य तो आत्माराम आप्तकाम महामुनीन्द्रों को भी नित्य अभीष्ट, परमकांक्षणीय है। उन श्रीचरणों से वियुक्त होने की कल्पना ही उद्धव को उन्मथित कर देती थी। व्याकुल, विह्वल उद्धव बार-बार अपने सखा, स्वामी आराध्य के चरणों में मस्तक रखते थे और विदा होते थे। वे कुछ पद जाते थे और फिर लौट आकर प्राणिपात करते थे। उनका यह क्रम श्रीकृष्णचन्द्र अब तो उन्हें समीप रहने को कह दें किन्तु जो अनन्त करुणावरुणालय है, वही सर्वथा असंग, नित्य निरीह भी है। वह आज उदासीन असंग हो गया था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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