श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
81. देवर्षि का वसुदेव जी को उपदेश
देवर्षि नारद एक बार श्रीवसुदेव जी के भवन में पहुँचे तो उनको आसन देकर वसुदेव जी ने भली प्रकार उनकी पूजा की। पूजा के अनन्तर वसुदेव जी ने वद्धांजलि पूछा- 'आप हम जैसे गृहासक्त चित्त लोगों पर कृपा करके उनके उद्धार के लिए ही गृहस्थों के घर पधारते हैं। आप परम भागवताचार्य हैं, अतः मुझे उस भागवत धर्म का उपदेश करें जिसे श्रद्धापूर्वक श्रवण करने मात्र से मनुष्य समस्त भयों से परित्राण पा जाता है।' देवर्षि नारद प्रसन्न हो गये। उनका सबसे प्रिय कार्य है भगवद गुणानुवाद। भक्ति भागवत धर्म का प्रचार करने का उन्होंने व्रत ले रखा है। उन्होंने वसुदेव जी के प्रश्न की प्रशंसा की- 'आपने उत्तम प्रश्न किया। भागवत धर्म सुनने, पढ़ने, ध्यान करने, आदर करने और अनुमोदन करने से भी तत्काल अधमतम पापियों को भी पवित्र कर देता है।' 'एक बार भगवान ऋषभदेव के नव-योगीश्वर पुत्र भ्रमण करते हुए मिथिला के प्रथम नरेश महाराज निमि के सत्र में अकस्मात पहुँच गये।' देवर्षि ने एक आख्यायिका सुनायी। इसका तात्पर्य यह था कि सत्य शाश्वत होता है वह परम्परा से प्राप्त हो श्रेयस्कर होता है। देवर्षि जिस भागवत धर्म का वर्णन करने वाले हैं, वह सनातन परम्परा प्राप्त हैं। नवीन उद्भावना, मौलिकता केवल सत्य के प्रतिपादन की, समझाने की शैली में सम्भव है। तथ्य, सत्य नवीन नहीं हो सकता। वह तो नित्य है, सनातन है। यदि उसे मौलिक, नूतन कहा जाता है तो वह सत्य नहीं, कोई काल्पनिक तथ्य है और उसमें तथ्यत्व ही नहीं है। महाराज निमि ने उन योग सिद्ध अमरकाय, पूर्ण काम, निरपेक्ष, परम भागवत योगीश्वरों को अभ्युत्थान, आसन, अर्भ्यादि देकर सत्कृत किया। उनकी अर्चा करके निमि बोले- 'आप सब तो साक्षात भगवान नारायण के पार्षद ही हैं और लोकों को पवित्र करने के लिए ही विचरण करते हैं। आप जैसे महापुरुषों का क्षणार्ध का संग भी मनुष्य के लिए परम कल्याणकारी है। अतः मैं आपके द्वारा उस भागवत धर्म का श्रवण करना चाहता हूँ जिसके अनुष्ठान से प्रसन्न श्रीहरि अपने शरणागत को अपने आपको भी प्रदान कर देते हैं।' जिज्ञासु सच्चा हो, अधिकारी हो और श्रद्धापूर्वक, सत्कारपूर्वक प्रश्न करे तो तत्त्वज्ञ पुरुष को उसका समाधान करने में प्रसन्नता ही होती है। उत्तर वहाँ नहीं दिया जाता अथवा टाल दिया जाता है जहाँ अनाधिकारी प्रश्नकर्ता हो। उसमें श्रद्धा न हो, अनवसर पूछता हो अथवा परीक्षा के लिए, कुतर्क से, अन्यायपूर्वक प्रश्न करता हो। महाराज निमि ने सत्कार करके श्रद्धापूर्वक पूछा था। वे ज्ञान-सत्र में ही बैठे थे। उचित अधिकारी थे। अतः कवि ने उनको बतलाया- 'इस संसार में श्रीहरि के चरणकमलों की उपासना ही संसार के असत विषयों के चिन्तन में लगे, उद्विग्न बुद्धि मनुष्य को सदा अभय एवं शान्ति देने वाली है।' 'भागवत धर्म का सार इतना ही है कि शरीर मन, वाणी तथा अन्य इन्द्रियों से जो कुछ भी किया जाय उस परमपुरुष श्रीनारायण को समर्पित कर दें। कर्म-फल अपनी ओर न लेकर परमात्मा को अर्पित करें।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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