श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
78. अतिथि दुर्वासा
महर्षि दुर्वासा द्वारिका आये और किसी के यहाँ भी न जाकर मार्गों पर पुकारते हुए घूमने लगे- 'मैं प्रसिद्ध क्रोधी दुर्वासा हूँ। अपनी इच्छा के प्रतिकूल किसी के किंचित भी व्यवहार पर मुझे क्रोध आ जाता है और मैं शाप दे देता हूँ। मुझे चातुर्मास्य करना है। कोई मुझे अपने यहाँ आमन्त्रित करेगा?' एक-दो दिन की बात होती तो कोई साहस भी कर लेता; किन्तु पूरे चार महीने के लिए कौन इतनी आशङ्का उठावे? दुर्वासा जी का स्वभाव भी विचित्र है। वे कब क्या चाहेंगे, कुछ ठिकाना नहीं है। वे चाहे जो करें, चुपचाप सहो और जो भी कहें, चाहें उसे बिना किसी प्रकार की आपत्ति के तत्काल पूरा करो। विरोध अथवा विलम्ब दुर्वासा जी को सहन नहीं है। ऐसे व्यक्ति को अपने यहाँ आमंत्रित करना तो विपत्ति ही बुलाना है। दुर्वासा जी द्वारिका आ गये हैं तो उन्हें चातुर्मास्य की सुविधा तो देनी ही पड़ेगी। यह उनका अनुग्रह है कि पूछते हैं पुकार कर। वे किसी के घर पहुँच जायँ तो अस्वीकार करने का साहस कोई करेगा? द्वारिका में उन्हें निराश होना पड़े तो पूरे नगर तथा नगरवासियों को वे कुपित होकर पता नहीं क्या शाप दें; किन्तु उन्हें नियन्त्रित कौन करे? जो सबके पालक हैं, जिनकी सृष्टि में सब प्रकार के प्राणी सदा पलते हैं, जो अत्यन्त विपरीत स्वभाव के लोगों के भी परमाश्रय हैं, दुर्वासा उनके लिए कैसे दुस्सह हो सकते हैं। अतः श्रीद्वारिकाधीश ने आगे आकर, प्रणाम करके अंजलि बाँधकर प्रार्थना की- 'भगवन! आप इस सेवक के सदन को कृतार्थ करें।' दुर्वासा जी ने श्रीकृष्णचन्द्र की ओर देखा और उनके साथ चल पड़े। इस बार वे सर्वथा अकेले चातुर्मास करने आये थे। अन्यथा उनके साथ तो सहस्रों शिष्यों का समुदाय प्रायः रहा करता था। श्रीकृष्णचन्द्र ने महारानी रुक्मिणी जी के सदन में उन्हें ठहराया और महारानी को विशेष रूप से सावधान रहने को सतर्क कर दिया। महर्षि दुर्वासा का कोई नियम नहीं था। वे कभी सायं सन्ध्या करने जाते तो मध्यरात्रि में लौटते अथवा दो-चार दिन सागर-तट पर ही ध्यानमग्न रहते। वे कब बाहर जायेंगे, कब लौटेंगे और लौटकर क्या माँग बैठेंगे, क्या भोजन करना चाहेंगे- कुछ ठिकाना नहीं। कभी वे स्नान अथवा चरण क्षालन के लिए उष्णोदक माँगेंगे और कभी शीतल जल। कभी अर्धरात्रि में अथवा दिन के तीसरे प्रहर पहुँचकर भोजन चाहेंगे और भोजन में भी कोई दुष्प्राप्य फल, शाकादि माँग बैठेंगे। उन्हें विलम्ब क्षणों का भी सह्य नहीं। उनका आदेश होते ही कहना चाहिए- 'आप आसन ग्रहण करें। आपका अभीष्ट नैवेद्य प्रस्तुत है। ऐसी सेवा भी देवी रुक्मिणी के लिए कठिन नहीं थी। वे साक्षात श्री, सृष्टि का समस्त वैभव उनके संकल्प का सृजन है। संपूर्ण सिद्धियाँ उनकी कृपा कोर की उत्सुक प्रतीक्षा करती हैं। दुर्वासा किसी भी क्षण ऐसी माँग कर ही नहीं सकते थे जो उन महिमायी का संकल्प उसी क्षण उपस्थित न कर सकता हो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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