श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
67. बल्वल वध
'मुझे बहुत प्रसन्नता होगी यदि मैं आप सबकी कोई सेवा कर सकूँ।' श्रीबलराम जी ने ऋषिगणों से प्रार्थना की। ऋषिगणों ने कहा- 'आपने सत्पुरुषों की रक्षा, धर्म की अभिवृद्धि तथा भूभारहरण के लिए अवतार लिया है। हम सब यहाँ दीर्घकालीन सत्र का संकल्प न करके बैठे होते तो स्वयं आपकी सेवा में प्रार्थना करने द्वारिका पहुँचते। अब आप यहाँ कृपा करके आ गये हैं तो हमारा संकट अवश्य दूर कर दें।' वातापि और इल्वल दो प्रबल दानव थे। दोनों सगे भाई थे। इल्वल ऋषियों को निमन्त्रित करता था और मायावी वातापि बकरा बन जाता था। उसका मायामय माँस- ऋषि पहिचान भी नहीं पाते थे उन्हें क्या खिलाया जा रहा है। भोजन के उपरान्त इल्वल अपने भाई को पुकारता था और वातापि ऋषि का उदर चीर कर निकल आता था। इस प्रकार ऋषि-मुनियों की हत्या दोनों भाइयों का विनोद बन गयी थी। इल्वल ने इसी क्रीड़ा के क्रम में बडवाग्नि ने साक्षात अवतार महर्षि अगस्त्य को निमन्त्रित किया। अगस्त्य इन दोनों दानवों की दुष्टता का पता था। वे जान-बूझकर भोजन करने गये। भोजन के उपरान्त जब इल्वल अपने भाई को पुकारने लगा तो अगस्त्य ने डकार ली और पेट पर हाथ फेरते हुए हँसकर बोले- 'वातापि तो अगस्त्य के इस उदर में पच गया।' जो समुद्र शोषण करने में समर्थ है, उनको माया से धोखा देने का दण्ड पाकर इल्वल डर गया। भाई अब मिलने वाला नहीं था। उसे भी अगस्त्य शाप देकर भस्म कर दे सकते थे। अत; उसने क्षमा माँगी। तबसे वह बहुत कुछ शान्त हो गया था। किन्तु इल्वल का पुत्र बल्वल अपने चाचा के मारे जाने से ऋषियों का शत्रु ही हो गया था। वह ऋषि-महर्षियों को मारने का साहस तो नहीं करता था, किन्तु अमावस्या तथा पूर्णिमा को जबकि ऋषिगण विशेष यज्ञ करते थे, नियमपूर्वक वह नैमिषारण्य पहुँच जाता था। नैमिषारण्यमें अट्ठासी सहस्र ऋषि एकत्र थे, अत; इस स्थान को ही बल्वल ने अपने उत्पाद के लिए चुना था। बल्वल पर्व के दिन आकाश से आता था और आँधी के साथ पीव, रक्त विष्ठा, मूत्र, मदिरा तथा माँस की वर्षा कर जाता था ऋषियों के पूरे निवास स्थान में। यज्ञ भूमि झोंपड़ियाँ आस पास के वृ़क्ष- सब दूषित हो जाते थे। ऋषिगण अपनी ओर से यज्ञादि कर्म प्रारंभ ही न करें- यह प्रमाद होता। अतः अपनी ओर से प्रमाद करना नहीं था। लेकिन किसी पर्व पर पार्वण श्राद्ध तथा यज्ञ हो नहीं पाता था। यह तो महेन्द्र का अनुग्रह था कि पर्व की संध्या को वर्षा करके वे नैमिष क्षेत्र को क्षालित कर देते थे, अन्यथा सृष्टिकर्ता के द्वारा निर्दिष्ट सत्र के उपयुक्त यह पावन भूमि त्यागनी ही पड़ती क्योंकि वृक्षों को, क्षुपों को, झोंपड़ियों को धोकर तो शुद्ध नहीं किया जा सकता था। बल्वल की वर्षा से जो दुर्गन्ध फैलती थी, उसमें श्वास लेना तो कठिन हो जाता था। ऋषिगण अपने बल्कल, पात्रादि ही तो उटज में रख सकते थे। संपूर्ण भूमि अपवित्र हो जाती थी। दीर्घकाल में चलने वाली यह विपत्ति सबने सुनायी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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