श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
63. अश्वत्थामा की याचना
'श्रीकृष्ण का क्या होगा?' हस्तिनापुर में दुर्योधन और उसके समर्थकों की चिंता का यही प्रधान विषय था। पांडवों से युद्ध अनिवार्य था और श्रीकृष्ण पांडव पक्ष में हैं, यह छिपी बात नहीं थी। बारह वर्ष का वनवास और एक वर्ष का गुप्तवास भले उन लोगों ने पूर्ण कर लिया हो, उनको राज्य तो देना नहीं था दुर्योधन को। अश्वत्थामा अपने अहंकारी स्वभाव से विवश था। वह मानता था कि उसके पिता श्रीद्रोणाचार्य के समान कोई योद्धा सृष्टि में नहीं है और पिता के पश्चात दूसरा कोई शूर है तो वह स्वयं है। पांडवों के साथ युद्ध में कौरव पक्ष में प्रथम महासेनापति उसके पिता बनाये जायेंगे इसमें कोई संदेह नहीं था। यदि कथंचित वृद्ध होने के कारण पिता विजयश्री प्राप्त न कर सके तो उनके पश्चात महासेनापति का पद वह अपना स्वत्व मानता था। 'भीष्म वृद्ध हो चुके। अब वे केवल आशीर्वाद दे सकते हैं और उनकी सहानुभूति पांडवों के साथ है।' अश्वत्थामा के मत में 'कर्ण सूतपुत्र कायर है। वह केवल अपने पौरुष की डींग हाँकता है।' 'श्रीकृष्ण.......' अश्वत्थामा यहाँ आकर रुक जाता था। अर्जुन उसे अपने समबल लगते थे किन्तु श्रीकृष्ण का चक्र सचमुच अमोध है। उस चक्र का कोई भी प्रतिकार किसी के पास नहीं है। 'यदि श्रीकृष्ण के पास चक्र न हो?' अश्वत्थामा ने अपने मन में कल्पना की- 'यदि वह चक्र स्वयं उसके कर में हो?' इस कल्पना से अद्भुत स्वप्न दिखलाया। चक्र स्वयं उसके कर में हो और श्रीकृष्ण को वह युद्ध में पराजित कर दें- अमोध चक्र उसके कर में होगा तो श्रीकृष्ण की पराजय सुनिश्चित है। तब महाराज सुयोधन स्वयं प्रार्थना करेंगे कि उनकी सेना का यह महासेनापतित्व स्वीकार करे। वह अपना विजयाभिषेक करायेगा। उसके पिता और भीष्म उसके पार्श्वरक्षक होंगे। सूतपुत्र कर्ण को कृपा करके वह अपना पृष्ठ-रक्षक बना देगा। कौरव-सेना उसका जयघोष करेंगी और.....। अश्वत्थामा अपने इस स्वप्न से, इस कल्पना से स्वयं अभिभूत हो गया कि किसी से कुछ कहे वह अकेला रथ में बैठा और द्वारिका चल पड़ा। वह ब्राह्मण है, अपने इस ब्राह्मणत्व का लाभ उसे उठाना ही चाहिए। द्वारिका में अश्वत्थामा कुछ दिन रहा। उसका वहाँ उचित सत्कार हुआ। एक दिन वह श्रीकृष्ण के समीप पहुँचा। अर्घ्य दिया श्रीद्वारिकेश ने प्रणिपात करके और विधिवत पूजन किया। अन्त में जब अश्वत्थामा भोजन करके ताम्बूल ग्रहण के पश्चात स्वस्थ बैठ गया तब श्रीकृष्णचन्द्र ने हाथ जोड़कर कहा- 'आपके पधारने से मेरा गृह पवित्र हुआ। आपने मेरे पास आने का कष्ट कैसे उठाया? मैं आपकी क्या सेवा करूँ?' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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