श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
62. कुशेश्वर
'आप सर्व समर्थ हैं, आप पूर्णपुरुष पुरुषोत्तम है। अपनी योगमाया से ही आपने यह नरवपु धारण किया और इसमें लीलाएँ कर रहे हैं जिनका श्रवण, स्मरण करके मनुष्य निष्कल्मष होकर जन्म-मरण के चक्र से छूट सकता है।' सात्यकि ने एकान्त में मिलकर श्रीकृष्णचन्द्र की स्तुति की- 'आप कैलास गये पुत्र-प्राप्ति के लिए तप करने और दूसरी बार आपने गोकर्ण क्षेत्र को अपनी साधना भूमि बनाकर धन्य किया, किन्तु प्रभु! सामान्य प्राणी कैलास की कठिन यात्रा कर भी लेते तो वहाँ केवल उस शिखर के दर्शन करके उसे लौटना पड़ेगा। वहाँ कुछ काल वह रह नहीं सकता। उसे तपस्थली आप ही बना सकते थे। गोकर्ण क्षेत्र व्यवहार व्यस्त हम जैसों के लिए बहुत दूर है। इस कुशस्थली में आपके आश्रितों के लिए भगवान आशुतोष की आराधना सुलभ होनी चाहिए। श्रीकृष्णचन्द्र स्वयं नित्य शिवार्चन करते हैं। सात्यकि ने जब से सुना है कि उनके शस्त्र शिक्षा-गुरु धनंजय ने तपस्या करके भगवान् पशुपति का प्रसाद प्राप्त किया, तब से उनके मन में भी उन पिनाकपाणि की अर्चा की उत्कण्ठा बढ़ गयी है किन्तु वे यादववाहिनी के प्रधान योद्धा हैं। उन्हें तप करने द्वारिका से बाहर कुछ महीनों के लिए भी जाने का अवकाश नहीं है। सबसे बड़ी बात यह है कि सात्यकि स्वयं अपने इन द्वारिकाधीश से दूर नहीं होना चाहते। इनके समीप रहते तो शिवार्चन हो भी जायगा, ये दूर हों तो चित्त इनके चारु चरणों के अतिरिक्त और कुछ चिन्तन कर नहीं सकता। 'दूसरी बार की तपस्या के अन्त में भगवान विश्वनाथ ने मुझे आश्वासन दिया है कि वे मेरे स्मरण करते ही दर्शन देंगे।' श्रीकृष्णचन्द्र ने उसी समय अर्चा सामग्री प्रस्तुत करने का आदेश दे दिया। पद्मदलायत लोचन, पद्मपाणि पुरुषोत्तम ने अंजलि में अर्कपुष्प लिये और उपस्थान करने जैसे ही उठे, भगवान पुरारि के महावृष के कण्ठ का घण्टारव सुनायी पड़ा। दिशाएँ दिव्य प्रकाश से उद्भासित हो उठीं। हिमधवल, पर्वत्तोत्तुंग वृषभ पर विराजमान गंगाधर, चन्द्रमौलि, त्रिनयन प्रभु प्रकट हो गये और प्राणिपात करते श्रीकृष्ण को वृषभ से कूदकर उन्होंने भुजाओं में भरकर हृदय से लगा दिया। 'आज कैसे स्मरण किया आपने?' रत्नासनासीन सुपूजित भगवान भवानीनाथ ने पूछा। 'सात्यकि कहते हैं आप असुर-पुरों में नित्य निवास करते हैं, हम यादवों का कोई अपराध है कि हमें आपकी अर्चा सुलभ नहीं हैं?' श्रीकृष्णचन्द्र ने किंचित स्मितपूर्वक अंजलि बाँधे हुए कहा। 'अपराध तो है। हँसे भूतनाथ प्रभु- 'तुम स्वयं यहाँ साक्षात विराजमान हो और इन्हें और किसी की आराधना की इच्छा नहीं होती है, यह क्या कम अपराध है?' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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