श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
59. बहिन सुभद्रा
पांडव जुए में हार गये। शकुनि की सहायता से दुर्योधन ने द्यूत को बहाना बनाकर धर्मराज को उनके राज्य-कोषादि सबसे वंचित कर दिया। वे बारह वर्ष का वनवास और एक वर्ष का गुप्तवास स्वीकार करके वन में चले गये। द्वारिका में सभी चाहते थे कि देवी कुन्ती द्वारिका आ जायें किन्तु उन्होंने इसे स्वीकार नहीं किया। द्रौपदी पतियों के साथ वन में चली गयीं। श्रीकृष्णचन्द्र ने बहिन सुभद्रा को द्वारिका बुला लिया। सुभद्रा अपने तीन वर्ष के शिशु अभिमन्यु को लेकर द्वारिका आयीं। उन्होंने अलंकार त्याग दिये थे। तैल, अभ्यंग, अंगराग, पुष्पमाल्य- कुछ भी वे बहुत आग्रह करने पर भी स्वीकार नहीं करती थीं। केवल सौभाग्य सूचक आभरण- कङ्कण, कण्ठसूत्रादि तथा सामान्य वस्त्र। श्रीबलराम-श्रीकृष्ण ने, इनकी सभी पत्नियों ने, माता रोहिणी तथा देवकी तक ने चाहा कि सुभद्रा प्रोषित-पतिका के कठिन व्रत न करके सबके समान रहें किन्तु जब वे धर्म पर चल रही हैं तो आग्रह नहीं किया जा सकता था उनके साथ। आहार में भी बहुत संयम आ गया था। केवल हविष्यान्न और वह भी एक समय। श्रीकृष्ण के अतिशय आग्रह पर ही उन्होंने रात्रि में गो-दुग्ध लेना स्वीकार किया था। हास-परिहास, संगीत तथा उत्सवों में सम्मिलित होना उन्होंने सर्वथा त्याग दिया था। माता देवकी कहती थीं- 'यह जन्म से ही तपस्विनी हैं। पहिले भी अपने पितामाह की सेवा-पूजा में ही उनके साथ लगी रहती थी।' प्रदोष, एकादशी, चतुर्थी, अष्टमी जाने कितने अनिवार्य व्रत मान लिये थे सुभद्रा ने। यह तो महर्षि गर्गाचार्य का अनुग्रह था कि व्रतों के दिन एक समय वे फलाहार ले लेती थीं। महर्षि ने कह दिया था- 'सौभाग्यवती स्त्री को पूरे रात-दिन निराहार रहने का विधान नहीं है। उसके लिए ऐसा व्रत निषिद्ध है।' सबसे बड़ी बात, सुभद्रा को अपनी इस अवस्था के लिए कोई दोषी नहीं दीखता था। उन्हें धर्मराज युधिष्ठिर के द्यूत के व्यसन की चर्चा भी सह्य नहीं थी। किसी भाभी ने कुछ कहना भी चाहा तो उन्होंने रोक दिया- 'वे बड़े हैं। भैया तक उन्हें प्रणाम करते हैं। उनकी चर्चा, उनमें त्रुटि देखना पाप है हम सबके लिए।' धृतराष्ट्र की बात तो दूर, सुभद्रा को दुर्योधन, दुःशासन, शकुनि तक का कोई दोष कभी नहीं लगा। बहुत भाभियाँ रुष्ट हुई तो एक दिन सुभद्रा ने कह दिया- 'वे सब विचारे तो यन्त्र हैं। सम्पूर्ण सृष्टि का संचालन ये छोटे भैया करते हैं और इनकी प्रत्येक चेष्टा प्राणी के मंगल के लिए ही होती है। यह सब जो कुछ हुआ इसमें भी हम सबका मंगल ही हैं।' 'इसमें क्या मंगल धरा है?' सत्यभामा जी रुष्ट हुई। सुभद्रा हँस गयी- भाभी! यह सब न होता तो अभिमन्यु को बड़े भैया का इतना स्नेह मिलता? द्रोणाचार्य उसे इतने स्नेह से शस्त्र-शिक्षा देते? वह तो कहता था कि प्रद्युम्न भैया उसे शीघ्र दिव्यास्त्र प्रदान करने वाले हैं।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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