श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
54. दन्तवक्र-विदूरथ-मरण
युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के पूर्व ही मगधराज जरासन्ध को श्रीकृष्णचन्द्र ने भीमसेन के द्वारा मरवा दिया। राजसूय यज्ञ के समय शिशुपाल को उन्होंने मार दिया। उस समय उस राजसभा में शिशुपाल के जो मित्र, समर्थक राजा थे, भय के कारण प्राण लेकर भाग खड़े हुए थे। वहाँ पांडव, भीष्म, प्रभृति सब समर्थक थे श्रीकृष्ण के, अतः किसी का साहस दो शब्द बोलने का भी नहीं हुआ था। दन्तवक्र भाग तो गया इन्द्रप्रस्थ से, किन्तु निश्चय हो गया- 'श्रीकृष्ण अवश्य मुझे भी मार देंगे। वे मेरे मित्रों को चुन-चुनकर मार रहे हैं।' बैकुण्ठ में भगवान नारायण के पार्षद जय-विजय, सनत्कुमार के शाप से इन्हें असुर योनि प्राप्त हुई। कृपालु महर्षि ने तीन जन्म में पुनः बैकुण्ठ लौट आने का विधान कर दिया था। पहिले जन्म में दोनों दिति-पुत्र हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु। हिरण्याक्ष को भगवान ने वाराह रूप से और हिरण्यकशिपु को नृसिंह रूप धारण करके मारा। दूसरा जन्म रावण-कुम्भकर्ण के रूप में दोनों का हुआ था। त्रेता में श्रीराघवेन्द्र के बाणों ने दोनों को रणशैय्या दी। अब द्वापर में दोनों शिशुपाल-दन्तवक्र होकर उत्पन्न हुए थे। शिशुपाल को श्रीकृष्ण ने सायुज्य दे दिया। अब दन्तवक्र की नियति उसे उत्तेजित कर रही थी। इन्द्रप्रस्थ से दन्तवक्र बहुत उत्तेजित हो गया था। मार्ग में वह एक ही धुन में था- 'श्रीकृष्ण को मारना ही पड़ेगा, अन्यथा वे मुझे नहीं छोड़ेंगे।' शिशुपाल से दन्तवक्र की प्रगाढ़ मित्रता थी। शिशुपाल की मृत्यु ने उसे उन्मत्त-प्राय कर दिया था। लेकिन श्रीकृष्णचन्द्र से युद्ध- जरासन्ध के साथ सभी युद्धों में दन्तवक्र रहा था और प्रत्यके बार उसे पराजित होकर भागना ही पड़ा था। इस पराजय का स्मरण आते ही उसे सूझ गया कि जरासन्ध को द्वंद्वयुद्ध में ही श्रीकृष्ण ने मरवाया है। द्वन्द्वयुद्ध, यही उसे उपयुक्त उपाय लगा। श्रीकृष्ण के चक्र का किसी के पास कोई भी प्रतिकार नहीं है। किन्तु शरीर से तो वे दन्तवक्र को बहुत दुर्बल लगते हैं। दन्तवक्र द्वापर में लोगों में भी इतना महाकाय है कि उसके शत्रु उसे दैत्य कहते हैं और मित्र सम्मानपूर्वक 'सतयुग के पुरुष' संबोधित करते हैं। गदायुद्ध का वह अभ्यासी है और यदि पैदल केवल गदा लिये चला जाय श्रीकृष्ण के सम्मुख तो श्रीकृष्ण को भी गदा लेकर पैदल ही उससे युद्ध करना पड़ेगा। इस प्रकार दन्तवक्र को अपनी विजय का विश्वास है। वह समझता है कि उसकी गदा का एक प्रहार पर्याप्त है श्रीकृष्ण के लिए। 'शाल्व अपने विमान से द्वारिका पर आक्रमण करने चला गया है।'- दन्तवक्र ने यह करुष पहुँचते ही सुन लिया। उसने अपने भाई विदूरथ से कहा- 'शाल्व का क्या होगा, नहीं जानता किन्तु मैं इस बार श्रीकृष्ण को मार न सका तो लौटूँगा नहीं।' दन्तवक्र तत्काल द्वारिका के लिए चल पड़ा। अपने छोटे भाई को उसने कुछ कहने का समय ही नहीं दिया। विदूरथ भी जितनी शीघ्रता कर सकता था, करके बड़े भाई के लगभग पीछे ही रथ में बैठकर भागा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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