श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
31. पारिजात-हरण
'सत्यभामा बहू जब तक मानव लोक में रहोगी, सदा युवा बनी रहोगी।' देवमाता अदिति ने अपने चरणों में प्रणत श्रीकृष्ण को उठाकर अंक से लगाया और सत्यभामा को हृदय से लगाते हुए आशीर्वाद दिया। 'मातः! आपके ये कुण्डल वह दुर्विनीत असुर ले गया था।' श्रीद्वारिकाधीश ऐसे स्वर में बोल रहे थे, जैसे उनसे ही अपराध हो गया हो और क्षमा माँग रहे हों। 'ये कुण्डल! देवी अदिति ने हाथ बढ़ाये श्रीकृष्ण के करों से कुण्डल ले लेने को। वे उन्हें सम्भवतः सत्यभामा को दे देना चाहती थीं; किन्तु श्रीकृष्ण अबोध शिशु के समान मचलते बोले- 'इनकी शोभा-सार्थकता माता की कर्ण-पल्लियों में है और मैं अपने हाथ से इन्हें पहिनाऊँगा।' देवमाता हँसकर शान्त हो गयीं। पौत्र ने[1] कानों से कुण्डल छीन लिये थे और पुत्र उपेन्द्र ने अपने हाथों वे कुण्डल कानों में पहिनाये। 'देवसभा में समस्त सुर तुम्हारा स्वागत करने को उत्सुक है।' 'मैं भी सत्यभामा का अपने अन्तःपुर में सत्कार करना चाहती हूँ।' शची ने कहा। अदिति देवी को तथा महर्षि कश्यप को प्रणाम करके, उनकी अनुमति लेकर श्रीकृष्णचन्द्र शक्र के साथ देवसभा में पहुँचे। वहाँ उनके स्वागत में गन्धर्वगण वाद्य लिये प्रस्तुत थे। किन्नर राग-रागनियों का स्मरण कर रहे थे और अप्सराएँ तो उतावली थीं श्रीकृष्ण के सम्मुख अपने नृत्य की कला का प्रदर्शन करने के लिए। अधिकांश नारियों की दुर्बलता है कि वे समान वर्ग की नारी से मिलने पर वैभव, अपने श्रेष्ठत्व का वर्णन-प्रदर्शन करने से अपने को रोक नहीं पातीं। शची सत्यभामा को बड़े उत्साह से अपने अन्तःपुर में ले गयी थीं स्वर्ग का श्रेष्ठतम वैभव दिखलाने। स्वर्ग के सर्वोत्तम महारत्नों से सजा अमरावती की अधीश्वरी का अन्तःपुर। अपनी समझ से शची बहुत बड़ा अनुग्रह कर रही थीं एक मानवी पर कि उसे इस सुरांगनाओं के लिए भी दुर्लभ-दर्शन अन्तःपुर का दर्शन करा रही थीं। शची को आशा थी- सत्यभामा चकित रह जायेंगी। संकुचित होंगी उनके कक्ष में निम्नास्तरण पर भी पद रखने में और तब शची उनका हाथ पकड़कर उन्हें आसन पर बैठाकर उनका सत्कार करेंगी। वैसे कोई साम्राज्ञी किसी सामान्य नारी को सत्कार दे और वह उपकृता, संकुचिता हो, यह अवस्था सत्यभामा की थी शची की कल्पना में। वे अपनी अंहकारपूर्ण उदारता का आनन्द पाने को उत्सुक थीं। बात ऐसी कुछ नहीं हुई - हुई ठीक उलटी स्थित। सत्यभामा जी ऐसे गौरव से आयीं जैसे साम्राज्ञी अनुकम्पा करके किसी दासी के भवन में आ जायँ और दासी के आसन, अर्चा के पदार्थ अत्यन्त तुच्छ होने पर भी प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार कर ले। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ नारायण-उपेन्द्र के पुत्र ने
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