श्राद्ध और दान के उत्तम पात्रों का लक्षण

महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 22 में श्राद्ध और दान के उत्तम पात्रों का लक्षण का वर्णन हुआ है[1]-

युधिष्ठिर एवं भीष्म का संवाद

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! युधिष्ठिर ने पूछा- भरतश्रेष्ठ! प्राचीन ब्राह्मण किसको दान का श्रेष्ठ पात्र बताते है? दण्ड-कमण्डलु आदि चिहन धारण करने वाले ब्रहमचारी ब्राह्मण को अथवा चिह्न रहित गृहस्थ ब्राह्मण को? भीष्म जी ने कहा-महाराज! जीवन-रक्षा के लिये अपनी वर्णाश्रमोचित वृति का आश्रय लेने वाले चिहन धारी या चिह्न रहित किसी भी ब्राह्मण को दान दिया जाना उचित बताया गया है; क्योंकि स्वधर्म का आश्रय लेने वाले ये दोनों ही तपस्वी एवं दान पात्र हैं। युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! जो केवल उत्कृष्ट श्रद्धा से ही पवित्र होकर ब्राह्मण को हव्य-कव्य तथा अन्य वस्तु का दान देता है, उसे अन्य प्रकार की पवित्रता न होने के कारण किस दोष की प्राप्ति होती है? भीष्म जी ने कहा-तात! मनुष्य जितेन्द्रिय न होने पर भी केवल श्रद्धामात्र से पवित्र हो जाता है- इसमें संशय नहीं है। महातेजस्वी नरेश! श्रद्धापूत मनुष्य सर्वत्र पवित्र होता है, फिर तुम-जैसे धर्मात्मा के पवित्र होने में तो संदेह ही क्या है? युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! विद्वानों का कहना है कि देवकार्य मे कभी ब्राह्मण की परीक्षा न करे, किंतु श्राद्ध में अवश्य उसकी परीक्षा करे; इसका क्या कारण है?

श्राद्ध और दान के उत्तम पात्रों का लक्षण

भीष्म जी ने कहा- बेटा! यज्ञ-होम आदि देवकार्य की सिद्धि ब्राह्मण के अधीन नहीं है, वह दैव से सिद्ध होता है। देवताओं की कृपा से ही यजमान यज्ञ करते हैं। इसमें संशय नहीं है। भरतश्रेष्ठ! बुद्धिमान मार्कण्डेय जी ने बहुत पहले से ही यह बता रखा है कि श्राद्धा में सदा वेदवेता ब्राह्मणों के ही निमन्त्रित करना चाहिये।[2] युधिष्ठिर ने पूछा- जो अपरिचित, विद्वान, सम्बन्धी, तपस्वी अथवा यज्ञशील हों, इनमें से कौन किस प्रकार के गुणों से सम्पन्न होने पर श्राद्ध एवं दान का उत्तम पात्र हो सकता है? भीष्म जी ने कहा- कुलीन, कर्मठ, वेदों के विद्वान, दयालु, सलज्ज, सरल और सत्यवादी- इन सात प्रकार के गुण वाले जो पूर्वोक्त तीन[3] ब्राह्मण हैं, वे उत्तम पात्र माने गये हैं। कुन्तीनन्दन! इस विषय में तुम मुझ से पृथ्वी, काश्यप, अग्नि और मार्कण्डेय- इन चार तेजस्वी व्यक्तियों का मत सुनो। पृथ्वी कहती है- जिस प्रकार महासागर में फेंका हुआ ढेला तुरंत गलकर नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार याजन, अध्यापन और प्रतिग्रह- इन तीन वृतियों से जीविका चलाने वाले ब्राह्मण में सारे दुष्कर्मों का लय हो जाता है। काश्यप् कहते हैं- नरेश्वर! जो ब्राह्मण शील से रहित हैं, उसे छहों अंगों सहित वेद,सांख्य और पुराण का ज्ञान तथा उत्तम कुल में जन्म-ये सब मिलकर भी उत्तम गति नहीं प्रदान कर सकते। अग्नि कहते हैं- जो ब्राह्मण अध्ययन करके अपने को बहुत बड़ा पण्डित मानता और अपनी विद्वत्ता पर गर्व करने लगता है तथा जो अपनी विद्या के बल से दूसरों के यश का नाश करता है, वह धर्म से भ्रष्ट होकर सत्य का पालन नहीं करता; अतः उसे नाशवान लोकों की प्राप्ति होती है। मार्कण्डेय जी कहते हैं- यदि तराजू के एक पलड़े में एक हजार अश्वमेघ-यज्ञ को और दूसरे में सत्य को रखकर तौला जाय तो भी न जाने वे सारे अश्वमेघ-यज्ञ इस सत्य के आधे के बराबर भी होंगे या नहीं ? भीष्म जी कहते हैं- युधिष्ठिर! इस प्रकार अपना मत प्रकट कर के वे चारों अमित तेजस्वी व्यक्ति-पृथ्वी, काश्यप, अग्नि और मार्कण्डेय शीघ्र ही चले गये। युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! यदि ब्रहमाचर्य व्रत का पालन करने वाले ब्राह्मण श्राद्ध मे हविष्यान्न का भोजन करते है तो श्रेष्ठ ब्राह्मण की कामना से उन्हें दिया हुआ दान कैसे सफल हो सकता है ? भीष्म जी ने कहा- राजेन्द्र![4]) ऐसे अनेक वेद के पारगंत आदिष्टी ब्राह्मण यदि यजमान की ब्राह्मण को दान देने की इच्छापूर्ति के लिये श्राद्ध में भोजन करते हैं तो उनका अपना ही व्रत नष्ट हो जाता है (इससे दाता का दान दूषित नहीं होता है)[5]

धर्म के उत्तम लक्षण का वर्णन

युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! विद्वानों का कहना है कि धर्म के साधन और फल अनेक प्रकार के हैं। पात्र के कौन-से गुण उसकी दान पात्रता में कारण होते हैं? यह मुझे बताइये। भीष्म जी ने कहा- राजेन्द्र! अहिंसा, सत्य, अक्रोध, कोमलता, इन्द्रिय संयम और सरलता- ये धर्म के निश्चित लक्षण हैं। प्रभो! जो लोग इस पृथ्वी पर धर्म की प्रशंसा करते हुए घूमते-फिरते हैं; परंतु स्वयं उस धर्म का आचरण नहीं करते, वे ढोंगी हैं और धर्म संकरता फैलाने में लगे हैं। ऐसे लोगों को जो सुवर्ण, रत्न, गौ अथवा अश्व आदि वस्तुओं का दान करता है वह नरक में पड़कर दस वर्षो तक विष्ठा खाता है। जो उच्चवर्ण के लोग राग और मोह के वशीभूत हो अपने किये अथवा बिना किये शुभ कर्म का जनसमुदाय में वर्णन करते हैं वे मेद, पुल्कस तथा अन्त्यजों के तुल्य माने जाते हैं। राजेन्द्र! जो मूढ़ मानव ब्रहमचारी ब्राह्मण को बलिवैश्वदेव सम्बन्धी अन्न[6] नहीं देते हैं, वे अशुभ लोकों का उपभोग करते हैं।

उत्तम ब्रह्मचर्य का वर्णन

युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! उत्तम ब्रह्मचर्य क्या है? धर्म का सबसे श्रेष्ठ लक्षण क्या है? तथा सर्वोत्तम पवित्रता किसे कहते हैं? यह मुझे बताइये। भीष्म जी ने कहा- तात! मांस और मदिरा का त्याग ब्रह्मचर्य से भी श्रेष्ठ है- वही उत्तम ब्रह्मचर्य है वेदोक्त मर्यादा में स्थित रहना सबसे श्रेष्ठ धर्म है तथा मन और इन्द्रियों को संयम में रखना ही सर्वोत्तम पवित्रता है। युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! मनुष्य किस समय धर्म का आचरण करे? कब अर्थोपार्जन में लगे तथा किस समय सुखभोग में प्रवृत हो? यह मुझे बताइये। भीष्म जी ने कहा- राजन! पूर्वाहण में धन का उपार्जन करें, तदनन्तर धर्म का और उसके बाद काम का सेवन करें; परंतु काम में आसक्त न हों। ब्राह्मणों का सम्मान करें। गुरुजनों की सेवा-पूजा में संलग्न रहें। सब प्राणियों के अनुकूल रहें। नम्रता का बर्ताव करें और सबसे मीठे वचन बोलें। न्याय का अधिकार पाकर झूठा फैसला देना अथवा न्यायालय में जाकर झूठ बोलना, राजाओं के पास किसी की चुगली करना और गुरु के साथ कपटपूर्ण बर्ताव करना-ये तीन ब्रह्म हत्या के समान पाप हैं। राजाओं पर प्रहार न करे और गाय को न मारे। जो राजा और गौ पर प्रहार रूप द्विविध दुष्कर्म का सेवन करता है, उसे भ्रूण हत्या के समान पाप लगता है। अग्निहोत्र का कभी त्याग न करें। वेदों का स्वाध्याय न छोड़े तथा ब्रह्मण की निन्दा न करें; क्योंकि ये तीनों दोष ब्रह्म हत्या के समान हैं।

दान के महान फल का वर्णन

युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! कैसे ब्राह्मण को श्रेष्ठ समझना चाहिये? किन को दिया हुआ दान महान फल देने वाला होता है? तथा कैसे ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिये? यह मुझे बताइये। भीष्म जी ने कहा- राजन! जो क्रोध रहित, धर्मपरायण, सत्यनिष्ठ, और इन्द्रियसंयम में तत्पर हैं, ऐसे ब्राह्मणों को श्रेष्ठ समझना चाहिये और उन्हीं को दान देने से महान फल की प्राप्ति होती है (अतः उन्हीं को श्राद्ध में भोजन कराना चाहिये)। जिनमें अभिमान का नाम नहीं है, जो सब कुछ सह लेते हैं, जिनका विचार दृढ़ है, जो जितेन्द्रिय, सम्पूर्ण प्राणियों के हितकारी तथा सबके प्रति मैत्री भाव रखने वाले हैं, उनको दिया हुआ दान महान फल देने वाला है। जो निर्लोभ, पवित्र, विद्वान, संकोची, सत्यवादी और अपने कर्तव्य का पालन करने वाले हैं, उनको दिया हुआ दान भी महान कहलाता है।[7]

जो श्रेष्ठ ब्राह्मण अंगो रहित चारो वेदो का अध्ययन करता और छ: कर्म (अध्ययन-अध्यापन, यजन-याजन और दान-पर्तिग्रह) में प्रवत्त रहता है, उसे लोग दान का उत्तम पात्र मानते हैं। जो ब्राह्मण ऊपर बताये हुए गुणों से युक्त होते हैं, उन्हें दिया हुआ दान महान फल देने वाला है। गुणवान एवं सुयोग्य पात्र को दान देने वाला दाता सहस्रगुना फल पाता है। यदि उत्तम बुद्धि, शास्त्र की विद्वत्ता, सदाचार और सुशीलता आदि उत्तम गुणों से सम्पन्न एक श्रेष्ठ ब्राह्मण भी दान स्वीकार कर ले तो वह दाता के सम्पूर्ण कुल का उद्धार कर देता है। अतः ऐसे गुणवान पुरुष को ही गाय,घोड़ा, अन्न,धन तथा दूसरे पदार्थ देने चाहियें। ऐसा करने से दाताको मरने के बाद पश्चाताप नहीं करना पड़ता। एक भी उत्तम ब्राह्मण श्राद्धकर्ता के समस्त कुल को तार सकता है। यदि उपर्युक्त बहुत-से ब्राह्मण तार दें इसमें तो कहना ही क्या है। अतः सुपात्र की खोज करनी चाहिये। उससे तृप्त होने पर सम्पूर्ण देवता, पितर और ऋषि भी तृप्त हो जाते हैं। सत्पुरुषों द्वारा सम्मानित गुणवान ब्राह्मण यदि कहीं दूर भी सुनायी पड़े तो उसको वहाँ से अपने यहाँ बुलाकर उसका हर प्रकार से पूजन और सत्कार करना चाहिये।[8]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 22 श्लोक 1-17
  2. क्योंकि उसकी सिद्धि सुपात्र ब्राह्मण के ही अधीन है
  3. अपरिचित विद्वान, सम्बन्धी और तपस्वी
  4. जिन्हें गुरु ने नियत वर्षों तक ब्रह्मचर्य-व्रत पालन करने का आदेश दे रखा है वे आदिष्टी कहलाते हैं।
  5. श्राद्ध में भोजन करने योग्य ब्राह्मण के विषय में स्मृतियों में इस प्रकार उल्लेख मिलता है- कर्मनिष्ठास्तपोनिष्ठाः पंचाग्निब्रहमाचारणिः। पितृमातृपराष्चैव ब्रहामणः श्राद्धसम्पदः। तथा-’व्रतस्थमपि दौहित्रं श्राद्धे यत्नेन भोजयेत्।’ तात्पर्य यह है कि क्रियानिष्ठ, तपस्वी,पंचाग्निका सेवन करने वाले, ब्रहमचारी तथा पिता-माता के भक्त- ये पांच प्रकार के ब्रहामण श्राद्ध की सम्पति है। इन्हें भोजन कराने से श्राद्धकर्म का पूर्णताय सम्पादन होता है।’ तथा’ अपनी कन्या का बेटा ब्रहमाचारी हो तो भी यत्नपूर्वक उसे श्रद्धा मे भोजन कराना चाहिये।’ ऐसा करने से श्राद्धकर्ता पुण्य का भागी होता है। केवल ब्रहमाचारी ही ऐसी छूट दी गयी है। श्राद्ध के अतिरिक्त और किसी कर्म में ब्रहमाचारी को लोभ आदि दिखाकर जो उसके व्रत को भंग करता है, उसे दोष का भागी होना पड़ता है। और अपने किये हुए दान का भी पूरा-पूरा फल नहीं मिलता। इसीलिये शास्त्र में लिखा है कि ’मनसा पात्रमुदिश्य जलमध्ये जलं क्षिपेत। दाता तत्फलमाप्नोति प्रतिग्राही न दोषभाक्।।’ अर्थात्’ यदि किसी सुपात्र (ब्रहमाचारी आदि)-को दान देना हो तो उसका मन में ध्यान करे और उसे दान देने के उदेश्य में हाथ में संकल्प का जल लेकर उसे जलही में छोड़ दें। इससे दाता को दान का फल मिल जाता है। और दान लेने वाले को दोष का भागी नहीं होना पड़ता।’ यह बात सत्पात्र का आदर करने के लिये बतायी गयी है। (नीलकण्ठी)
  6. अतिथियों को देने योग्य हन्तकार
  7. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 22 श्लोक 18-35
  8. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 22 श्लोक 36-41

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के कर्तव्य का वर्णन | नारद का पुण्डरीक को भगवान नारायण की आराधना का उपदेश | ब्राह्मण और राक्षस का सामगुण विषयक वृत्तान्त | श्राद्ध के विषय में देवदूत और पितरों का संवाद | पापों से छूटने के विषय में महर्षि विद्युत्प्रभ और इन्द्र का संवाद | धर्म के विषय में इन्द्र और बृहस्पति का संवाद | वृषोत्सर्ग आदि के विषय में देवताओं, ऋषियों और पितरों का संवाद | विष्णु, देवगण, विश्वामित्र और ब्रह्मा आदि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | अग्नि, लक्ष्मी, अंगिरा, गार्ग्य, धौम्य तथा जमदग्नि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | वायु द्वारा धर्माधर्म के रहस्य का वर्णन | लोमश द्वारा धर्म के रहस्य का वर्णन | अरुन्धती, धर्मराज और चित्रगुप्त द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | प्रमथगणों द्वारा धर्माधर्म सम्बन्धी रहस्य का कथन | दिग्गजों का धर्म सम्बन्धी रहस्य एवं प्रभाव | महादेव जी का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | स्कन्ददेव का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | भगवान विष्णु और भीष्म द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्यों के माहात्म्य का वर्णन | जिनका अन्न ग्रहण करने योग्य है और जिनका ग्रहण करने योग्य नहीं है, उन मनुष्यों का वर्णन | दान लेने और अनुचित भोजन करने का प्रायश्चित | दान से स्वर्गलोक में जाने वाले राजाओं का वर्णन | पाँच प्रकार के दानों का वर्णन | तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना | ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना | नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन | शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना | शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना | वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार | प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण | वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा | ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का वर्णन | बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन | स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन | उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन | मनुष्य को बुद्धिमान, मन्दबुद्धि तथा नपुंसक बनाने वाले कर्मों का वर्णन | राजधर्म का वर्णन | योद्धाओं के धर्म का वर्णन | रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा | संक्षेप से राजधर्म का वर्णन | अहिंसा और इन्द्रिय संयम की प्रशंसा | दैव की प्रधानता | त्रिवर्ग का निरूपण | कल्याणकारी आचार-व्यवहार का वर्णन | विविध प्रकार के कर्मफलों का वर्णन | अन्धत्व और पंगुत्व आदि दोषों और रोगों के कारणभूत दुष्कर्मों का वर्णन | उमा-महेश्वर संवाद में महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन | प्राणियों के चार भेदों का निरूपण | पूर्वजन्म की स्मृति का रहस्य | मरकर फिर लौटने में कारण स्वप्नदर्शन | दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन | यमलोक तथा वहाँ के मार्गों का वर्णन | पापियों की नरकयातनाओं का वर्णन | कर्मानुसार विभिन्न योनियों में पापियों के जन्म का उल्लेख | शुभाशुभ आदि तीन प्रकार के कर्मों का स्वरूप और उनके फल का वर्णन | मद्यसेवन के दोषों का वर्णन | पुण्य के विधान का वर्णन | व्रत धारण करने से शुभ फल की प्राप्ति | शौचाचार का वर्णन | आहार शुद्धि का वर्णन | मांसभक्षण से दोष तथा मांस न खाने से लाभ | गुरुपूजा का महत्त्व | उपवास की विधि | तीर्थस्थान की विधि | सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य | अन्न, सुवर्ण और गौदान का माहात्म्य | भूमिदान के महत्त्व का वर्णन | कन्या और विद्यादान का माहात्म्य | तिल का दान और उसके फल का माहात्म्य | नाना प्रकार के दानों का फल | लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताओं की पूजा का निरूपण | श्राद्धविधान आदि का वर्णन | दान के पाँच फल | अशुभदान से भी शुभ फल की प्राप्ति | नाना प्रकार के धर्म और उनके फलों का प्रतिपादन | शुभ और अशुभ गति का निश्चय कराने वाले लक्षणों का वर्णन | मृत्यु के भेद | कर्तव्यपालनपूर्वक शरीरत्याग का महान फल | काम, क्रोध आदि द्वारा देहत्याग करने से नरक की प्राप्ति | मोक्षधर्म की श्रेष्ठता का प्रतिपादन | मोक्षसाधक ज्ञान की प्राप्ति का उपाय | मोक्ष की प्राप्ति में वैराग्य की प्रधानता | सांख्यज्ञान का प्रतिपादन | अव्यक्तादि चौबीस तत्त्वों की उत्पत्ति आदि का वर्णन | योगधर्म का प्रतिपादनपूर्वक उसके फल का वर्णन | पाशुपत योग का वर्णन | शिवलिंग-पूजन का माहात्म्य | पार्वती के द्वारा स्त्री-धर्म का वर्णन | वंश परम्परा का कथन और श्रीकृष्ण के माहात्म्य का वर्णन | श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन और भीष्म का युधिष्ठिर को राज्य करने का आदेश | श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम् | जपने योग्य मंत्र और सबेरे-शाम कीर्तन करने योग्य देवता | ऋषियों और राजाओं के मंगलमय नामों का कीर्तन-माहात्म्य | गायत्री मंत्र का फल | ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन | कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन | ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद | वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन | ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन | ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन | अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन | कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार | ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना | भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन | श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना | श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना | श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता | भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन | साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण | युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना | भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना | नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य | भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन | भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना | भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना | भीष्म का प्राणत्याग | धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार | गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना

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