- महाभारत शान्ति पर्व में आपद्धर्म पर्व के अंतर्गत 139वें अध्याय में शत्रु से सावधान रहने के विषय में राजा ब्रह्मदत्त और पूजनी चिड़िया के संवाद का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है[1]
विषय सूची
भीष्म द्वारा ब्रह्मदत्त और चिड़िया के संवाद का वर्णन युधिष्ठिर से करना
युधिष्ठिर ने पूछा- महाबाहो! आपने यह सलाह दी है कि शत्रुओं पर विश्वास नहीं करना चाहिये। साथ ही यह कहा है कि कहीं भी विश्वास करना उचित नहीं है, परंतु यदि राजा सर्वत्र अविश्वास ही करे तो किस प्रकार वह राज्य संबंधी व्यवहार चला सकता है? राजन! यदि विश्वास से राजाओं पर महान भय आता है तो सर्वत्र अविश्वास करने वाला भूपाल अपने शत्रुओं पर विजय कैसे पा सकता है? पितामह! आपकी यह अविश्वास-कथा सुनकर तो मेरी बुद्धि पर मोह छा गया। कृपया आप मेरे इस संशय का निवारण कीजिये।
भीष्म जी ने कहा- राजन! राजा ब्रह्मदत्त के घर में पूजनी चिड़िया के साथ जो उनका संवाद हुआ था, उसे ही तुम्हारे समाधान के लिये उपस्थित करता हूँ, सुनो।
काम्पिल्य नगर में ब्रह्मदत्त नाम के एक राजा राज्य करते थे। उनके अन्त:पुर में पूजनी नाम से प्रसिद्ध एक चिड़िया निवास करती थी। वह दीर्घकाल तक उनके साथ रही थी। वह चिड़िया ‘जीवजीवक” नामक विशेष पक्षी के समान प्राणियों की बोली समझती थी तथा तिर्यग्योनि में उत्पन्न होने पर भी सर्वज्ञ एवं सम्पूर्ण तत्त्वों को जानने वाली थी। एक दिन उसने रनिवास में ही एक बच्चा दिया, जो बड़ा तेजस्वी था; उसी दिन उसके साथ ही राजा की रानी के गर्भ से भी एक बालक उत्पन्न हुआ। आकाश में विचरने वाली वह कृतज्ञ पूजनी चिड़िया प्रतिदिन समुद्र तट पर जाकर वहाँ से उन दोनों बच्चों के लिये दो फल ले आया करती थी। वह अपने बच्चे की पुष्टि के लिये एक फल उसे देती तथा राजा के बेटे की पुष्टि के लिये दूसरा फल उस राजकुमार को अर्पित कर देती थी। पूजनीय का लाया हुआ वह फल अमृत के समान स्वादिष्ट और बल तथा तेज की वृद्धि करने वाला होता था। वह बांरबार उस फल को ला-लाकर शीघ्रतापूर्वक उन दोनों को दिया करती थी। राजकुमार उस फल को खा-खाकर बड़ा हृष्ट-पुष्ट हो गया। एक दिन धाय उस राजपुत्र को गोद में लिये घूम रही थी। वह बालक ही तो ठहरा, बाल-स्वभाव वश आकर उसने उस चिड़िया के बच्चे को देखा और उसके साथ यत्नपूर्वक वह खेलने लगा। राजेन्द्र! अपने साथ ही पैदा हुए उस पक्षी को सूने स्थान में ले जाकर राजकुमार ने मार डाला और मारकर वह धाय की गोद में जा बैठा।
चिड़िया द्वारा राजकुमार की आँखें फोड़ना
राजन! तदनन्तर जब पूजनी फल लेकर लौटी तो उसने देखा कि राजकुमार ने उसके बच्चे को मार डाला है और वह धरती पर पड़ा है। अपने बच्चे की ऐसी दुर्गति देखकर पूजनी के मुख पर आँसुओं की धारा बह चली और वह दु:ख से संतप्त हो रोती हुई इस प्रकार कहने लगी- ‘क्षत्रिय में संगति निभाने की भावना नहीं होती। उसमें न प्रेम होता है, न सौहार्द। ये किसी हेतु या स्वार्थ से ही दूसरों को सान्त्वना देते हैं। जब इनका काम निकल जाता है, तब ये आश्रित व्यक्ति को त्याग देते हैं। ‘क्षत्रिय सबकी बुराई ही करते हैं। इन पर कभी विश्वास नहीं करना चाहिये। ये दूसरों का अपकार करके भी सदा उसे व्यर्थ सान्त्वना दिया करते हैं।[1] ‘देखो तो सही, यह राजकुमार कैसा कृतघ्न, अत्यन्त क्रूर और विश्वासघाती है! अच्छा, आज मैं इससे इस वैर का बदला लेकर ही रहूँगी। जो साथ ही पैदा हुआ और साथ ही पाला-पोसा गया हो, साथ ही भेाजन करता हो और शरण में आकर रहता हो, ऐसे व्यक्ति का वध करने से उपर्युक्त तीन प्रकार का पातक लगता है’। ऐसा कहकर पूजनी ने अपने दोनों पंजो से राजकुमार की दोनों आँखें फोड़ डालीं। फोड़कर वह आकाश में स्थिर हो गयी और इस प्रकार बोली- ‘इस जगत में स्वेच्छा से जो पाप किया जाता है, उसका फल तत्काल ही कर्ता को मिल जाता है। जिन के पाप का बदला मिल जाता है, उनके पूर्वकृत शुभाशुभ कर्म नष्ट नहीं होते हैं। ‘राजन यदि यहाँ किये हुए पापकर्म का कोई फल कर्ता को मिलता न दिखायी दे तो यह समझना चाहिये कि उसके पुत्रों, पोतों और नातियों को उसका फल भोगना पड़ेगा’।[2]
ब्रह्मदत्त और चिड़िया का संवाद
राजा ब्रह्मदत्त ने देखा कि पूजनी ने मेरे पुत्र की आँखें ले लीं, तब उन्होने यह समझ लिया कि राजकुमार को उसके कुकर्म का ही बदला मिला है। यह सोचकर राजा ने रोष त्याग दिया और पूजनी से इस प्रकार कहा। ब्रह्मदत्त बोले- पूजनी! हमने तेरा अपराध किया था और तूने उसका बदला चुका लिया। अब हम दोनों का कार्य बराबर गया। इसलिये अब यहीं रह। किसी दूसरी जगह न जा।
पूजनी बोली- राजन! एक बार किसी का अपराध करके फिर वहीं आश्रय लेकर रहे तो विद्वान पुरुष उसके इस कार्य की प्रशंसा नहीं करते हैं। वहाँ से भाग जाने में ही उसका कल्याण है। जब किसी से वैर बँध जाय तो उसकी चिकनी-चुपडी़ बातों में आकर कभी विश्वास नहीं करना चाहिये; क्योंकि ऐसा करने से वैर की आग तो बुझती नहीं, वह विश्वास करने वाला मूर्ख शीघ्र ही मारा जाता है। जो लोग आपस में वैर बाँध लेते हैं, उनका वह वैरभाव पुत्रों और पोत्रों तक को पीड़ा देता है। पुत्रों-पोत्रों का विनाश हो जाने पर परलोक में भी वह साथ नहीं छोड़ता है। जो लोग आपस में वैर रखने वाले हैं, उन सबके लिये सुख की प्राप्ति का उपाय यही है कि परस्पर विश्वास न करे। विश्वासघाती मनुष्यों का सर्वथा विश्वास तो करना ही नहीं चाहिये। जो विश्वास पात्र न हो, उस पर विश्वास न करे। जो विश्वास का पात्र हो, उस पर भी अधिक विश्वास करे; क्योंकि विश्वास से उत्पन्न होने वाला भय विश्वास करने वाले का मूलोच्छेद कर डालता है। अपने प्रति दूसरों का विश्वास भले ही उत्पन्न कर ले; किंतु स्वयं दूसरों का विश्वास न करे। माता और पिता स्वाभाविक स्नेह होने के कारण बान्धवगणों में सबसे श्रेष्ठ हैं, पत्नी वीर्य की नाशक (होने से) वृध्दावस्था का मूर्तिमान् रूप है, पुत्र अपना ही अंश है, भाई (धन में हिस्सा बाँटाने के कारण) शत्रु समझा जाता है और मित्र तभी तक मित्र है, जब तक उसका हाथ गीला रहता है अर्थात जब तक उसका स्वार्थ सिद्ध होता रहता है; केवल आत्मा ही सुख और दु:ख का भोग करने वाला कहा गया है।[2] जब आपस में वैर हो जाय, तब संधि करना ठीक नहीं होता। मैं अब तक जिस उद्देश्य से यहाँ रही हूँ, वह तो समाप्त हो गया। जो पहले का अपकार करने वाला प्राणी है, वह दान और मान से पूजित हो तो भी उसका मन विश्वस्त नहीं होता। अपना किया हुआ अनुचित कर्म ही दुर्बल प्राणियों को डराता रहता है। जहाँ पहले सम्मान मिला हो, वहीं पीछे अपमान होने लगे तो प्रत्येक शक्तिशाली पुरुष को पुन: सम्मान मिलने पर भी उस स्थान का परित्याग कर देना चाहिये। राजन! मैं आपके घर में बहुत दिनों तक बड़े आदर के साथ रही हूँ, परंतु अब यह वैर उत्पन्न हो गया; इसलिये मैं बहुत जल्दी यहाँ से सुखपूर्वक चली जाऊँगी।[3]
ब्रह्मदत्त ने कहा- पूजनी! जो एक व्यक्ति के अपराध करने पर बदले में स्वयं भी कुछ करे, वह कोई अपराध नहीं करता- अपराधी नहीं माना जाता। इससे तो पहले का अपराधी ऋणमुक्त हो जाता है; इसलिये तू यहीं रह। कहीं मत जा। पूजनी बोली- राजन! जिसका अपकार किया जाता है और जो अपकार करता है, उन दोनो में फिर मेल नहीं हो सकता। जो अपराध करता है और जिस पर किया जाता है उन दोनो के ही हृदयों में वह बात खटकती रहती है। ब्रह्मदत्त ने कहा- पूजनी! बदला ले लेने पर तो वैर शान्त हो जाता है और अपकार करने वाले को उस पाप का फल भी नहीं भोगना पड़ता; अत: अपराध करने और सहने वाले का मेल पुन: हो सकता है। पूजनी बोली- राजन! इस प्रकार कभी वैर शान्त नहीं होता है। ‘शत्रु ने मुझे सान्त्वना दी है’, ऐसा समझकर उस पर कभी विश्वास नहीं करना चाहिये। ऐसी अवस्था में विश्वास करने से जगत में अपने प्राणों से भी (कभी-न-कभी) हाथ धोना पड़ता है, इसलिये वहाँ मोँह न दिखाना ही अच्छा है। जो लोग बलपूर्वक तीखे शस्त्रों से भी वश में नहीं किये जा सकते, उन्हें भी मीठी वाणी द्वारा बंदी बना लिया जाता है। जैसे हथिनियों की सहायता से हाथी कैद कर लिये जाते हैं। ब्रह्मदत्त ने कहा-पूजनी! प्राणों का नाश करने वाले भी यदि एक साथ रहने लगें तो उन में परस्पर स्नेह उत्पन्न हो जाता है और वे एक-दूसरे का विश्वास भी करने लगते हैं; जैसे श्वपच (चाण्डाल) के साथ रहने से कुत्ते का उसके प्रति स्नेह और विश्वास हो जाता है। आपस में जिनका वैर हो गया है, उनका वह वैर भी एक साथ रहने से मृदु हो जाता है, अत: कमल के पत्ते पर जैसे जल नहीं ठहरता है, उसी प्रकार वह वैर भी टिक नहीं पाता है।
पूजनी बोली- राजन! वैर पांच कारणों से हुआ करता है; इस बात का विद्वान पुरुष अच्छी तरह जानते हैं। 1. स्त्री के लिये, 2. घर और जमीन के लिये, 3. कठोर वाणी के कारण, 4. जातिगत द्वेष के कारण और 5. किसी समय किये हुए अपराध के कारण। इन कारणों से भी ऐसे व्यक्ति का वध नहीं करना चाहिये जो दाता हो अर्थात परोपकारी हो, विशेषत: क्षत्रिय नरेश को छिपकर या प्रकट रूप में ऐसे व्यक्ति पर हाथ नहीं उठाना चाहिये। पहले यह विचार कर लेना चाहिये कि उसका दोष हल्का है या भारी। उसके बाद कोई कदम उठाना चाहिये।[3] जिसने वैर बाँध लिया हो, ऐसे सुहृद पर भी इस जगत में विश्वास नहीं करना चाहिये; क्योंकि जैसे लकड़ी के भीतर आग छीपी रहती है, उसी प्रकार उसके हृदय में वैरभाव छिपा रहता है। राजन! जिस प्रकार बडवानल समुद्र में किसी तरह शान्त नहीं होता, उसी तरह क्रोधाग्नि भी न धन से, न कठोरता दिखाने से, न मीठे वचनों द्वारा समझाने-बुझाने से और न शास्त्रज्ञान से ही शान्त होती है। नरेश्वर! प्रज्वलित हुई वैर की आग एक पक्ष को दग्ध किये बिना नहीं बुझती है और अपराध जनित कर्म भी एक पक्ष का संहार किये बिना शान्त नहीं होता है। जिसने पहले अपकार किया है, उसका यदि अपकृत व्यक्ति के द्वारा धन और मान से सत्कार किया जाय तो भी उसे उस शत्रु का विश्वास नहीं करना चाहिये; क्योंकि अपना किया हुआ पापकर्म ही दुर्बलों को डराता रहता है। अब तक तो न मैंने कोई आपका अपकार किया था और न आपने मेरी कोई हानि की थी; इसलिये मैं आपके महल में रहती थी, किंतु अब में आपका विश्वास नहीं कर सकती।[4]
ब्रह्मदत्त ने कहा- पूजनी! काल ही समस्त कार्य करता है तथा काल के ही प्रभाव से भाँति-भाँति की क्रियाएँ आरम्भ होती है। इसमें कौन किसका अपराध करता है? जन्म और मृत्यु- ये दोनों क्रियाएँ समान रूप से चलती रहती हैं। और काल ही इन्हें कराता है। इसीलिये प्राणी जीवित नहीं रह पाता। कुछ लोग एक साथ ही मारे जाते हैं; कुछ एक-एक करके मरते हैं और बहुत-से लोग दीर्घकाल तक मरते ही नहीं हैं। जैसे आग ईंधन को पाकर उसे जला देती है, उसी प्रकार काल ही समस्त प्राणियों को दग्ध कर देता है। शुभे! एक दूसरे के प्रति किये गये अपराध में न तो यथार्थ कारण हो और न मैं ही वास्तविक हेतु हूँ। काल ही सदा समस्त देहधारियों के सुख-दुख को ग्रहण या उत्पन्न करता है। पूजनी! मैं तेरी किसी प्रकार हिंसा नहीं करूँगा। तू यहाँ अपनी इच्छा के अनुसार स्नहेपूर्वक निवास कर। तूने जो कुछ किया है, उसे मैंने क्षमा कर दिया और मैंने जो कुछ किया हो, उसे तू भी क्षमा कर दे। पूजनी बोली- राजन! यदि आप काल को ही सब क्रियाओं का कारण मानते हैं, तब तो किसी का किसी के साथ वैर नहीं होना चाहिये; फिर अपने भाई-बन्धुओं के मारे जाने पर उनके सगे-संबंधी बदला क्यों लेते हैं? यदि काल से ही मृत्य, दु:ख-सुख और उन्नति अवनति आदि का सम्पादन होता है, तब पूर्वकाल में देवताओं और असुरों ने क्यों आपस में युद्ध करके एक दूसरे का वध किया। वैद्य लोग रोगियों की दवा करने की अभिलाषा क्यों करते हैं? यदि काल ही सबको पका रहा है तो दवाओं का क्या प्रयोजन है? यदि आप काल को ही प्रमाण मानते हैं तो शोक से मूर्च्छित हुए प्राणी क्यों महान् प्रलाप एवं हाहाकार करते हैं? फिर कर्म करने वालों के लिये विधि-निषेधरूपी धर्म के पालन का नियम क्यों रखा गया है। नरेश्वर! आप के बेटे ने मेरे बच्चे को मार डाला और मैंने भी उसकी आँखों को नष्ट कर दिया। इसके बाद अब आप मेरा वध कर डालेंगे।[4] जैसे मैं पुत्र शोक से संतप्त होकर आपके पुत्र के प्रति पापपूर्ण बर्ताव कर बैठी, उसी प्रकार आप भी मुझ पर प्रहार कर सकते हैं। यहाँ जो यथार्थ बात है, वह मुझसे सुनिये।
मनुष्य खाने और खेलने के लिेये ही पक्षियों की कामना करते हैं। वध करने या बन्धन में डालने के सिवा तीसरे प्रकार का कोई सम्पर्क पक्षियों के साथ उनका नहीं देखा जाता है। इस वध और बन्धन के भय से ही मुमुक्षुलोग मोक्ष-शास्त्र का आश्रय लेकर रहते है; क्योंकि वेदवेत्ता पुरुषों का कहना है कि जन्म और मरण का दु:ख असह्म होता है। सबको अपने प्राण प्रिय होते हैं, सभी को अपने पुत्र प्यारे लगते हैं; सब लोग दु:ख से उद्विग्न हो उठते हैं और सभी को सुख की प्राप्ति अभीष्ट होती है। महाराज ब्रह्मदत्त! दु:ख के अनेक रूप हैं। बुढा़पा दु:ख है, धन का नाश दु:ख है, अप्रियजनों के साथ रहना दु:ख है और प्रियजनों से बिछुड़ना दु:ख है। वध और बन्धन से भी सबको दु:ख होता है। स्त्री के कारण और स्वाभाविक रूप से भी दु:ख हुआ करता है तथा पुत्र यदि नष्ट हो जाय या दुष्ट निकल जाय तो उससे भी लोगों को सदा दु:ख प्राप्त होता रहता है। कुछ मूढ़ मनुष्य कहा करते हैं कि पराये दु:ख में दु:ख नहीं होता; परंतु वही ऐसी बात श्रेष्ठ पुरुषों के निकट कहा करता है, जो दु:ख के तत्तव को नहीं जानता। जो दु:ख से पीड़ित होकर शोक करता है तथा जो अपने और पराय सभी के दु:ख का रस जानता है, वह ऐसी बात कैसे कह सकता है शत्रुदमन नरेश! आपने जो मेरा अपकार किया है तथा मैंने बदले में जो कुछ किया है, उसे सैकड़ों वर्षेां में भी भुलाया नहीं जा सकता। इस प्रकार आपस में एक दूसरे का अपकार करने के कारण अब हमारा फिर मेल नहीं हो सकता। अपने पुत्र को याद कर-करके आपका वैर ताजा होता रहेगा। इस प्रकार मरणान्त वैर ठन जाने पर जो प्रेम करना चाहता है, उसका वह प्रेम उसी प्रकार असम्भव है, जैसे मिट्टी का बर्तन एक बार फूट जाने पर फिर नहीं जुटता है। विश्वास दु:ख देने वाला है, यही नीतिशास्त्रों का निश्चय है। प्राचीनकाल में शुक्राचार्य ने भी प्रह्लाद से दो गाथाएँ कही थीं, जो इस प्रकार हैं।[5]
चिड़िया द्वारा शुक्राचार्य की गाथाएँ सुनाना
जैसे सूखे तिनकों से ढके हुए गड्ढे के ऊपर रखे हुए मधु को लेने जाने वाले मनुष्य मारे जाते हैं, उसी प्रकार जो लोग वैरी की झूठी या सच्ची बात पर विश्वास करते हैं, वे भी बेमौत मरते हैं। जब किसी कुल में दु:खदायी वैर बँध जाता है, तब वह शांत नहीं होता। उसे याद दिलाने वाले बने ही रहते हैं, इसलिये जब तक कुल में एक भी पुरुष जीवित रहता है, तब तक वह वैर नहीं मिटता है। नरेश्वर! दुष्ट प्रकृति के लोग मन में वैर रखकर ऊपर से शत्रु को मधुर वचनों द्वारा सान्त्वना देते रहते हैं। तदनन्तर अवसर पाकर उसे उसी प्रकार पीस डालते हैं, जैसे कोई पानी से भरे हुए घडे़ को पत्थर पर पटककर चूर–चूर कर दे। राजन! किसी का अपराध करके फिर उस पर कभी विश्वास नहीं करना चाहिये। जो दूसरों का अपकार करके भी उन पर विश्वास करते हैं, उसे दु:ख भेागना पड़ता है।[5]
ब्रह्मदत्त ने कहा – पूजनी! अविश्वास करने से तो मनुष्य संसार में अपने अभीष्ट पदार्थों को कभी नहीं प्राप्त कर सकता और न किसी कार्य के लिये कोई चेष्टा ही कर सकता है। यदि मन में एक पक्ष से सदा भय बना रहे तो मनुष्य मृतक तुल्य हो जायँगे- उनका जीवन ही मिट्टी हो जायगा।[6]
पूजनी ने कहा- राजन! जिसके दोनों पैरों में घाव हो गया हो; फिर भी वह उन पैरों से ही चलता रहे तो कितना ही बचा-बचाकर क्यों न चले; यहाँ दौड़ते हुए उन पैरों में पुन: घाव होते ही रहेंगे। जो मनुष्य अपने रोगी नेत्रों से हवा की ओर रूख करके देखता है, उसके उन नेत्रों में वायु के कारण अवश्य ही बहुत पीड़ा बढ़ जाती है। जो अपनी शक्ति को न समझ कर मोहवश दुर्गम मार्ग पर चल देता है, उसका जीवन वहीं समाप्त हो जाता है। जो किसान वर्षा के समय को विचार न करके खेत जोतता है, उसका पुरुषार्थ व्यर्थ जाता है; और उस जुताई से उसको अनाज नहीं मिल पाता। जो प्रतिदिन तीता, कसैला, स्वादिष्ट अथवा मधुर, जैसा भी हो, हितकर भेाजन करता है, वही अन्न उसके लिये अमृत के समान लाभकारी होता है। परंतु जो परिणाम के विचार किये बिना ही मोहवश पथ्य छोड़कर अपथ्य भोजन करता है, उसके जीवन का वहीं अंत हो जाता है। दैव ओर पुरुषार्थ दोनों एक-दूसरे के सहारे रहते हैं, परंतु उदार विचार वाले पुरुष सर्वदा शुभ कर्म करते हैं और नपुंसक दैव के भरोसे पड़े रहते हैं। कठोर अथवा कोमल, जो अपने लिये हितकर हो, वह कर्म करते रहना चाहिये। जो कर्म को छोड़ बैठता है, वह निर्धन होकर सदा अनर्थों का शिकार बना रहता है। अत: काल, दैव और स्वभाव आदि सारे पदार्थों का भरोसा छोड़कार पराक्रम ही करना चाहिये। मनुष्य को सर्वस्व की बाजी लगाकर भी अपने हित का साधन ही करना चाहिये।
विद्या, शूरवीरता, दक्षता, बल और पाँचवाँ धैर्य-ये पाँच मनुष्य के स्वाभाविक मित्र बताये गये हैं। विद्वान् पुरुष इनके द्वारा ही इस जगत में सारे कार्य करते हैं। घर, ताँबा आदि धातु, खेत, स्त्री और सुहृद्जन-ये उपमित्र बताये गये हैं। इन्हें मनुष्य सर्वत्र पा सकता है। विद्वान् पुरुष सर्वत्र आनन्द में रहता है और सर्वत्र उसकी शोभा होती है। उसे कोई डराता नहीं है और किसी के डराने पर भी वह डरता नहीं है। बुद्धिमान के पास थोड़ा-सा धन हो तो वह भी सदा बढ़ता रहता है। वह दक्षतापूर्वक काम करते हुए संयम के दारा प्रतिष्ठित होता है। घर की आसक्ति में बँधें हुए मन्दबुद्धि मनुष्यों के मांसों को कुटिल स्त्री खा जाती है अर्थात उसे सुखा डालती है, जैसे केकड़े की मादा को उसकी संताने ही नष्ट कर देती है। बुद्धि के विपरित हो जाने से दूसरे-दूसरे बहुतेरे मनुष्य घर, खेत, मित्र और अपने देश आदि की चिन्ता से ग्रस्त होकर सदा दुखी बने रहते हैं। अपना जन्मस्थान भी यदि रोग और दुर्भिक्ष से पीड़ित हो तो आत्मरक्षा के लिये वहाँ से हट जाना या अन्यत्र निवास के लिये चले जाना चाहिये। यदि वहाँ रहना ही हो तो सदा सम्मानित होकर रहे।[6] भूपाल! मैंने तुम्हारे पुत्र के साथ दुष्टतापूर्ण बर्ताव किया है, इसलिये मैं अब यहाँ रहने का साहस नहीं कर सकती, दूसरी जगह चली जाऊँगी।
राजा के श्रेष्ठ गुण
दुष्टा भार्या, दुष्ट पुत्र, कुटिल राजा, दुष्ट मित्र, दूषित संबंध और दुष्ट देश को दूर से ही त्याग देना चाहिये। कुपुत्र पर कभी विश्वास नहीं हो सकता। दुष्टा भार्या पर प्रेम कैसे हो सकता है? कुटिल राजा के राज्य में कभी शान्ति नहीं मिल सकती और दुष्ट देश में जीवन-निर्वाह नहीं हो सकता। कुमित्र का स्नेह कभी स्थिर नहीं रह सकता, इसलिये उसके साथ सदा मेल बना रहे- यह असम्भव है और जहाँ दूषित संबंध हो, वहाँ स्वार्थ में अंतर आने पर अपमान होने लगता है। पत्नी वही अच्छी है, जो प्रिय वचन बोले। पुत्र वही अच्छा है, जिससे सुख मिले। चित्र वही श्रेष्ठ है, जिस पर विश्वास बना रहे और देश भी वही उत्तम है, जहाँ जीविका चल सके। उग्र शासनवाला राजा वही श्रेष्ठ है, जिसके राज्य में बलात्कार न हो, किसी प्रकार का भय न रहे, जो दरिद्र का पालन करना चाहता हो तथा प्रजा के साथ जिसका पाल्य-पालक संबंध सदा बना रहे। जिस देश का राजा गुणवान और धर्मपरायण होता है वहाँ स्त्री, पुत्र, मित्र संबंधी तथा देश सभी उत्तम गुण से संपंन्न होते हैं। जो राजा धर्म को नहीं जानता, उसके अत्याचार से प्रजा का नाश हो जाता है। राजा ही धर्म, अर्थ और काम-इन तीनों का मूल है। अत: उसे पूर्ण सावधान रहकर निरंतर अपनी प्रजा का पालन करना चाहिये। जो प्रजा की आय का छठा भाग कर रूप से ग्रहण करके उसका उपभोग करता है और प्रजा का भलीभाँति पालन नहीं करता, वह तो राजाओं में चोर है। जो प्रजा को अभयदान देकर धन के लोभ से स्वयं ही उसका पालन नहीं करता, वह पाप बुद्धिराजा सारे जगत का पाप बटोर कर नरक में जाता है। जो अभयदान देकर प्रजा का धर्मपूर्वक पालन करते हुए स्वयं ही अपनी प्रतिज्ञा को सत्य प्रमाणित कर देता है वह राजा सब को सुख देने वाला समझा जाता है।[7]
मनुष्य के सात गुण
प्रजापति मनु ने राजा के सात गुण बताये हैं, और उन्हीं के अनुसार उसे माता, पिता, गुरु, रक्षक, अग्नि, कुबेर और यम की उपमा दी है। जो राजा प्रजा पर सदा कृपा रखता है, वह अपने राष्ट्र के लिये पिता के समान है। उसके प्रति जो मिथ्याभाव प्रदर्शित करता है, मनुष्य दूसरे जन्म में पशु-पक्षी की योनि में जाता है। राजा दीन-दु:खियों की भी सुधि लेता और सबका पालन करता है, इसलिये वह माता के समान है। अपने और प्रजा के अप्रियजनों को वह जलाता रहता है; अत: अग्नि के समान है और दुष्टों का दमन करके उन्हें संयम में रखता है; इसलिये यम कहा गया है। प्रियजनेां को खुले हाथ धन लुटाता है और उनकी कामना पूरी करता है, इसलिये कुबेर के समान है। धर्म का उपदेश करने के कारण गुरु और सबका संरक्षण करने के कारण रक्षक है। जो राजा अपने गुणों से नगर और जनपद के लोगों को प्रसन्न रखता है, उसका राज्य कभी डावांडोल नहीं होता क्योंकि वह स्वयं धर्म का निरंतर पालन करता रहता है।[7] जो स्वयं नगर और गाँवों के लोगों का सम्मान करना जानता है, वह राजा इहलोक और परलोक में सर्वत्र सुख-ही-सुख देखता है। जिसकी प्रजा सर्वदा करके भार से पीड़ित हो नित्य उद्विग्न रहती है और नाना प्रकार के अनर्थ उसे सताते रहते हैं, वह राजा पराभव को प्राप्त होता है। इसके विपरित जिसकी प्रजा सरोवर में कमलों के समान विकास एवं वृद्धि को प्राप्त होती रहती है, वह सब प्रकार के पुण्यफलों का भागी होता है और स्वर्गलोक में भी सम्मान पाता है। राजन! बलवान के साथ युद्ध छेड़ना कभी अच्छा नहीं माना जाता। जिसने बलवान के साथ झगड़ा मोल ले लिया, उसके लिये कहाँ राज्य है और कहाँ सुख।[8]
भीष्म जी कहते हैं- नरेश्वर! राजा ब्रह्मदत्त से ऐसा कहकर वह पूजनी चिड़िया उनसे विदा ले अभीष्ट दिशा को चली गयी। नृपश्रेष्ठ! राजा ब्रह्मदत्त का पूजनी चिड़िया के साथ जो संवाद हुआ था, यह मैंने तुम्हें सुना दिया। अब और क्या सुनना चाहते हो?[8]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 139 श्लोक 1-17
- ↑ 2.0 2.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 139 श्लोक 18-30
- ↑ 3.0 3.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 139 श्लोक 31-43
- ↑ 4.0 4.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 139 श्लोक 44-58
- ↑ 5.0 5.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 139 श्लोक 59-74
- ↑ 6.0 6.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 139 श्लोक 75-91
- ↑ 7.0 7.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 139 श्लोक 92-107
- ↑ 8.0 8.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 139 श्लोक 108-113
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| युधिष्ठिर का राज्याभिषेक
| युधिष्ठिर का धृतराष्ट्र के अधीन रहकर राज्य व्यवस्था के लिए अपने का भाइयों को नियुक्त करना
| युधिष्ठिर और धृतराष्ट्र का युद्ध में मारे गये सगे-संबंधियों का श्राद्धकर्म करना
| युधिष्ठिर द्वारा भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति
| युधिष्ठिर द्वारा दिये हुए भवनों में सभी भाइयों का प्रवेश और विश्राम
| युधिष्ठिर द्वारा ब्राह्मणों एवं आश्रितों का सत्कार
| युधिष्ठिर और श्रीकृष्ण का संवाद
| श्रीकृष्ण द्वारा भीष्म की प्रशंसा तथा युधिष्ठिर को उनके पास चलने का आदेश
| भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की स्तुति-भीष्मस्तवराज
| परशुराम द्वारा होने वाले क्षत्रिय संहार के विषय में युधिष्ठिर का प्रश्न
| परशुराम के उपाख्यान क्षत्रियों का विनाश तथा पुन: उत्पन्न होने की कथा
| श्रीकृष्ण द्वारा भीष्म के गुण-प्रभाव का वर्णन
| श्रीकृष्ण का भीष्म की प्रशंसा करते हुए उन्हें युधिष्ठिर को धर्मोपदेश देने का आदेश देना
| भीष्म द्वारा अपनी असर्मथता प्रकट करने पर भगवान श्रीकृष्ण का उन्हें वर देना
| पाण्डवों व ऋषियों का भीष्म से विदा लेना
| श्रीकृष्ण की प्रातश्चर्या
| सात्यकि द्वारा कृष्ण का संदेश पाकर युधिष्ठिर का भाइयों सहित कुरुक्षेत्र में आना
| श्रीकृष्ण और भीष्म की बातचीत
| भीष्म द्वारा युधिष्ठिर को गुण-कथनपूर्वक प्रश्न करने का आदेश देना
| भीष्म के आश्वासन पर युधिष्ठिर का उनके समीप जाना
| युधिष्ठिर के पूछने पर भीष्म द्वारा राजधर्म का वर्णन
| राजा के लिए पुरुषार्थ, सत्य, ब्राह्मणों की अदण्डनीयता
| राजा की परिहासशीलता तथा मृदुता में प्रकट होने वाले दोष
| राजा द्वारा धर्मानुकूल नीतिपूर्ण बर्ताव का वर्णन
| भीष्म द्वारा राज्यरक्षा का वर्णन
| युधिष्ठिर का भीष्म से विदा लेकर हस्तिनापुर में प्रवेश
| ब्रह्मा जी के नीतिशास्त्र का वर्णन
| राजा पृथु के चरित्र का वर्णन
| वर्णधर्म का वर्णन
| आश्रम धर्म का वर्णन
| ब्राह्मण धर्म और कर्तव्यपालन का महत्त्व
| वर्णाश्रम धर्म का वर्णन
| राजर्धम का वर्णन
| इन्द्ररूपधारी विष्णु और मान्धाता का संवाद
| राजधर्म के पालन से चारों आश्रमों के धर्म का फल
| राष्ट्र की रक्षा और उन्नति
| राजा की आवश्यकता का प्रतिपादन
| वसुमना और बृहस्पति का संवाद
| राजा के न होने से प्रजा की हानि और होने से लाभ का वर्णन
| राजा के प्रधान कर्तव्य
| दण्डनीति द्वारा युगों के निर्माण का वर्णन
| राजा को इहलोक व परलोक में सुख प्राप्ति कराने वाले छत्तीस गुण
| धर्मपूर्वक प्रजापालन ही राजा का महान धर्म
| राजा के लिए सदाचारी विद्वान पुरोहित की आवश्यकता
| विद्वान सदाचारी पुरोहित की आवश्यकता
| ब्राह्मण और क्षत्रिय में मेल रहने से लाभविषयक पुरूरवा का उपख्यान
| ब्राह्मण और क्षत्रिय में मेल से लाभ का प्रतिपादन करने वाले मुचुकुन्द का उपाख्यान
| राज्य के कर्तव्य का वर्णन
| युधिष्ठिर का राज्य से विरक्त होने पर भीष्म द्वारा राज्य की महिमा का वर्णन
| उत्तम-अधम ब्राह्मणों के साथ राजा का बर्ताव
| केकयराजा तथा राक्षस का उपख्यान
| केकयराजा की श्रेष्ठता का विस्तृत वर्णन
| आपत्तिकाल में ब्राह्मण के लिए वैश्यवृत्ति से निर्वाह करने की छूट
| लुटेरों से रक्षा के लिए शस्त्र धारण करने का अधिकार
| रक्षक को सम्मान का पात्र स्वीकार करना
| ऋत्विजों के लक्षण
| यज्ञ और दक्षिणा का महत्व
| तप की श्रेष्ठता
| राजा के लिए मित्र और अमित्र की पहचान और उनके साथ नीतिपूर्ण बर्ताव
| मन्त्री के लक्षणों का वर्णन
| कुटुम्बीजनों में दलबंदी होने पर कुल के प्रधान पुरुष के कार्य
| श्री कृष्ण और नारद जी का संवाद
| मंत्रियों की परीक्षा तथा राजा और राजकीय मनुष्यों से सतर्कता
| कालकवृक्षीय मुनि का उपख्यान
| सभासद आदि के लक्षण
| गुप्त सलाह सुनने के अधिकारी और अनधिकारी तथा गुप्त-मन्त्रणा की विधि एवं निर्देश
| इन्द्र और वृहस्पति के संवाद में मधुर वचन बोलने का महत्व
| राजा की व्यावहारिक नीति व मंत्रीमण्डल का संघटन
| दण्ड का औचित्य तथा दूत व सेनापति के गुण
| राजा के निवासयोग्य नगर एवं दुर्ग का वर्णन
| प्रजापालन व्यवहार तथा तपस्वीजनों के समादर का निर्देश
| राष्ट्र की रक्षा तथा वृद्धि के उपाय
| प्रजा से कर लेने तथा कोश संग्रह करने का प्रकार
| राजा के कर्तव्य का वर्णन
| उतथ्य का मान्धाता को उपदेश
| राजा के लिए धर्मपालन की आवश्यकता
| उतथ्य के उपदेश में धर्माचरण का महत्व
| राजा के धर्म का वर्णन
| राजा के धर्मपूर्वक आचार के विषय में वामदेवजी का वसुमना को उपदेश
| वामदेव जी के द्वारा राजोचित बर्ताव का वर्णन
| वामदेव के उपदेश में राजा और राज्य के लिए हितकर वर्ताव
| विजयाभिलाषी राजा के धर्मानुकूल बर्ताव तथा युद्धनीति का वर्णन
| राजा के छलरहित धर्मयुक्त बर्ताव की प्रशंसा
| शूरवीर क्षत्रियों के कर्तव्य तथा सद्नति का वर्णन
| इन्द्र और अम्बरीष के संवाद में नदी और यज्ञ के रूपों का वर्णन
| समरभूमि में जुझते हुए मारे जाने वाले शूरवीरों को उत्तम लोकों की प्राप्ति का कथन
| शूरवीरों को स्वर्ग और कायरों को नरक की प्राप्ति
| सैन्यसंचालन की रीति-नीति का वर्णन
| भिन्न-भिन्न देश के योद्धाओं का स्वभाव व आचरण के लक्षण
| विजयसूचक शुभाशुभ लक्षणों व बलवान सैनिकों का वर्णन
| शत्रु को वश में करने के लिये राजा का नीति से काम लेना
| दुष्टों को पहचानने के विषय में इन्द्र और बृहस्पति का संवाद
| राज्य, खजाना और सेना से वंचित क्षेमदर्शी राजा को कालकवृक्षीय मुनि का उपदेश
| कालकवृक्षीय मुनि के द्वारा गये हुए राज्य की प्राप्ति के लिए विभिन्न उपायों का वर्णन
| कालकवृक्षीय मुनि का विदेहराज तथा कोसलराजकुमारों का मेल कराना
| विदेहराज का कोसलराज को अपना जामाता बनाना
| गणतन्त्र राज्य का वर्णन और उसकी नीति
| माता-पिता तथा गुरु की सेवा का महत्त्व
| सत्य-असत्य का विवेचन
| धर्म के लक्षण व व्यावहारिक नीति का वर्णन
| सदाचार और ईश्वरभक्ति को दु:खों से छुटने का उपाय
| मनुष्य के स्वभाव की पहचान बताने वाली बाघ और सियार की कथा
| तपस्वी ऊँट के आलस्य का कुपरिणाम और राजा का कर्तव्य
| सरिताओं और समुद्र का संवाद
| दुष्ट मनुष्य द्वारा की हुई निन्दा को सह लेने से लाभ
| राजा तथा राजसेवकों के आवश्यक गुण
| सज्जनों के चरित्र के विषय में महर्षि और कुत्ते की कथा
| कुत्ते का शरभ की योनि से महर्षि के शाप से पुन: कुत्ता हो जाना
| राजा के सेवक, सचिव आदि और राजा के गुणों व उनसे लाभ का वर्णन
| सेवकों को उनके योग्य स्थान पर नियुक्त करने का वर्णन
| सत्पुरुषों का संग्रह व कोष की देखभाल के लिए राजा को प्रेरणा देना
| राजधर्म का साररूप में वर्णन
| दण्ड के स्वरूप, नाम, लक्षण और प्रयोग का वर्णन
| दण्ड की उत्पत्ति का वर्णन
| दण्ड का क्षत्रियों कें हाथ में आने की परम्परा का वर्णन
| त्रिवर्ग के विचार का वर्णन
| पाप के कारण राजा के पुनरुत्थान के विषय में आंगरिष्ठ और कामन्दक का संवाद
| इन्द्र और प्रह्लाद की कथा
| शील का प्रभाव, अभाव में धर्म, सत्य, सदाचार और लक्ष्मी के न रहने का वर्णन
| सुमित्र और ऋषभ ऋषि की कथा
| राजा सुमित्र का मृग की खोज में तपस्वी मुनियों के आश्रम पर पहुँचना
| सुमित्र का मुनियों से आशा के विषय में प्रश्न करना
| ऋषभ का सुमित्र को वीरद्युम्न व तनु मुनि का वृतान्त सुनाना
| तनु मुनि का वीरद्युम्न को आशा के स्वरूप का परिचय देना
| ऋषभ के उपदेश से सुमित्र का आशा को त्याग देना
| यम और गौतम का संवाद
| आपत्ति के समय राजा का धर्म
- आपद्धर्म पर्व
आपत्तिग्रस्त राजा के कर्त्तव्य का वर्णन | ब्राह्मणों और श्रेष्ठ राजाओं के धर्म का वर्णन | धर्म की गति को सूक्ष्म बताना | राजा के लिए कोश संग्रह की आवश्यकता | मर्यादा की स्थापना और अमर्यादित दस्युवृत्ति की निन्दा | बल की महत्ता और पाप से छूटने का प्रायश्रित्त | मर्यादा का पालन करने वाले कायव्य दस्यु की सद्गति का वर्णन | राजा के द्वारा किसका धन लेने व न लेने तथा कैसे बर्ताव करे इसके विचार का वर्णन | शत्रुओं से घिरे राजा के कृर्त्तव्य का वर्णन | राजा के कृर्त्तव्य के विषय में बिडाल व चूहे का आख्यान | शत्रु से सावधान रहने के विषय में राजा ब्रह्मदत्त और पूजनी चिड़िया का संवाद | भारद्वाज कणिक का सौराष्ट्रदेश के राजा को कूटनीति का उपदेश | विश्वामित्र और चाण्डाल का संवाद | आपत्काल में धर्म का निश्चय | उत्तम ब्राह्मणों के सेवन का आदेश | बहेलिये और कपोत-कपोती का प्रसंग | कबूतर द्वारा अपनी भार्या का गुणगान व पतिव्रता स्त्री की प्रशंसा | कबूतरी का कबूतर से शरणागत व्याध की सेवा के लिए प्रार्थना | कबूतर द्वारा अतिथि-सत्कार और अपने शरीर का बहेलिये के लिए परित्याग | बहेलिये का वैराग्य | कबूतरी का विलाप और अग्नि में प्रवेश कर उन दोनों को स्वर्गलोक की प्राप्ति | बहेलिये को स्वर्गलोक की प्राप्ति | इन्द्रोत मुनि का जनमेजय को फटकारना | जनमेजय का इन्द्रोत मुनि की शरण में जाना | इन्द्रोत का जनमेजय को शरण देना | इन्द्रोत का जनमेजय को धर्मोपदेश देना | ब्राह्मण बालक के जीवित होने की कथा | नारद जी का सेमल वृक्ष से प्रश्न | नारद जी का सेमल को उसका अहंकार देखकर फटकारना | वायु का सेमल को धमकाना और सेमल का विचारमग्न होना | सेमल का हार स्वीकार कर बलवान के साथ वैर न करने का उपदेश | समस्त अनर्थो का कारण लोभ को बताकर उसने होने वाले पापों का वर्णन | श्रेष्ठ महापुरुषों के लक्षण | अज्ञान और लोभ को ही समस्त दोषों का कारण सिद्ध करना | मन और इंद्रियों के संयम रूप दम का माहात्म्य | तप की महिमा | सत्य के लक्षण, स्वरूप और महिमा का वर्णन | काम, क्रोध आदि दोषों का निरूपण व नाश का उपाय | नृशंस अर्थात अत्यन्त नीच पुरुष के लक्षण | नाना प्रकार के पापों और प्रायश्रितों का वर्णन | खड्ग की उत्पत्ति और प्राप्ति व महिमा का वर्णन | धर्म, अर्थ और काम के विषय में विदुर व पाण्डवों के पृथक-पृथक विचार | अन्त में युधिष्ठिर का निर्णय | मित्र बनाने व न बनाने योग्य पुरुषों के लक्षण | कृतघ्न गौतम की कथा का आरम्भ | गौतम का समुद्र की ओर प्रस्थान व बकपक्षी के घर पर अतिथि होना | गौतम का आतिथ्यसत्कार व विरूपाक्ष के भवन में प्रवेश | गौतम का राक्षसराज के यहाँ से सुर्वणराशि लेकर लौटना | गौतम का अपने मित्र बक के वध का विचार मन में लाना | कृतघ्न गौतम द्वारा राजधर्मा का वध | राक्षसों द्वार कृतघ्न की हत्या व उसके माँस को अभक्ष्य बताना | राजधर्मा और गौतम का पुन: जीवित होना
- मोक्षधर्म पर्व
शोकाकुल चित्त की शांति के लिए सेनजित और ब्राह्मण संवाद | पिता के प्रति पुत्रद्वारा ज्ञान का उपदेश | त्याग की महिमा के विषय में शम्पाक का उपदेश | धन की तृष्णा से दु:ख का वर्णन | धन के त्याग से परम सुख की प्राप्ति | जनक की उक्ति तथा राजा नहुष के प्रश्नों के उत्तर मे बोध्यगीता | प्रह्लाद और अवधूत का संवाद | आजगर वृत्ति की प्रशंसा का वर्णन | काश्यप ब्राह्मण और इन्द्र का संवाद | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम कर्ता को भोगने का प्रतिपादन | भरद्वाज और भृगु के संवाद में जगत की उत्पत्ति का वर्णन | आकाश से अन्य चार स्थूल भूतों की उत्पत्ति का वर्णन | पंचमहाभूतों के गुणों का विस्तारपूर्वक वर्णन | शरीर के भीतर जठरानल आदि वायुओं की स्थिति का वर्णन | जीव की सत्ता पर अनेक युक्तियों से शंका उपस्थित करना | जीव की सत्ता तथा नित्यता को युक्तियों से सिद्ध करना | मनुष्यों की और समस्त प्राणियों की उत्पत्ति का वर्णन | कर्मो का और सदाचार का वर्णन | वैराग्य से परब्रह्मा की प्राप्ति | सत्य की महिमा, असत्य के दोष व लोक और परलोक के सुख-दु:ख का विवेचन | ब्रह्मचर्य और गार्हस्थ्य आश्रमों के धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास धर्मों का वर्णन | हिमालय के उत्तर में स्थित लोक की विलक्षणता व महत्ता का प्रतिपादन | भृगु और भरद्वाज के संवाद का उपसंहार | शिष्टाचार का फलसहित वर्णन | पाप को छिपाने से हानि और धर्म की प्रशंसा | अध्यात्मज्ञान का निरूपण | ध्यानयोग का वर्णन | जपयज्ञ के विषय में युधिष्ठिर का प्रश्न | जप और ध्यान की महिमा और उसका फल | जापक में दोष आने के कारण उसे नरक की प्राप्ति | जापक के लिए देवलोक भी नरक तुल्य इसके प्रतिपादन का वर्णन | जापक को सावित्री का वरदान | धर्म, यम और काल का आगमन | राजा इक्ष्वाकु और ब्राह्मण का संवाद | सत्य की महिमा तथा जापक की गति का वर्णन | ब्राह्मण और इक्ष्वाकु की उत्तम गति का वर्णन | जापक को मिलने वाले फल की उत्कृष्टता | मनु द्वारा कामनाओं के त्याग एवं ज्ञान की प्रशंसा | परमात्मतत्त्व का निरूपण | आत्मतत्त्व और बुद्धि आदि पदार्थों का विवेचन | साक्षात्कार का उपाय | शरीर, इन्द्रिय और मन-बुद्धि से आत्मा की सत्ता का प्रतिपादन | आत्मा व परमात्मा के साक्षात्कार का उपाय तथा महत्त्व | परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | मनु बृहस्पति संवाद की समाप्ति | श्री कृष्ण से सम्पूर्ण भूतों की उत्पत्ति | श्री कृष्ण की महिमा का कथन | ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन | प्रत्येक दिशा में निवास करने वाले महर्षियों का वर्णन | विष्णु का वराहरूप में प्रकट हो देवताओं की रक्षा और दानवों का विनाश | नारद को अनुस्मृतिस्तोत्र का उपदेश | नारद द्वारा भगवान की स्तुति | श्री कृष्ण सम्बन्धी अध्यात्मतत्तव का वर्णन | संसारचक्र और जीवात्मा की स्थिति का वर्णन | निषिद्ध आचरण के त्याग आदि के परिणाम तथा सत्त्वगुण के सेवन का उपदेश | जीवोत्पत्ति के दोष और बंधनों से मुक्त तथा विषय शक्ति के त्याग का उपदेश | ब्रह्मचर्य तथा वैराग्य से मुक्ति | आसक्ति छोड़कर सनातन ब्रह्म की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने के उपदेश | स्वप्न और सुषुप्ति-अवस्था में मन की स्थिति का वर्णन | गुणातीत ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | सच्चिदान्नदघन परमात्मा, दश्यवर्ग प्रकृति और पुरुष उन चारों के ज्ञान से मुक्ति का वर्णन | परमात्मा प्राप्ति के अन्य साधनों का वर्णन | राजा जनक के दरबार में पञ्चशिख का आगमन | नास्तिक मतों के निराकरणपूर्वक शरीर से भिन्न आत्मा की नित्य सत्ता का प्रतिपादन | पञ्चशिख के द्वारा मोक्षतत्त्व के विवेचन का वर्णन | विष्णु द्वारा मिथिलानरेश जनकवंशी जनदेव की परीक्षा और उनके के लिए वर प्रदान | श्वेतकेतु और सुवर्चला का विवाह | पति-पत्नी का अध्यात्मविषयक संवाद | दम की महिमा का वर्णन | व्रत, तप, उपवास, ब्रह्मचर्य तथा अतिथि सेवा का विवेचन | सनत्कुमार का ऋषियों को भगवत्स्वरूप का उपदेश | इंद्र और प्रह्लाद का संवाद | इन्द्र के आक्षेप युक्त वचनों का बलि के द्वारा कठोर प्रत्युत्तर | बलि और इन्द्र का संवाद | बलि द्वारा इन्द्र को फटकारना | इन्द्र और लक्ष्मी का संवाद | बलि को त्यागकर आयी हुई लक्ष्मी की इन्द्र के द्वारा प्रतिष्ठा | इन्द्र और नमुचि का संवाद | काल और प्रारब्ध की महिमा का वर्णन | लक्ष्मी का दैत्यों को त्यागकर इन्द्र के पास आना | सद्गुणों पर लक्ष्मी का आना व दुर्गुणों पर त्यागकर जाने का वर्णन | जैगीषव्य का असित-देवल को समत्वबुद्धि का उपदेश | श्रीकृष्ण और उग्रसेन का संवाद | शुकदेव के प्रश्नों के उत्तर में व्यास जी द्वारा काल का स्वरूप बताना | व्यास जी का शुकदेव को सृष्टि के उत्पत्ति-क्रम तथा युगधर्मों का उपदेश | ब्राह्मप्रलय एंव महाप्रलय का वर्णन | ब्राह्मणों का कर्तव्य और उन्हें दान देने की महिमा का वर्णन | ब्राह्मण के कर्तव्य का प्रतिपादन करते हुए कालरूप नद को पार करने का उपाय | ध्यान के सहायक योग | फल और सात प्रकार की धारणाओं का वर्णन | मोक्ष की प्राप्ति | सृष्टि के समस्त कार्यों में बुद्धि की प्रधानता | प्राणियों की श्रेष्ठता के तारतम्य का वर्णन | नाना प्रकार के भूतों की समीक्षापूर्वक कर्मतत्त्व का विवेचन | युगधर्म का वर्णन एवं काल का महत्त्व | ज्ञान का साधन और उसकी महिमा | योग से परमात्मा की प्राप्ति का वर्णन | कर्म और ज्ञान का अन्तर | ब्रह्मप्राप्ति के उपाय का वर्णन | ब्रह्मचर्य-आश्रम का वर्णन | गार्हस्थ्य-धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास-आश्रम के धर्म और महिमा का वर्णन | संन्यासी के आचरण | ज्ञानवान संन्यासी का प्रशंसा | परमात्मा की श्रेष्ठता व दर्शन का उपाय | ज्ञानमय उपदेश के पात्र का निर्णय | महाभूतादि तत्त्वों का विवेचन | बुद्धि की श्रेष्ठता और प्रकृति-पुरुष-विवेक | ज्ञान के साधन व ज्ञानी के लक्षण और महिमा | परमात्मा की प्राप्ति का साधन | ज्ञान से ब्रह्म की प्राप्ति | ब्रह्मवेत्ता के लक्षण व परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | शरीर में पंचभूतों के कार्य व गुणों की पहचान | जीवात्मा और परमात्मा का योग द्वारा साक्षात्कार | कामरूपी अद्भुत वृक्ष व शरीर रूपी नगर का वर्णन | मन और बुद्धि के गुणों का विस्तृत वर्णन | युधिष्ठिर का मृत्युविषयक प्रश्न व ब्रह्मा की रोषाग्नि से प्रजा के दग्ध होने का वर्णन | ब्रह्मा के द्वारा रोषाग्नि का उपसंहार व मृत्यु की उत्पत्ति | मृत्यु की तपस्या व प्रजापति की आज्ञा से मृत्यु का प्राणियों के संहार का कार्य स्वीकार करना | धर्माधर्म के स्वरूप का निर्णय | युधिष्ठिर का धर्म की प्रमाणिकता पर संदेह उपस्थित करना | जाजलि की घोर तपस्या व जटाओं में पक्षियों का घोंसला बनाने से उनका अभिमान | आकाशवाणी की प्रेरणा से जाजलि का तुलाधार वैश्य के पास जाना | जाजलि और तुलाधार का धर्म के विषय में संवाद | जाजलि को तुलाधार का आत्मयज्ञविषयक धर्म का उपदेश | जाजलि को पक्षियों का उपदेश | राजा विचख्नु के द्बारा अहिंसा-धर्म की प्रशंसा | महर्षि गौतम और चिरकारी का उपाख्यान | दीर्घकाल तक सोच-विचारकर कार्य करने की प्रशंसा | द्युमत्सेन और सत्यवान का संवाद | अहिंसापूर्वक राज्यशासन की श्रेष्ठता का कथन | स्यूमरश्मि और कपिल का संवाद | प्रवृत्ति एवं निवृत्तिमार्ग के विषय में स्यूमरश्मि व कपिल संवाद | चारों आश्रमों में उत्तम साधनों के द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति का कथन | ब्रह्मण और कुण्डधार मेघ की कथा | यज्ञ में हिंसा की निंदा और अहिंसा की प्रशंसा | धर्म, अधर्म, वैराग्य और मोक्ष के विषय में युधिष्ठिर के प्रश्न | मोक्ष के साधन का वर्णन | नारद और असितदेवल का संवाद | तृष्णा के परित्याग के विषय में माण्डव्य मुनि और जनक का संवाद | पिता और पुत्र का संवाद | हारित मुनि के द्वारा आचरण व धर्मों का वर्णन | ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | ब्रह्म की प्राप्ति के विषय में वृत्र और शुक्र का संवाद | वृत्रासुर को सनत्कुमार का आध्यात्मविषयक उपदेश | भीष्म द्वारा युधिष्ठिर की शंका निवारण | इन्द्र और वृत्रासुर के युद्ध का वर्णन | वृत्रासुर के वध से प्रकट हुई ब्रह्महत्या का ब्रह्मा जी के द्वारा चार स्थानों में विभाजन | शिवजी के द्वारा दक्ष के यज्ञ का भंग | शिवजी के क्रोध से ज्वर की उत्पत्ति व उसके विविध रूप | पार्वती के रोष के निवारण के लिए शिव द्वारा दक्ष-यज्ञ का विध्वंस | महादेव जी का दक्ष को वरदान | स्तोत्र की महिमा | अध्यात्म ज्ञान और उसके फल का वर्णन | समंग द्वारा नारद जी से अपनी शोकहीन स्थिति का वर्णन | नारद जी द्वारा गालव मुनि को श्रेय का उपदेश | अरिष्टनेमि का राजा सगर को मोक्षविषयक उपदेश | उशना का चरित्र | उशना को शुक्र नाम की प्राप्ति | पराशर मुनि का राजा जनक को कल्याण की प्राप्ति के साधन का उपदेश | कर्मफल की अनिवार्यता | कर्मफल से लाभ | धर्मोपार्जित धन की श्रेष्ठता, व अतिथि-सत्कार का महत्त्व | गुरुजनों की सेवा से लाभ | सत्संग की महिमा व धर्मपालन का महत्त्व | ब्राह्मण और शूद्र की जीविका | मनुष्यों में आसुरभाव की उत्पत्ति व शिव के द्वारा उसका निवारण | विषयासक्त मनुष्य का पतन | तपोबल की श्रेष्ठता व दृढ़तापूर्वक स्वधर्मपालन का आदेश | वर्ण विशेष की उत्पत्ति का रहस्य | हिंसारहित धर्म का वर्णन | धर्म व कर्तव्यों का उपदेश | राजा जनक के विविध प्रश्नों का उत्तर | ब्रह्मा को साध्यगणों को उपदेश | योगमार्ग के स्वरूप, साधन, फल और प्रभाव का वर्णन | सांख्ययोग के अनुसार साधन का वर्णन | सांख्ययोग के फल का वर्णन | वसिष्ठ और करालजनक का संवाद | प्रकृति-संसर्ग के कारण जीव का बारंबार जन्म ग्रहण करना | प्रकृति के संसर्ग दोष से जीव का पतन | क्षर-अक्षर एवं प्रकृति-पुरुष के विषय में राजा जनक की शंका | योग और सांख्य के स्वरूप का वर्णन तथा आत्मज्ञान से मुक्ति | विद्या-अविद्या व पुरुष के स्वरूप के उद्गार का वर्णन | वसिष्ठ व जनक संवाद का उपसंहार | जनकवंशी वसुमान को मुनि का धर्मविषयक उपदेश | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश | इन्द्रियों में मन की प्रधानता का प्रतिदान | संहार क्रम का वर्णन | अध्यात्म व अधिभूत वर्णन तथा राजस और तामस के भावों के लक्षण | राजा जनक के प्रश्न | प्रकृति पुरुष का विवेक और उसका फल | योग का वर्णन व उससे परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति | मृत्यु सूचक लक्षण व मृत्यु को जीतने का उपाय | याज्ञयवल्क्य द्वारा सूर्य से वेदज्ञान की प्राप्ति का प्रसंग सुनाना | विश्वावसु को जीवात्मा और परमात्मा की एकता के ज्ञान का उपदेश देना | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश देकर विदा होना | पञ्चशिख और जनक का संवाद | सुलभा का राजा जनक के शरीर में प्रवेश करना | राजा जनक का सुलभा पर दोषारोपण करना | सुलभा का राजा जनक को अज्ञानी बताना | व्यास जी का शुकदेव को धर्मपूर्ण उपदेश देते हुए सावधान करना | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम का वर्णन | शंकर द्वारा व्यास को पुत्रप्राप्ति के लिये वरदान देना | शुकदेव की उत्पति तथा संस्कार का वृतान्त | पिता की आज्ञा से शुकदेव का मिथिला में जाना | शुकदेव का ध्यान में स्थित होना | राजा जनक द्वारा शुकदेव जी का पूजन तथा उनके प्रश्न का समाधान | जनक द्वारा बह्मचर्याश्रम में परमात्मा की प्राप्ति | शुकदेव द्वारा मुक्त पुरुष के लक्षणों का वर्णन | शुकदेव का पिता के पास लौट आना
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