व्रत, नियम, ब्रह्मचर्य, माता-पिता और गुरु आदि की सेवा का महत्त्व

महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 75 में व्रत, नियम, ब्रह्मचर्य, माता-पिता और गुरु आदि की सेवा के महत्त्व का वर्णन हुआ है[1]-

युधिष्ठिर का प्रस्न

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! युधिष्ठिर ने कहा- प्रभु। आपने धर्म का उपदेश करके उसमें मेरा दृढ़ विश्‍वास उत्पन्न कर दिया है। पितामह। अब मैं आप से एक और संदेह पूछ रहा हूं, उसके विषय में मुझे बताइये। महाद्युते। व्रतों का क्या और कैसा फल बताया गया है? नियमों के पालन और स्वाध्याय का भी क्या फल है? दान देने, वेद धारण करने और उन्हें पढ़ाने का क्या फल होता है? यह सब मैं जानना चाहता हूँ। पितामह। संसार में जो प्रतिग्रह नहीं लेता, उसे क्या फल मिलता है? तथा जो वेदों का ज्ञान प्रदान करता है, उसके लिये कौन सा फल देखा गया है। अपने कर्तव्य के पालन में तत्पर रहने वाले शूरवीरों को भी किस फल की प्राप्ति होती है? शौचाचार का तथा ब्रह्मचर्य के पालन का क्या फल बताया गया है? पिता और माता की सेवा से कौन-सा फल प्राप्त होता है? आचार्य एवं गुरु की सेवा से तथा प्राणियों पर अनुग्रह एवं दयाभाव बनाये रखने से किस फल की प्राप्ति होती है। धर्मज्ञ पितामह। यह सब मैं यथावत रूप से जानना चाहता हूँ। इसके लिये मेरे मन में बड़ी उत्कंठा है।

भीष्म द्वारा व्रत एवं नियम का वर्णन

भीष्म जी ने कहा- युधिष्ठिर। जो मनुष्य शास्त्रोक्त विधि से किसी व्रत को आरम्भ करके उसे अखण्ड रूप से निभा देते हैं, उन्हें सनातन लोकों की प्राप्ति होती है। राजन। संसार में नियमों के पालन का फल तो प्रत्यक्ष देखा जाता है। तुमने भी यह नियमों और यज्ञों का ही फल प्राप्त किया है। वेदों के स्वाध्याय का फल भी इहलोक और परलोक में भी देखा जाता है। स्वाध्यायशील द्विज इहलोक और ब्रह्मलोक में भी सदा आनन्द भोगता है। राजन। अब तुम मुझसे विस्तार पूर्वक दम (इन्द्रिय संयम) के फल का वर्णन सुनो। जितेन्द्रिय पुरुष सर्वत्र सुखी और सर्वत्र संतुष्ट रहते हैं। वे जहाँ चाहते हैं वहीं चले जाते हैं और जिस वस्तु की इच्छा करते हैं वही उन्हें प्राप्त हो जाती है। वे सम्पूर्ण शत्रुओं का अन्त कर देेते हैं। इसमें संशय नहीं है।

पाण्डुनन्दन। जितेन्द्रिय पुरुष सर्वत्र सम्पूर्ण मनचाही वस्तुऐं प्राप्त कर लेते हैं। वे अपनी तपस्या, पराक्रम, दान तथा नाना प्रकार के यज्ञों से स्वर्गलोक में आनन्द भोगते हैं। इन्द्रियों का दमन करने वाले पुरुष क्षमाशील होते हैं। दान से दम का स्थान ऊंचा होता है। दानी पुरुष ब्राह्मण को कुछ दान करते समय कभी क्रोध भी कर सकता है; परंतु दमनशील या जितेन्द्रिय पुरुष कभी क्रोध नहीं करता; इसलिये दम (इन्द्रिय संयम) दान से श्रेष्ठ है। जो दाता बिना क्रोध किये दान करता है उसे सनातन (नित्य) लोक प्राप्त होते हैं। दान करते समय यदि क्रोध आ जाये तो वह दान के फल को नष्ट कर देता है; इसलिये उस क्रोध को दबाने वाला जो दमनामक गुण है, वह दान से श्रेष्ठ माना गया है। महाराज। नरेश्‍वर। सम्पूर्ण लोकों में निवास करने वाले ऋषियों के स्वर्ग में सहस्रों अदृश्‍य स्थान हैं, जिनमें दम के पालन द्वारा महान लोकों की इच्छा रखने वाले महर्षि और देवता इस लोक से जाते हैं; अतः ‘दम’ दान से श्रेष्ठ है। नरेन्द्र। शिष्‍यों का वेद पढ़ाने वाला अध्यापक क्लेश सहन करने के कारण अक्षय फल का भागी होता है। अग्नि में विधि पूर्वक हवन करके ब्राह्मण ब्रह्मलोक में प्रतिष्ठित होता है।

ब्रह्मचर्य, माता-पिता और गुरु आदि की सेवा के महत्त्व का वर्णन

जो वेदों का अध्ययन करके न्याय परायण शिष्‍यों को विद्या दान करता है तथा गुरु के कर्मों की प्रशंसा करने वाला है, वह भी स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होता है। वेदाध्ययन, यज्ञ और दान कर्म में तत्पर रहने वाला तथा युद्ध में दूसरों की रक्षा करने वाला क्षत्रिय भी स्वर्ग लोक में पूजित होता है। अपने कर्मों में लगा हुआ वैश्य दान देने से महत-पद को प्राप्त होता है। अपने कर्म में तत्पर रहने वाला शूद्र सेवा करने से स्वर्गलोक में जाता है। शूरवीरों के अनेक भेद वताये गये हैं। उन सबके तात्यपर्य मुझसे सुनो। उन शूरों के वंश जों तथा शूरों के लिये जो फल बताया गया है, उसे बता रहा हूँ। कुछ लोक यज्ञशूर हैं कुछ इन्द्रिय संयम में शूर होन के कारण दमशूर कहलाते हैं। इसी प्रकार कितने ही मान सत्यशूर, युद्वशूर, दानशूर, वुद्विशूर तथ क्षमाशूर कहे गये हैं। बहुत से मनुष्य सांक्ष्यशूर, योगशूर, वनवासशूर, गृहवासशूर तथा त्यागशूर हैं। कितने मानव सरलता दिखाने में शूरवीर हैं। बहुत सम (मनोनिग्रह) में ही शूरता प्रकट करते हैं। विभिन्न नियमों द्वारा अपना शौर्य सूचित करने वाले भी बहुत से शूरवीर हैं। कितने ही वेदाध्ययनशूर, अध्यापनशूर, गुरुषुश्रुषाशूर, पितृसेवाशूर, मात्रसेवाशूर तथा भिक्षाशूर हैं। कुछ लोग वनवास में, कुछ गृहवास में और कुछ लोग अतिथियों की सेवा-पूजा में शूरवीर होते हैं। ये सब-के-सब अपने कर्म फलों द्वारा उपार्जित उत्तम लोकों में जाते हैं। सम्पूर्ण वेदों का धारण करना और समस्त तीर्थों में स्नान करना- इन सतकर्मों का पुण्य सदा सत्य बोलने वाले पुरुष के पुण्य के बरावर हो सकता है या नहीं; इसमें संदेह है। अर्थात इनसे सत्य श्रेष्ठ है। यदि तराजू के एक पलड़े पर एक हजार अश्‍वमेध यज्ञों का पुण्य और दूसरे पलड़े पर केवल सत्य रखा जाये तो एक सहस्र अध्वमेध यज्ञों की अपेक्ष सत्य का ही पलड़ा भारी होगा। सत्य के प्रभाव से सूर्य तपते हैं, सत्य से अग्नि प्रज्वलित होती है और सत्य से ही वायु का सर्वत्र संचार होता है; क्योंकि सब कुछ सत्य पर ही टिका हुआ है।

देवता, पितर और ब्राह्मण सत्य से ही प्रसन्न होते हैं। सत्य को ही परम धर्म बताया गया है, अतः सत्य का ही कभी उल्लंघन नहीं करना चाहिये। ऋषि-मुनि सत्य परायण एवं सत्य पराक्रमी और सत्य प्रतिज्ञ होते हैं। इसलिये सत्य सबसे श्रेष्ठ है। भरतश्रेष्ठ। सत्य बोलने वाले मनुष्य स्वर्गलोक में आनन्द भोगते हैं किंतु इन्द्रिय संयम- दम उस सत्य के फल की प्राप्ति कारण है। यह बात मैंने सम्पूर्ण हृदय से कही है। जिसने अपने मन को वश में करके विनयशील बना दिया है, वह निश्‍चय ही स्वर्गलोक में सम्मानित होता है। पृथ्वीनाथ। अव तुम ब्रह्मचर्य के गुणों का वर्णन सुनो। नरेश्‍वर। जो जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त यहाँ ब्रह्मचारी ही रह जाता है, उसके लिये कुछ भी अलभ्य नहीं है, इस बात को जान लो। ब्रह्मलोक में ऐसे करोड़ों ऋषि निवास करते हैं, जो इस लोक में सत्यवादी जितेन्द्रिय और उर्ध्‍वरेता (नैष्ठिक ब्रह्मचारी) रहे हैं। राजन यदि ब्राह्मण विशेष रूप से ब्रह्मचर्य का पालन करे तो वह सम्पूर्ण पापों को भस्‍म कर डालता है; क्यांकि ब्रह्मचारी ब्राह्मण अग्नि स्वरूप कहा जाता है। तपस्वी ब्राह्मणों में यह बात प्रत्यक्ष देखी जाती है; क्योंकि ब्रह्मचारी के आक्रमण करने पर साक्षात इन्द्र भी डरते हैं। ब्रह्मचर्य का वह फल यहाँ ऋषियों में दृष्टिगोचर होता है। अब तुम माता-पिता आदि के पूजन से जो धर्म होता है, उसके विषय में भी मुझसे सुनो। राजन। जो माता-पिता बड़े भाई, गुरु और आचार्य की सेवा करता है और कभी उनके गुणों में दोष दृष्टि नहीं करता है, उसको मिलने वाले फल को जान लो। उसे स्वर्गलोक में सर्व सम्मानित स्थान प्राप्त होता है। मन को वश में रखने वाला वह पुरुष गुरुषुश्रुषा के प्रभाव से कभी नरक का दर्शन नहीं करता।[2]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 75 श्लोक 1-18
  2. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 75 श्लोक 19-41

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दान-धर्म-पर्व
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शाप | तारकासुर के भय से देवताओं का ब्रह्मा की शरण में जाना | ब्रह्मा का देवताओं को आश्वासन | देवताओं द्वारा अग्नि की खोज | गंगा का शिवतेज को धारण करना और फिर मेरुपर्वत पर छोड़ना | कार्तिकेय और सुवर्ण की उत्पत्ति | महादेव के यज्ञ में अग्नि से प्रजापतियों और सुवर्ण की उत्पत्ति | कार्तिकेय की उत्पत्ति और उनका पालन-पोषण | कार्तिकेय का देवसेनापति पद पर अभिषेक और तारकासुर का वध | विविध तिथियों में श्राद्ध करने का फल | श्राद्ध में पितरों के तृप्ति विषय का वर्णन | विभिन्न नक्षत्रों में श्राद्ध करने का फल | पंक्तिदूषक ब्राह्मणों का वर्णन | पंक्तिपावन ब्राह्मणों का वर्णन | श्राद्ध में मूर्ख ब्राह्मण की अपेक्षा वेदवेत्ता को भोजन कराने की श्रेष्ठता | निमि का पुत्र के निमित्त पिण्डदान | श्राद्ध के विषय में निमि को अत्रि का उपदेश | विश्वेदेवों के नाम तथा श्राद्ध में त्याज्य वस्तुओं का वर्णन | पितर और देवताओं का श्राद्धान्न से अजीर्ण होकर ब्रह्मा के पास जाना | श्राद्ध से तृप्त हुए पितरों का आशीर्वाद | भीष्म का युधिष्ठिर को गृहस्थ के धर्मों का रहस्य बताना | वृषादर्भि तथा सप्तर्षियों की कथा | 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आचार्य आदि गुरुजनों के गौरव का वर्णन | मास, पक्ष एवं तिथि सम्बंधी विभिन्न व्रतोपवास के फल का वर्णन | दरिद्रों के लिए यज्ञतुल्य फल देने वाले उपवास-व्रत तथा उसके फल का वर्णन | मानस तथा पार्थिव तीर्थ की महत्ता | द्वादशी तिथि को उपवास तथा विष्णु की पूजा का माहात्म्य | मार्गशीर्ष मास में चन्द्र व्रत करने का प्रतिपादन | बृहस्पति और युधिष्ठिर का संवाद | विभिन्न पापों के फलस्वरूप नरकादि की प्राप्ति एवं तिर्यग्योनियों में जन्म लेने का वर्णन | पाप से छूटने के उपाय तथा अन्नदान की विशेष महिमा | बृहस्पति का युधिष्ठिर को अहिंसा एवं धर्म की महिमा बताना | हिंसा और मांसभक्षण की घोर निन्दा | मद्य और मांस भक्षण के दोष तथा उनके त्याग की महिमा | मांस न खाने से लाभ तथा अहिंसाधर्म की प्रशंसा | द्वैपायन व्यास और एक कीड़े का वृत्तान्त | कीड़े का क्षत्रिय योनि में जन्म तथा व्यासजी का दर्शन | कीड़े का ब्राह्मण योनि में जन्म तथा सनातनब्रह्म की प्राप्ति | दान की प्रशंसा और कर्म का रहस्य | विद्वान एवं सदाचारी ब्राह्मण को अन्नदान की प्रशंसा | तप की प्रशंसा तथा गृहस्थ के उत्तम कर्तव्य का निर्देश | पतिव्रता स्त्रियों के कर्तव्य का वर्णन | नारद का पुण्डरीक को भगवान नारायण की आराधना का उपदेश | ब्राह्मण और राक्षस का सामगुण विषयक वृत्तान्त | श्राद्ध के विषय में देवदूत और पितरों का संवाद | पापों से छूटने के विषय में महर्षि विद्युत्प्रभ और इन्द्र का संवाद | धर्म के विषय में इन्द्र और बृहस्पति का संवाद | वृषोत्सर्ग आदि के विषय में देवताओं, ऋषियों और पितरों का संवाद | विष्णु, देवगण, विश्वामित्र और ब्रह्मा आदि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | अग्नि, लक्ष्मी, अंगिरा, गार्ग्य, धौम्य तथा जमदग्नि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | वायु द्वारा धर्माधर्म के रहस्य का वर्णन | लोमश द्वारा धर्म के रहस्य का वर्णन | अरुन्धती, धर्मराज और चित्रगुप्त द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | प्रमथगणों द्वारा धर्माधर्म सम्बन्धी रहस्य का कथन | दिग्गजों का धर्म सम्बन्धी रहस्य एवं प्रभाव | महादेव जी का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | स्कन्ददेव का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | भगवान विष्णु और भीष्म द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्यों के माहात्म्य का वर्णन | जिनका अन्न ग्रहण करने योग्य है और जिनका ग्रहण करने योग्य नहीं है, उन मनुष्यों का वर्णन | दान लेने और अनुचित भोजन करने का प्रायश्चित | दान से स्वर्गलोक में जाने वाले राजाओं का वर्णन | पाँच प्रकार के दानों का वर्णन | तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना | ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना | नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन | शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना | शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना | वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार | प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण | वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा | ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का वर्णन | बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन | स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन | उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन | मनुष्य को बुद्धिमान, मन्दबुद्धि तथा नपुंसक बनाने वाले कर्मों का वर्णन | राजधर्म का वर्णन | योद्धाओं के धर्म का वर्णन | रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा | संक्षेप से राजधर्म का वर्णन | अहिंसा और इन्द्रिय संयम की प्रशंसा | दैव की प्रधानता | त्रिवर्ग का निरूपण | कल्याणकारी आचार-व्यवहार का वर्णन | विविध प्रकार के कर्मफलों का वर्णन | अन्धत्व और पंगुत्व आदि दोषों और रोगों के कारणभूत दुष्कर्मों का वर्णन | उमा-महेश्वर संवाद में महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन | प्राणियों के चार भेदों का निरूपण | पूर्वजन्म की स्मृति का रहस्य | मरकर फिर लौटने में कारण स्वप्नदर्शन | दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन | यमलोक तथा वहाँ के मार्गों का वर्णन | पापियों की नरकयातनाओं का वर्णन | कर्मानुसार विभिन्न योनियों में पापियों के जन्म का उल्लेख | शुभाशुभ आदि तीन प्रकार के कर्मों का स्वरूप और उनके फल का वर्णन | मद्यसेवन के दोषों का वर्णन | पुण्य के विधान का वर्णन | व्रत धारण करने से शुभ फल की प्राप्ति | शौचाचार का वर्णन | आहार शुद्धि का वर्णन | मांसभक्षण से दोष तथा मांस न खाने से लाभ | गुरुपूजा का महत्त्व | उपवास की विधि | तीर्थस्थान की विधि | सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य | अन्न, सुवर्ण और गौदान का माहात्म्य | भूमिदान के महत्त्व का वर्णन | कन्या और विद्यादान का माहात्म्य | तिल का दान और उसके फल का माहात्म्य | नाना प्रकार के दानों का फल | लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताओं की पूजा का निरूपण | श्राद्धविधान आदि का वर्णन | दान के पाँच फल | अशुभदान से भी शुभ फल की प्राप्ति | नाना प्रकार के धर्म और उनके फलों का प्रतिपादन | शुभ और अशुभ गति का निश्चय कराने वाले लक्षणों का वर्णन | मृत्यु के भेद | कर्तव्यपालनपूर्वक शरीरत्याग का महान फल | काम, क्रोध आदि द्वारा देहत्याग करने से नरक की प्राप्ति | मोक्षधर्म की श्रेष्ठता का प्रतिपादन | मोक्षसाधक ज्ञान की प्राप्ति का उपाय | मोक्ष की प्राप्ति में वैराग्य की प्रधानता | सांख्यज्ञान का प्रतिपादन | अव्यक्तादि चौबीस तत्त्वों की उत्पत्ति आदि का वर्णन | योगधर्म का प्रतिपादनपूर्वक उसके फल का वर्णन | पाशुपत योग का वर्णन | शिवलिंग-पूजन का माहात्म्य | पार्वती के द्वारा स्त्री-धर्म का वर्णन | वंश परम्परा का कथन और श्रीकृष्ण के माहात्म्य का वर्णन | श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन और भीष्म का युधिष्ठिर को राज्य करने का आदेश | श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम् | जपने योग्य मंत्र और सबेरे-शाम कीर्तन करने योग्य देवता | ऋषियों और राजाओं के मंगलमय नामों का कीर्तन-माहात्म्य | गायत्री मंत्र का फल | ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन | कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन | ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद | वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन | ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन | ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन | अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन | कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार | ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना | भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन | श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना | श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना | श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता | भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन | साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण | युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना | भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना | नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य | भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन | भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना | भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना | भीष्म का प्राणत्याग | धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार | गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना

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