व्यास का युधिष्ठिर से संवर्त और मरुत्त का प्रसंग कहना

महाभारत आश्वमेधिक पर्व के अश्वमेधिक पर्व के अंतर्गत अध्याय 3 में व्यास का युधिष्ठिर से संवर्त और मरुत्त का प्रसंग कहने का वर्णन हुआ है।[1]

व्यास का संवाद

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! व्यास जी ने कहा- युधिष्ठिर! मुझे तो ऐसा जान पड़ता है कि तुम्हारी बुद्धि ठीक नहीं है। कोई भी मनुष्य स्वाधीन होकर अपने-आप कोई काम नहीं करता है। यह मनुष्य अथवा पुरुष समुदाय ईश्वर से प्रेरित होकर ही भले-बुरे काम करता है।[2] अत: इसके लिये शोक करने की क्या आवश्यकता है? भरत नन्दन! यदि तुम अन्ततोगत्वा अपने-आप को ही युद्धरूपी पाप कर्म का प्रधान मानते हो तो वह पाप जिस प्रकार नष्ट हो सकता है, वह उपाय बताता हूँ, सुनो।

संवर्त और मरुत्त का प्रसंग का वर्णन

युधिष्ठिर! जो लोग पाप करते हैं, वे तप, यज्ञ और दान के द्वारा ही सदा अपना उद्धार करते हैं। नरेश्वर! पुरुषसिंह! पापाचारी मनुष्य यज्ञ, दान और तपस्या से ही पवित्र होते हैं। महामना देवता और दैत्य पुण्य के लिये यज्ञ करने का ही प्रयत्न करते हैं, अत: यज्ञ परम आश्रय है। यज्ञों द्वारा ही महामनस्वी देवताओं का महत्त्व अधिक हुआ है और यज्ञों से ही क्रियानिष्ठ देवताओं ने दानवों को परास्त किया है। भरतवंशी नरेश युधिष्ठिर! तुम राजसूय, अश्वमेध, सर्वधर्म और नरमेध यज्ञ करो। विधिवत दक्षिणा देकर बहुत से मनोवांछित पदार्थ, अन्न और धन से सम्पन्न अश्वमेध यज्ञ के द्वारा दशरथनन्दन श्री राम की भाँति यजन करो। तथा तुम्हारे पूर्व पितामह महापराक्रमी दुष्यन्त कुमार शकुन्तलानन्दन पृथ्वी पति राजा भरत ने जैसे यज्ञ किया था, उसी प्रकार तुम भी करो।

युधिष्ठिर का संवाद

युधिष्ठिर ने कहा- विप्रवर! इसमें संदेह नहीं कि अश्वमेध यज्ञ सारी पृथ्वी को भी पवित्र कर सकता है, किन्तु इसके विषय में मेरा अभिप्राय है, उसे आप यहाँ सुन लें। द्विजश्रेष्ठ! अपने जाति-भाइयों का यह महान संहार करके अब मुझ में थोड़ा-सा भी दान देने की शक्ति नहीं रह गयी है; क्योंकि मेरे पास धन नहीं है। यहाँ जो राजकुमार उपस्थित हैं, ये सब-के-सब बालक और दीन हैं, महान संकट में पड़े हुए हैं और इनके शरीर का घाव भी अभी सूखने नहीं पाया है; अत: इन सबसे मैं धन की याचना नहीं कर सकता। द्विजश्रेष्ठ! स्वयं ही सारी पृथ्वी का विनाश कराकर शोकमग्न हुआ मैं इनसे यज्ञ के लिये कर किस तरह वसूल करूँगा। मुनिश्रेष्ठ! दुर्योधन के अपराध से यह पृथ्वी और अधिकांश राजा हम लोगों के माथे अपयश का टीका लगाकर नष्ट हो गये। दुर्योधन ने धन के लोभ से समस्त भूमण्डल का संहार कराय; किन्तु धन मिलना तो दूर रहा, उस दुर्बुद्धि का अपना खजाना भी ख़ाली हो गया। अश्वमेध यज्ञ में समूची पृथ्वी का दक्षिणा देनी चाहिये। यहीं विद्वानों ने मुख्य कल्प माना है। इसके सिवा जो कुछ किया जाता है, वह विधि के विपरीत है। तपोधन! मुख्य वस्तु के अभाव में जो दूसरी कोई वस्तु दी जाती है, वह प्रतिनिधि दक्षिणा कहलाती है; किन्तु प्रतिनिधि दक्षिणा देने की मेरी इच्छा नहीं होती; अत: भगवान! इस विषय में आप मुझे उचित सलाह देने की कृपा करें।[1]

कुन्तीकुमार युधिष्ठिर के इस प्रकार कहने पर श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास ने दो घड़ी तक सोच-विचाकर धर्मराज से कहा- ‘पार्थ! यद्यपि तुम्हारा खजाना इस समय ख़ाली हो गया है तथापि वह बहुत शीघ्र भर जाएगा। हिमालय पर्वत पर महात्मा मरुत्त के यज्ञ में ब्राह्मणों ने जो धन छोड़ दिया था, वह वहीं पड़ा हुआ है। कुन्तीकुमार! उसे ले आओ। वह तुम्हारे लिये पर्याप्त होगा। युधिष्ठिर ने कहा- वक्ताओं में श्रेष्ठ महर्षे! मरुत्त के यज्ञ में इतने धन का संग्रह किस प्रकार किया गया था तथा वे महाराज मरुत्त किस समय इस पृथ्वी पर प्रकट हुए थे। व्यास जी ने कहा- पार्थ! यदि तुम सुनना चाहते हो तो करन्धम के पौत्र मरुत्त का वृत्तान्त सुनो। वे महाधनी और महापराक्रमी राजा किस काल में इस पृथ्वी पर प्रकट हुए थे, यह बता रहा हूँ।[3]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 3 श्लोक 1-18
  2. यह कथन युधिष्ठिर को सांत्वना देने के लिये गौणरूप में इस दृष्टि से है कि मरने वालों की मृत्यु उनके प्रारब्ध कर्मानुसार अवश्यमभावाी थी; अत: जो कुछ हुआ है, ईश्वर प्रेरणा के ही अनुसार हुआ है।
  3. महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 3 श्लोक 19-23

संबंधित लेख

महाभारत आश्वमेधिक पर्व में उल्लेखित कथाएँ


अश्वमेध पर्व
युधिष्ठिर का शोकमग्न होकर गिरना और धृतराष्ट्र का उन्हें समझाना | श्रीकृष्ण और व्यास का युधिष्ठिर को समझाना | व्यास का युधिष्ठिर से संवर्त और मरुत्त का प्रसंग कहना | व्यास द्वारा मरुत्त के पूर्वजों का वर्णन | बृहस्पति का मनुष्य को यज्ञ न कराने की प्रतिज्ञा करना | नारद की आज्ञा से मरुत्त की संवर्त से भेंट | मरुत्त के आग्रह पर संवर्त का यज्ञ कराने की स्वीकृति देना | संवर्त का मरुत्त को सुवर्ण की प्राप्ति के लिए महादेव की नाममयी स्तुति का उपदेश | मरुत्त की सम्पत्ति से बृहस्पति का चिन्तित होना | बृहस्पति का इन्द्र से अपनी चिन्ता का कारण बताना | इन्द्र की आज्ञा से अग्निदेव का मरुत्त के पास संदेश लेकर जाना | अग्निदेव का संवर्त के भय से लौटना और इन्द्र से ब्रह्मबल की श्रेष्ठता बताना | इन्द्र का गन्धर्वराज को भेजकर मरुत्त को भय दिखाना | संवर्त का मन्त्रबल से देवताओं को बुलाना और मरुत्त का यज्ञ पूर्ण करना | श्रीकृष्ण का युधिष्ठिर को इन्द्र द्वारा शरीरस्थ वृत्रासुर संहार का इतिहास सुनाना | श्रीकृष्ण का युधिष्ठिर को मन पर विजय पाने का आदेश | श्रीकृष्ण द्वारा ममता के त्याग का महत्त्व | श्रीकृष्ण द्वारा कामगीता का उल्लेख तथा युधिष्ठिर को यज्ञ हेतु प्रेरणा | युधिष्ठिर द्वारा ऋषियों की विदाई और हस्तिनापुर में प्रवेश | युधिष्ठिर के धर्मराज्य का वर्णन | श्रीकृष्ण का अर्जुन से द्वारका जाने का प्रस्ताव
अनुगीता पर्व
अर्जुन का श्रीकृष्ण से गीता का विषय पूछना | श्रीकृष्ण का अर्जुन से सिद्ध, महर्षि तथा काश्यप का संवाद सुनाना | सिद्ध महात्मा द्वारा जीव की विविध गतियों का वर्णन | जीव के गर्भ-प्रवेश का वर्णन | आचार-धर्म, कर्म-फल की अनिवार्यता का वर्णन | संसार से तरने के उपाय का वर्णन | गुरु-शिष्य के संवाद में मोक्ष प्राप्ति के उपाय का वर्णन | ब्राह्मणगीता, एक ब्राह्मण का पत्नी से ज्ञानयज्ञ का उपदेश करना | दस होताओं से सम्पन्न होने वाले यज्ञ का वर्णन | मन और वाणी की श्रेष्ठता का प्रतिपादन | मन-बुद्धि और इन्द्रियरूप सप्त होताओं का वर्णन | यज्ञ तथा मन-इन्द्रिय संवाद का वर्णन | प्राण, अपान आदि का संवाद और ब्रह्मा का सबकी श्रेष्ठता बताना | नारद और देवमत का संवाद एवं उदान के उत्कृष्ट रूप का वर्णन | चातुर्होम यज्ञ का वर्णन | अन्तर्यामी की प्रधानता | अध्यात्म विषयक महान वन का वर्णन | ज्ञानी पुरुष की स्थिति तथा अध्वर्यु और यति का संवाद | परशुराम के द्वारा क्षत्रिय कुल का संहार | अलर्क के ध्यानयोग का उदाहरण देकर पितामहों का परशुराम को समझाना | परशुराम का तपस्या के द्वारा सिद्धि प्राप्त करना | राजा अम्बरीष की गायी हुई आध्यात्मिक स्वराज्यविषयक गाथा | ब्राह्मणरूपधारी धर्म और जनक का ममत्वत्याग विषयक संवाद | ब्राह्मण का पत्नी के प्रति अपने ज्ञाननिष्ठ स्वरूप का परिचय देना | श्रीकृष्ण द्वारा ब्राह्मणगीता का उपसंहार | गुरु-शिष्य संवाद में ब्रह्मा और महर्षियों के प्रश्नोत्तर | ब्रह्मा के द्वारा तमोगुण, उसके कार्य और फल का वर्णन | रजोगुण के कार्य का वर्णन और उसके जानने का फल | सत्त्वगुण के कार्य का वर्णन और उसके जानने का फल | सत्त्व आदि गुणों का और प्रकृति के नामों का वर्णन | महत्तत्त्व के नाम और परमात्मतत्त्व को जानने की महिमा | अहंकार की उत्पत्ति और उसके स्वरूप का वर्णन | अहंकार से पंच महाभूतों और इन्द्रियों की सृष्टि | अध्यात्म, अधिभूत और अधिदैवत का वर्णन | निवृत्तिमार्ग का उपदेश | चराचर प्राणियों के अधिपतियों का वर्णन | धर्म आदि के लक्षणों का और विषयों की अनुभूति के साधनों का वर्णन | क्षेत्रज की विलक्षणता | सब पदार्थों के आदि-अन्त का और ज्ञान की नित्यता का वर्णन | देहरूपी कालचक्र का तथा गृहस्थ और ब्राह्मण के धर्म का कथन | ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी और संन्यासी के धर्म का वर्णन | मुक्ति के साधनों का, देहरूपी वृक्ष का तथा ज्ञान-खंग से उसे काटने का वर्णन | आत्मा और परमात्मा के स्वरूप का विवेचन | धर्म का निर्णय जानने के लिए ऋषियों का प्रश्न | ब्रह्मा द्वारा सत्त्व और पुरुष की भिन्नता का वर्णन | ब्रह्मा द्वारा बुद्धिमान की प्रशंसा | पंचभूतों के गुणों का विस्तार और परमात्मा की श्रेष्ठता का वर्णन | तपस्या का प्रभाव | आत्मा का स्वरूप और उसके ज्ञान की महिमा | अनुगीता का उपसंहार | श्रीकृष्ण का अर्जुन के साथ हस्तिनापुर जाना | श्रीकृष्ण का सुभद्रा के साथ द्वारका को प्रस्थान | कौरवों के विनाश से उत्तंक मुनि का कुपित होना | श्रीकृष्ण का क्रोधित उत्तंक मुनि को शांत करना | श्रीकृष्ण का उत्तंक से अध्यात्मतत्त्व का वर्णन | श्रीकृष्ण का उत्तंक मुनि को कौरवों के विनाश का कारण बताना | श्रीकृष्ण का उत्तंक मुनि को विश्वस्वरूप का दर्शन कराना | श्रीकृष्ण द्वारा उत्तंक मुनि को मरुदेश में जल प्राप्ति का वरदान | उत्तंक की गुरुभक्ति का वर्णन | उत्तंक का गुरुपुत्री के साथ विवाह | उत्तंक का दिव्यकुण्डल लाने के लिए सौदास के पास जाना | उत्तंक का सौदास से उनकी रानी के कुण्डल माँगना | उत्तंक का कुण्डल हेतु रानी मदयन्ती के पास जाना | उत्तंक का कुण्डल लेकर पुन: सौदास के पास लौटना | तक्षक द्वारा कुण्डलों का अपहरण | उत्तंक को पुन: कुण्डलों की प्राप्ति | श्रीकृष्ण का द्वारका में रैवतक महोत्सव में सम्मिलित होकर सबसे मिलना | श्रीकृष्ण का वसुदेव को महाभारत युद्ध का वृत्तान्त संक्षेप में सुनाना | श्रीकृष्ण का वसुदेव को अभिमन्यु वध का वृत्तांत सुनाना | वसुदेव आदि यादवों का अभिमन्यु के निमित्त श्राद्ध करना | व्यास का उत्तरा और अर्जुन को समझाकर युधिष्ठिर को अश्वमेध यज्ञ की आज्ञा देना | युधिष्ठिर का भाइयों से परामर्श तथा धन लाने हेतु प्रस्थान | पांडवों का हिमालय पर पड़ाव और उपवासपूर्वक रात्रि निवास | शिव आदि का पूजन करके युधिष्ठिर का धनराशि को ले जाना | उत्तरा के मृत बालक को जिलाने के लिए कुन्ती की श्रीकृष्ण से प्रार्थना | परीक्षित को जिलाने के लिए सुभद्रा की श्रीकृष्ण से प्रार्थना | उत्तरा की श्रीकृष्ण से पुत्र को जीवित करने की प्रार्थना | श्रीकृष्ण का उत्तरा के मृत बालक को जीवन दान देना | श्रीकृष्ण द्वारा परीक्षित का नामकरण तथा पाण्डवों का हस्तिनापुर आगमन | श्रीकृष्ण द्वारा पांडवों का स्वागत | व्यास तथा श्रीकृष्ण का युधिष्ठिर को यज्ञ के लिए आज्ञा देना | व्यास की आज्ञा से अश्व की रक्षा हेतु अर्जुन की नियुक्ति | व्यास द्वारा भीम, नकुल तथा सहदेव की विभिन्न कार्यों हेतु नियुक्ति | सेना सहित अर्जुन के द्वारा अश्व का अनुसरण | अर्जुन के द्वारा त्रिगर्तों की पराजय | अर्जुन का प्राग्ज्यौतिषपुर के राजा वज्रदत्त के साथ युद्ध | अर्जुन के द्वारा वज्रदत्त की पराजय | अर्जुन का सैन्धवों के साथ युद्ध | दु:शला के अनुरोध से अर्जुन और सैन्धवों के युद्ध की समाप्ति | अर्जुन और बभ्रुवाहन का युद्ध एवं अर्जुन की मृत्यु | अर्जुन की मृत्यु से चित्रांगदा का विलाप | अर्जुन की मृत्यु पर बभ्रुवाहन का शोकोद्गार | उलूपी का संजीवनी मणि द्वारा अर्जुन को पुन: जीवित करना | उलूपी द्वारा अर्जुन की पराजय का रहस्य बताना | अर्जुन का पुत्र और पत्नी से विदा लेकर पुन: अश्व के पीछे जाना | अर्जुन द्वारा मगधराज मेघसन्धि की पराजय | अश्व का द्वारका, पंचनद तथा गांधार देश में प्रवेश | अर्जुन द्वारा शकुनिपुत्र की पराजय | युधिष्ठिर की आज्ञा से यज्ञभूमि की तैयारी | युधिष्ठिर के यज्ञ की सजावट और आयोजन | श्रीकृष्ण का युधिष्ठिर से अर्जुन का संदेश कहना | अर्जुन के विषय में श्रीकृष्ण और युधिष्ठिर की बातचीत | अर्जुन का हस्तिनापुर आगमन | उलूपी और चित्रांगदा सहित बभ्रुवाहन का स्वागत | अश्वमेध यज्ञ का आरम्भ | युधिष्ठिर का ब्राह्मणों और राजाओं को विदा करना | युधिष्ठिर के यज्ञ में नेवले का आगमन | नेवले का सेरभर सत्तूदान को अश्वमेध यज्ञ से बढ़कर बताना | हिंसामिश्रित यज्ञ और धर्म की निन्दा | महर्षि अगस्त्य के यज्ञ की कथा
वैष्णवधर्म पर्व
युधिष्ठिर का श्रीकृष्ण से वैष्णवधर्म विषयक प्रश्न | श्रीकृष्ण द्वारा धर्म का तथा अपनी महिमा का वर्णन | चारों वर्णों के कर्म और उनके फलों का वर्णन | धर्म की वृद्धि और पाप के क्षय होने का उपाय | व्यर्थ जन्म, दान और जीवन का वर्णन | सात्त्विक दानों का लक्षण | दान का योग्य पात्र | ब्राह्मण की महिमा | बीज और योनि की शुद्धि का वर्णन | गायत्री मन्त्र जप की महिमा का वर्णन | ब्राह्मणों की महिमा और उनके तिरस्कार के भयानक फल का वर्णन | यमलोक के मार्ग का कष्ट | यमलोक के मार्ग-कष्ट से बचने के उपाय | जल दान और अन्न दान का माहात्म्य | अतिथि सत्कार का महात्म्य | भूमि दान की महिमा | तिल दान की महिमा | उत्तम ब्राह्मण की महिमा | अनेक प्रकार के दानों की महिमा | पंचमहायज्ञ का वर्णन | विधिवत स्नान और उसके अंगभूत कर्म का वर्णन | भगवान के प्रिय पुष्पों का वर्णन | भगवान के भगवद्भक्तों का वर्णन | कपिला गौ तथा उसके दान का माहात्म्य | कपिला गौ के दस भेद | कपिला गौ का माहात्म्य | कपिला गौ में देवताओं के निवासस्थान का वर्णन | यज्ञ और श्राद्ध के अयोग्य ब्राह्मणों का वर्णन | नरक में ले जाने वाले पापों का वर्णन | स्वर्ग में ले जाने वाले पुण्यों का वर्णन | ब्रह्महत्या के समान पाप का वर्णन | जिनका अन्न वर्जनीय है, उन पापियों का वर्णन | दान के फल और धर्म की प्रशंसा का वर्णन | धर्म और शौच के लक्षण | संन्यासी और अतिथि सत्कार के उपदेश | दानपात्र ब्राह्मण का वर्णन | अन्नदान की प्रशंसा | भोजन की विधि | गौओं को घास डालने का विधान | तिल का माहात्म्य | आपद्धर्म, श्रेष्ठ और निन्द्य ब्राह्मण | श्राद्ध का उत्तम काल | मानव धर्म-सार का वर्णन | अग्नि के स्वरूप में अग्निहोत्र की विधि | अग्निहोत्र के माहात्म्य का वर्णन | चान्द्रायण व्रत की विधि | प्रायश्चितरूप में चान्द्रायण व्रत का विधान | सर्वहितकारी धर्म का वर्णन | द्वादशी व्रत का माहात्म्य | युधिष्ठिर के द्वारा भगवान की स्तुति | विषुवयोग और ग्रहण आदि में दान की महिमा | पीपल का महत्त्व | तीर्थभूत गुणों की प्रशंसा | उत्तम प्रायश्चित | उत्तम और अधम ब्राह्मणों के लक्षण | भक्त, गौ और पीपल की महिमा | श्रीकृष्ण के उपदेश का उपसंहार | श्रीकृष्ण का द्वारकागमन

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः