व्यर्थ जन्म, दान और जीवन का वर्णन

महाभारत आश्वमेधिक पर्व के वैष्णव धर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 92 में व्यर्थ जन्म, दान और जीवन का वर्णन हुआ है।[1]

वैशम्पायन द्वारा व्यर्थ जन्म का कथन

वैशम्‍पायन जी कहते हैं– जनमेजय! धर्म पुत्र राजा युधिष्‍ठिर इस प्रकार भगवान अच्‍युत के वचन सुनकर फिर भी श्री हरि से अन्‍य धर्म पूछने लगे – ‘पुरुषोत्‍तम! कितने जन्‍म व्‍यर्थ समझे जाते हैं ? कितने प्रकार के दान निष्‍फल होते हैं ? और किन– किन मनुष्‍यों का जीवन निरर्थक माना गया है? ‘पुरुषोत्‍तम! जनार्दन! मनुष्‍य किस अवस्‍था में दिये हुए दान के फल का इस लोक में अनुभव करता है। केशव! गर्भ में स्‍थित हुआ मनुष्‍य किस दान का फल भोगता है ?

श्रीकृष्‍ण! बाल, युवा और वृद्ध– अवस्‍थाओं में मनुष्‍य किस– किस दान का फल भोगता है? ‘भगवन! सात्‍विक, राजस और तामस दान कैसे होते हैं ? प्रभो! उनसे किसकी तृप्‍ति होती है ? ‘उत्‍तम दान का स्‍वरूप क्‍या है? और उससे मनुष्‍यों को किस फल की प्राप्‍ति होती है? कौन– सा दान ऊर्ध्‍वगति को ले जाता है ? कौन– सा मध्‍यम गति को और कौन– सा नीच गति को ले जाता है ? देवाधिदेव! यह मुझे बताने की कृपा कीजिये। ‘मधुसूदन! मैं इस विषय को जानना चाहता हूँ और इसे सुनने के लिये मेरे मन में बड़ी उत्‍कण्‍ठा है ; क्‍योंकि आपके वचन सत्‍य और पुण्‍यमय हैं।’

कृष्‍ण द्वारा दान तथा जीवन का उपदेश

श्रीभगवान ने कहा– राजन! मैं तुम्‍हें न्‍याय के अनुसार यथार्थ एवं उत्तम उपदेश सुनाता हूँ, ध्‍यान देकर सुनो। यह विषय परम पवित्र और सम्‍पूर्ण पापों को नष्‍ट करने वाला है। नरेश्‍वर! चौदह जन्‍म व्‍यर्थ समझे जाते हैं। क्रमश: पचपन प्रकार के दान निष्‍फल होते हैं और जिन–जिन मनुष्‍यों का जीवन निरर्थक होता है, उनकी संख्‍या छ: बतलायी गयी है। भूपाल! इन सबका मैं क्रमश: वर्णन करूँगा। जो धर्म का नाश करने वाले, लोभी, पापी, बलिवैश्‍वदेव किये बिना भोजन करने वाले, परस्‍त्री गामी, भोजन में भेद करने वाले और असत्‍य भाषी हैं, उनका जन्‍म वृथा है। पाण्‍डुनन्‍दन युधिष्‍ठिर! जो बन्‍धु– बान्‍धवों को क्‍लेश देकर अकेले ही मिठाई खाने वाले हैं, जो माता–पिता, अध्‍यापक, गुरु, और मामा- मामी को मारते या गाली देते हैं,[1]

जो ब्राह्मण होकर भी संध्‍योपासन से रहित हैं, जो अग्‍निहोत्र का त्‍याग करने वाले हैं, जो श्राद्ध– तर्पण से दूर रहने वाले हैं, जो ब्राह्मण होकर शुद्र का अन्‍न खाने वाले हैं तथा जो मेरे, शंकर जी के, ब्रह्माजी के अथवा ब्राह्मणों के भक्‍त नहीं हैं– ये चौदह प्रकार के मनुष्‍य अधम होते हैं। इन्‍हीं पापियों के जन्‍म को व्‍यर्थ समझना चाहिये।

राजन! जो दान अश्रद्धा या अपमान के साथ दिया जाता है, जिसे दिखावे के लिये दिया जाता है, जो पाखण्‍डी को प्राप्‍त हुआ है, जो शूद्र के समान आचरण वाले पुरुष को दिया जाता है, जिसे देकर अपने ही मुंह से बारंबार बखान किया गया है, जिसे रोषपूर्वक दिया गया है तथा जिसको देकर पीछे से उसके लिये शोक किया जाता है, जो दम्‍भ से उपार्जित अन्‍न का, झूठ बोलकर लाये हुए अन्‍न का, ब्राह्मण के धन का, चोरी करके लाये हुए द्रव्‍य का तथा कलंकी पुरुष के घर से लाये हुए धन का दान किया गया है, जो पतित ब्राह्मण को दिया गया है, जो दान वेदविहीन पुरुषों को और सबके यहाँ याचना करने वालों को दिया जाता है तथा जो संस्‍कारहीन पतितों को तथा एक बार संन्‍यास लेकर फिर गृहस्‍थ– आश्रम में प्रवेश करने वाले पूरुषों को दिया जाता है।

जो दान वेश्‍यगामी को और ससुराल में रहकर गुजारा करने वाले ब्राह्मण को दिया गया है, जिस दान को समूचे गांव से याचना करने वाले और कृतघ्‍न ने ग्रहण किया है एवं जो दान उपपात की को, वेद बेचने वाले को, स्‍त्री वश में रहने वाले को, राज सेवक को, ज्‍योतिषी को, तान्‍त्रिक को, शुद्र जाति की स्‍त्री के साथ सम्‍बन्‍ध रखने वाले को, अस्त्र– शस्त्र से जीविका चलाने वाले को, नौकरी करने वाले को, सांप पकड़ने वाले को और पुरोहिती करने वाले को दिया जाता है, जिस दान को वैद्य ने ग्रहण किया है, राजश्रेष्‍ठ! जो दान बनिये का काम करने वाले को, क्षुद्र मन्‍त्र जपकर जीविका चलाने वाले को, शूद्र के यहाँ गुजारा करने वाले को, रंगभूमि में नाच– कूदकर जीविका चलाने वाले को, माँस बेचकर जीवन– निर्वाह करने वाले को, सेवा का काम करने वाले को, ब्राह्मणोचित आचार से हीन होकर भी अपने को ब्राह्मण बतलाने वाले को, उपदेश देने की शक्‍ति से रहित को, व्‍याजखोर को, अनाचारी को, अग्‍निहोत्र न करने वाले को, संध्‍योपासना से अलग रहने वाले को, शूद्र के गांव में निवास करने वाले को, झूठे वेश धारण करने वाले को, सबके साथ और सब कुछ खाने वाले को, नास्‍तिक को, धर्म विक्रेता को, नीच वृत्ति वाले को, झूठी गवाही देने वाले को, तथा कूटनीति का आश्रय लेकर गांव के लोगों में लड़ाई– झगड़ा कराने वाले को ब्राह्मण को दिया जाता है, वे सब निष्‍फल होता है, इसमें कोई विचारणीय बात नहीं है।

दान करने का वर्णन

युधिष्‍ठिर! ये सब विषय लोलुप, विप्रनामधारी ब्राह्मण अधम हैं, ये न तो अपना उद्धार कर सकते हैं और न दाता का ही। राजेन्‍द्र! उपर्युक्‍त ब्राह्मणों को दिये हुए दान बहुत हों तो भी राख में डाली हुई घी की आहुति के समान व्‍यर्थ हो जाते हैं। उन्‍हें दिये गये दान का जो कुछ फल होने वाला होता है, उसे राक्षस और पिशाच प्रसन्‍नता के साथ लूट ले जाते हैं।[2]

युधिष्‍ठिर! ये सब वृथा दान संक्षेप में बताये गये। अब जिन जिन मनुष्‍यों का जीवन व्‍यर्थ है उनका परिचय दे रहा हूँ; सुनो। जो नराधम मेरी, भगवान शंकर की अथवा भूमण्‍डल के देवता ब्राह्मणों की शरण नहीं लेते, वे मनुष्‍य व्‍यर्थ ही जीते हैं। जिनकी कोरे तर्कशास्‍त्र में ही आसक्‍ति है, जो नास्‍तिक–पथ का अवलम्‍बन करते हैं, जिन्‍होंने आचार त्‍याग दिया है तथा जो देवताओं की निन्‍दा करते हैं, वे मनुष्‍य व्‍यर्थ ही जी रहें हैं। जो नराधम नास्‍तिकों के शास्त्र पढ़कर ब्राह्मण और यज्ञों की निन्‍दा करते हैं, वे व्‍यर्थ ही जीवन धारण करते हैं। जो मूढ़ दुर्गा, स्‍वामी कार्तिकेय, वायु, अग्नि, जल, सूर्य, माता– पिता, गुरु, इन्‍द्र तथा चन्द्रमा की निन्‍दा करते और आचार का पालन नहीं करते, वे मनुष्‍य भी निरर्थक ही जीवन व्‍यतीत करते हैं। जो धन होने पर भी दान और धर्म नहीं करता तथा दूसरों को न देकर अकेले ही मिठाई खाया करता है, वह भी व्‍यर्थ ही जीता है। इस प्रकार व्‍यर्थ जीवन की बात बतायी गयी। अब दान का समय बताता हूँ।[3]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णव धर्म पर्व भाग-6
  2. महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णव धर्म पर्व भाग-7
  3. महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णव धर्म पर्व भाग-8

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