वृद्ध कन्या का शृंगवान से विवाह तथा स्वर्गगमन

महाभारत शल्य पर्व में गदा पर्व के अंतर्गत 52वें अध्याय में वैशम्पायन ने श्रृंगवान के साथ वृद्ध कन्या के विवाह और कन्या के स्वर्गगमन तथा उस तीर्थ के माहात्म्य का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]-

वृद्ध कन्या का शृंगवान से विवाह तथा स्वर्गगमन

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! उग्र तपस्या करते हुए उसका बहुत समय व्यतीत हो गया। पिता ने अपने जीवनकाल में उसका किसी के साथ ब्याह कर देने का प्रयत्न किया; परंतु उस अनिन्द्य सुन्दरी ने विवाह की इच्छा नहीं की। उसे अपने योग्य कोई वर ही नहीं दिखायी देता था। तब वह उग्र तपस्या के द्वारा अपने शरीर को पीड़ा देकर निर्जन वन में पितरों तथा देवताओं के पूजन में तत्पर हो गयी। राजेन्द्र! परिश्रम से थक जाने पर भी वह अपने आपको कृतार्थ मानती रही। धीरे-धीरे बुढ़ापा और तपस्या ने उसे दुर्बल बना दिया। जब वह स्वयं एक पग भी चलने में असमर्थ हो गयी, तब उसने परलोक में जाने का विचार किया। उसकी देहत्याग की इच्छा देख देवर्षि नारद ने उससे कहा- ‘महान व्रत का पालन करने वाली निष्पाप नारी! तुम्हारा तो अभी विवाह संस्कार भी नहीं हुआ, तुम तो अभी कन्या हो। फिर तुम्हें पुण्यलोक कैसे प्राप्त हो सकते हैं? तुम्हारे सम्बन्ध में ऐसी बात मैंने देवलोक में सुनी है। तुमने तपस्या तो बहुत बड़ी की है; परंतु पुण्यलोकों पर अधिकार नहीं प्राप्त किया है’। नारद जी की यह बात सुनकर वह ऋषियों की सभा में उपस्थित होकर बोली- ‘साधुशिरोमणे! आपमें से जो कोई मेरा पाणिग्रहण करेगा, उसे मैं अपनी तपस्या का आधा भाग दे दूंगी’। उसके ऐसा कहने पर सबसे पहले गालव के पुत्र श्रृंगवान ऋषि ने उसका पाणिग्रहण करने की इच्छा प्रकट की और सबसे पहले उसके सामने यह शर्त रखी- ‘शोभने! मैं एक शर्त के साथ आज तुम्हारा पाणिग्रहण करूंगा। विवाह के बाद तुम्हें एक रात मेरे साथ रहना होगा। यदि यह स्वीकार हो तो मैं तैयार हूं’। तब ‘बहुत अच्छा’ कहकर उसने मुनि के हाथ में अपना हाथ दे दिया।

फिर गालव पुत्र ने शास्त्रोक्त रीति से विधिपूर्वक अग्नि में हवन करके उसका पाणिग्रहण और विवाह-संस्कार किया। राजन! रात्रि में वह दिव्य वस्त्राभूषणों से विभूषित और दिव्य गन्धयुक्त अंगराग से अलंकृत परम सुन्दरी तरुणी हो गयी।[1] उसे अपनी कान्ति से सब ओर प्रकाश फैलाती देख गालव कुमार बड़े प्रसन्न हुए और उसके साथ एक रात निवास किया। सबेरा होते ही वह मुनि से बोली- ‘तपस्वी मुनियों में श्रेष्ठ ब्रह्मर्षि! आपने जो शर्त की थी, उसके अनुसार मैं आपके साथ रह चुकी। आपका मंगल हो, कल्याण हो। अब आज्ञा दीजिये, मैं जाती हूं’। यों कहकर वह वहाँ से चल दी। जाते-जाते उसने फिर कहा- ‘जो अपने चित्त को एकाग्र कर इस तीर्थ में स्नान और देवताओं का तर्पण करके एक रात निवास करेगा, उसे अट्ठावन वर्षों तक विधिपूर्वक ब्रह्मचर्य पालन करने का फल प्राप्त होगा’। ऐसा कहकर वह साध्वी तपस्विनी देह त्यागकर स्वर्ग लोक में चली गयी और मुनि उसके दिव्य रूप का चिन्तन करते हुए बहुत दुखी हो गये। उन्होंने शर्त के अनुसार उसकी तपस्या का आधा भाग बड़े कष्ट से स्वीकार किया। फिर वे भी अपने शरीर का परित्याग करके उसी के पथ पर चले गये। भरतश्रेष्ठ! वे उसके रूप पर बलात आकृष्ट होकर अत्यन्त दुखी हो गये थे। यह मैंने तुमसे वृद्ध कन्या के महान चरित्र, ब्रह्मचर्य पालन तथा स्वर्ग लोक की प्राप्ति रूप सद्गति का वर्णन किया। वहीं रहकर शत्रुओं को संताप देने वाले बलराम जी ने शल्य के मारे जाने का समाचार सुना था। वहाँ भी मधुवंशी बलराम ने ब्राह्मणों को अनेक प्रकार के दान दे समन्तपंचक द्वार से निकलकर ऋषियों से कुरुक्षेत्र के सेवन का फल पूछा। प्रभो! उस यदुसिंह के द्वारा कुरुक्षेत्र के फल के विषय में पूछे जाने पर वहाँ रहने वाले महात्माओं ने उन्हें सब कुछ यथावत रूप से बताया।[2]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत शल्य पर्व अध्याय 52 श्लोक 1-18
  2. महाभारत शल्य पर्व अध्याय 52 श्लोक 19-29

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