विश्वामित्र और चाण्डाल का संवाद

महाभारत शान्ति पर्व में आपद्धर्म पर्व के अंतर्गत 141वें अध्याय में विश्वामित्र और चाण्डाल के संवाद का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है[1]

युधिष्ठिर का भीष्म से प्रश्न करना

युधिष्ठिर ने पूछा- प्रजानाथ! भरतनंदन! भूपाल- शिरोमणे! जब सब लोगों द्वारा धर्म का उल्‍लंघन होने के कारण श्रेष्ठ धर्म क्षीण हो चले, अधर्म को धर्म मान लिया जाय और धर्म को अधर्म समझा जान लगे, सारी मर्यादाएँ नष्ट हो जाय, धर्म का निश्‍चय डांवाडोल हो जाय, राजा अथवा शत्रु प्रजा को पीड़ा देने लगे, सभी आश्रम किंकर्तव्‍यवि‍मूढ़ हो जाय, धर्म-कर्म नष्ट हो जाय, काम, लोभ तथा मोह के कारण सबको सर्वत्र भय दिखायी देने लगे, किसी का किसी पर विश्‍वास न रह जाय, सभी सदा डरते रहे, लोग धोखे से एक-दूसरे को मारने लगे, सभी आपस में ठगी करने लगे, देश में सब ओर आग लगायी जाने लगे, ब्राह्मण अत्‍यंत पीड़ित हो जाय, वृष्टि न हो, परस्‍पर वैर-विरोध और फूट बढ़ जाय और पृथ्‍वी पर जीविका के सारे साधन लुटेरों के अधीन हो जाय, तब ऐसा अधम समय उपस्थित होने पर ब्राह्मण किस उपाय से जीवन निर्वाह करे? नरेश्‍वार! पितामह! यदि ब्राह्मण ऐसी आपत्ति के समय दयावश अपने पुत्र-पौत्रों का परित्‍याग करना न चाहे तो वह कैसे जीविका चलावे, यह मुझे बताने की कृपा करें। परंतप! जब लोग पापपरायण हो जाय, उस अवस्‍था में राजा कैसा बर्ताव करे, जिससे वह धर्म और अर्थ से भी भ्रष्ट न हो?

भीष्म द्वारा चाण्‍डाल और विश्वामित्र के संवाद का वर्णन युधिष्ठिर से करना

भीष्‍म जी ने कहा- महाबाहों! प्रजा के योग, क्षेम, उत्‍तम वृष्टि, व्‍याधि, मृत्‍यु और भय-इन सबका मूल कारण राजा ही है। भरतश्रेष्ठ! सत्‍ययुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग- इन सबका मूल कारण राजा ही है, ऐसा मेरा विचार है। इसकी सत्‍यता में मुझे तनिक भी संदेह नहीं है। प्रजाओं के लिये दोष उत्‍पन्‍न करने वाले ऐसे भयानक समय के आने पर ब्राह्मण को विज्ञान बल का आश्रय लेकर जीवन-निर्वाह करना चाहिये। इस विषय में चाण्‍डाल के घर में चाण्‍डाल और विश्वामित्र का जो संवाद हुआ था, उस प्राचीन इतिहास का उदाहरण लोग दिया करते हैं।

त्रेता और द्वापर के संधि की बात है, दैववश संसार में बारह वर्षों तक भयंकर अनावृष्टि हो गयी (वर्षा हुई ही नहीं)। त्रेतायुग प्राय: बीत गया था, द्वापर का आरंभ हो रहा था, प्रजाएँ बहुत बढ़ गयी थीं, जिनके लिये वर्षा बंद हो जाने से प्रलयकाल-सा उपस्थित हो गया। इन्‍द्र ने वर्षा बंद कर दी थी, बृहस्पति प्रतिलोम (वक्री) हो गया था, चंद्रमा विकृत हो गया था और वह दक्षिण मार्ग पर चला गया था। उन दिनों कुहासा भी नहीं होता था, फिर बादल कहाँ से उत्‍पन्‍न होते। नदियों का जलप्रवाह अत्‍यन्‍त क्षीण हो गया और कितनी ही नदियाँ अदृश्‍य हो गयीं। बड़े-बड़े सरोवर, सरिताएँ, कूप और झरने भी उस दैवविहित अथवा स्‍वाभाविक अनावृष्टि से श्री‍हीन होकर दिखायी ही नहीं देते थें। छोटे-छोटे जलाशय सर्वथा सूख गये। जलाभाव के कारण पौंसलें बंद हो गये। भूतल पर यज्ञ और स्‍वाध्‍याय का लोप हो गया। वषट्कार और मांगलिक उत्‍सवों का कहीं नाम भी नहीं रह गया। खेती और गो रक्षा चौपट हो गयी, बाजार-हाट बंद हो गये। यूप और यज्ञों का आयोजन समाप्‍त हो गया तथा बड़े-बड़े उत्‍सव नष्ट हो गये।[1] सब और हड्डियों के ढेर लग गये। प्राणियों के महान आर्तनाद सब ओर व्‍यापत हो रहे थे। नगर के अधिकांश भाग उजाड़ हो गये थे तथा गाँव और घर जल गये थे। कहीं चोरों से, कहीं अस्त्र-शस्त्रों से, कहीं राजाओं से और कहीं क्षुधातुर मनुष्‍यों द्वारा उपद्रव खडा़ होने के कारण तथा पारस्‍परिक भय से भी वसुधा का बहुत बडा़ भाग उजाड़ होकर निर्जन बन गया था। देवालय तथा मठ-मंदिर आदि संस्‍थाएँ उठ गयी थीं, बालक और बूढे़ मर गये थे, गाय, भेड़, बकरी और भैंसें प्राय: समाप्‍त हो गयी थीं, क्षुधातुर प्राणी एक-दूसरे पर आघात करते थे। ब्राह्मण नष्ट हो गये थे। रक्षकवृंद का भी विनाश हो गया था, औषधियों के समूह (अनाज और फल आदि) भी नष्ट हो गये थे, वसुधा पर सब ओर समस्‍त प्राणियों का हाहाकर व्‍याप्‍त हो रहा था। युधिष्ठिर! ऐसे भयंकर समय में धर्म का नाश हो जाने के कारण भूख से पीड़ित हुए मनुष्‍य एक-दूसरे को खाने लगे। अग्नि के उपासक ऋषिगण नियम और अग्निहोत्र त्‍यागकर अपने आश्रमों को भी छोड़कर भोजन के लिये इधर-उधर दौड़ रहे थे।[2]

विश्वामित्र का चाण्‍डाल बस्ती में पहुँचना

इन्‍ही दिनों बुद्धिमान महर्षि भगवान विश्वामित्र भूख से पीड़ित हो घर छोड़कर चारों ओर दौड़ लगा रहे थे। उन्‍होनें अपनी पत्‍नी और पुत्रों को किसी जन-समुदाय में छोड़ दिया और स्‍वयं अग्निहोत्र तथा आश्रम त्‍यागकर भक्ष्‍य और अभक्ष्‍य में समान भाव रखते हुए विचरने लगे। एक दिन वे किसी वन के भीतर प्राणियों का वध करने वाले हिंसक चाण्‍डालों की बस्‍ती में गिरते-पड़ते जा पहुँचे। वहाँ चारों ओर टूटे-फूटे घरों के खपरे और ठीकरे बिखरे पड़े थे, कुत्‍तों के चमड़े छेदने वाले हथियार रखे हुए थे, सूअरों और गदहों की टूटी हड्डियाँ, खपड़े और घड़े वहाँ सब ओर भरे दिखायी दे रहे थे। मुर्दों के ऊपर से उतारे गये कपड़े चारों ओर फैलाये गये थे और वहीं से उतारे हुए फूल की मालाओं से उन चाण्‍डालों के घर सजे हुए थे। चाण्‍डालों की कुटियों और मठों को सर्प की केंचुलों की मालाओं से विभूषित एवं चिह्नित किया गया था। उस पल्‍ली में सब ओर मुर्गो की ‘कुकुहूकू’ की आवाज गूँज रही थी। गदहों के रेंकने की ध्‍वनि भी प्रतिध्‍वनित हो रही थी। वे चाण्‍डाल आपस में झगड़ा-फसाद करके कठोर वचनों के द्वारा एक-दूसरे को कोसते हुए कोलाहल मचा रहे थे। वहाँ कई देवालय थे, जिनके भीतर उल्‍लू पक्षी की आवाज गूँजती रहती थी। वहाँ के घरों को लोहे की घंटियों से सजाया गया था और झुंड-के-झुंड कुत्‍ते उन घरों को घेरे हुए थे।

विश्वामित्र का चाण्डाल के घर जाना

उस बस्‍ती में घुसकर भूख से पीड़ित हुए महर्षि विश्वामित्र आहार की खोज में लगकर उसके लिये महान प्रयत्‍न करने लगे। विश्वामित्र वहाँ घर-घर घूम-घूमकर भीख माँगते फिरे, परंतु कहीं भी उन्‍हें मांस, अन्‍न, फल, मूल या दूसरी कोई वस्‍तु प्राप्‍त न हो सकी। ‘अहो! यह तो मुझ पर बड़ा भारी संकट आ गया।’ ऐसा सोचते-सोचते विश्वामित्र अत्‍यंत दुर्बलता के कारण वहीं एक चाण्‍डाल के घर में पृथ्‍वी पर गिर पड़े। नृपश्रेष्ठ! अब वे मु‍नि यह विचार करने लगे कि किस तरह मेरा भला होगा? क्‍या उपाय किया जाय, जिससे अन्‍न के बिना मेरी व्‍यर्थ मृत्‍यु न हो सके?[2] राजन! इतने ही में उन्‍होनें देखा कि चाण्‍डाल के घर में तुरंत के शस्त्र द्वारा मारे हुए कुत्‍ते की जाँघ के मांस का एक बड़ा-सा टुकड़ा पड़ा है। तब मुनि ने साचा कि ‘मुझे यहाँ से इस मांस की चोरी करनी चाहिये; क्‍योंकि इस समय मेरे लिये अपने प्राणों की रक्षा का दूसरा कोई उपाय नहीं है। ‘आपत्तिकाल में प्राण रक्षा के लिये ब्राह्मण को श्रेष्ठ, समान तथा हीन मनुष्‍य के घर से चोरी कर लेना उचित है, यह शास्त्र का निश्चित विधान है। ‘पहले हीन पुरुष के घर से उसे भक्ष्‍य पदार्थ की चोरी करनी चाहिये। वहाँ काम न चले तो अपने समान व्‍यक्ति के घर से खाने की वस्‍तु लेनी चाहिये, यदि वहाँ भी अभीष्ट सिद्धि न हो सके तो अपने से विशिष्ट धर्मात्‍मा पुरुष के यहाँ से वह खाद्य वस्‍तु का अपहरण कर ले। ‘अ‍त: इन चाण्‍डालों के घर से मैं यह कुत्‍ते की जाँघ चुराये लेता हूँ। किसी के यहाँ दान लेने से अधिक दोष मुझे इस चोरी में नहीं दिखायी देता है; अत: अवश्‍य ही इसका अपहरण क‍रूँगा’। भरतनन्‍दन! ऐसा निश्‍चय करके महामुनि विश्वामित्र उसी स्‍थान पर सो गये, जहाँ चाण्‍डाल रहा करते थे। जब प्रगाढ़ अंधकार से युक्‍त आधी रात हो गयी और चाण्‍डाल के घर के सभी लोग सो गये, तब भगवान विश्वामित्र धीरे से उठकर उस चाण्‍डाल की कुटिया में घुस गये।[3]

विश्वामित्र और चाण्डाल का संवाद

वह चाण्‍डाल सोया हुआ जान पड़ता था। उसकी आंखें कीचड़ से बंद-सी हो गयी थीं; परंतु वह जागता था। वह देखने में बड़ा भयानकथा। स्‍वभाव का रूखा भी प्रतीत होता था। मुनि को आया देख वह फटे हुए स्‍वर में बोल उठा। चाण्‍डाल ने कहा - अरे! चाण्‍डालों के घरों में तो सब लोग सो गये हैं, फिर कौन यहाँ आकर कुत्‍ते की जाँघ लेने की चेष्टा कर रहा है? मैं जागता हूँ, सोया नहीं हूँ। मैं देखता हूँ, तू मारा गया। उस क्रूर स्‍वभाव वाले चाण्‍डाल ने जब ऐसी बात कही, तब विश्वामित्र उससे डर गये। उनके मुख पर लज्‍जा घिर आयी। वे उस नीच कर्म से उद्विग्‍न हो सहसा बोल उठे- ‘आयुष्‍मन! मैं विश्वामित्र हूँ। भूख से पीड़ित होकर यहाँ आया हूँ। उत्‍तम बुद्धिवाले चाण्‍डाल! यदि तू ठीक-ठीक देखता और समझता है तो मेरा वध न कर’। पवित्र अन्‍त: करण वाले उस महिष का वह वचन सुनकर चाण्‍डाल घबराकर अपनी शय्‍या से उठा और उनके पास चला गया। उसने बड़े आदर के साथ हाथ जोड़कर नेत्रों से आँसू बहाते हुए वहाँ विश्वामित्र से कहा- ‘ब्रह्मन! इस रात के समय आपकी यह कैसी चेष्टा है? आप क्‍या करना चाहते हैं?’

विश्वामित्र ने चाण्डाल को सान्‍त्‍वना देते हुए कहा- ‘भाई! मैं बहुत भूखा हूँ। मेरे प्राण जा रहे हैं; अत: मैं यह कुत्‍ते की जाँघ ले जाऊँगा। ‘भूख के मारे यह पापकर्म करने पर उतर आया हूँ। भोजन की इच्‍छा वाले भूखे मनुष्‍य को कुछ भी करने में लज्‍जा नहीं आती। भूख ही मुझे कलंकित कर रही है, अत: मैं यह कुत्‍ते की जाँघ ले जाऊँगा।[3] ‘मेरे प्राण शिथिल हो रहे हैं। क्षुधा से मेरी श्रवणशक्ति नष्ट होती जा रही है। मैं दुबला हो गया हूँ। मेरी चेतना लुप्‍त-सी हो रही है; अत: अब मुझमें भक्ष्‍य और अभक्ष्‍य का विचार नहीं रह गया है। ‘मैं जानता हूँ कि यह अधर्म है तो भी यह कुत्‍ते की जाँघ ले जाऊँगा। मैं तुम लोगों के घरों पर घूम-घूमकर माँगने पर भी जब भीख नहीं पा सका हूँ, तब मैंने यह पाप कर्म करने का विचार किया है; अत: कुत्‍ते की जाँघ ले जाऊँगा। ‘अग्निदेव देवताओं के मुख हैं, पुरोहित हैं, पवित्र द्रव्‍य ही ग्रहण करते हैं और महान प्रभावशाली हैं तथापि वे जैसे अवस्‍था के अनुसार सर्वभक्षी हो गये हैं, उसी प्रकार मैं ब्राह्मण होकर भी सर्वभक्षी बनूँगा; अत: तुम धर्मत: मुझें ब्राह्मण ही समझों’।[4]

तब चाण्‍डाल ने उनसे कहा- ‘महर्षे! मेरी बात सुनिये और उसे सुनकर ऐसा काम कीजिये, जिससे आपका धर्म नष्ट न हो। ‘ब्रह्मर्षे! मैं आपके लिये भी जो धर्म की ही बात बता रहा हूँ, उसे सुनिये। मनीषी पुरुष कहते हैं कि कुत्‍ता सियार से भी अधम होता है। कुत्‍ते के शरीर में भी उसकी जाँघ का भाग सबसे अधम होता है। ‘महर्षे! आपने जो निश्‍चय किया है, यह ठीक नहीं है, चाण्‍डाल के धन का, उसमें भी विशेष रूप से अभक्ष्‍य पदार्थ का अपहरण धर्म की दृष्टि से अत्‍यंत निन्दित है। ‘महामुने! अपने प्राणों की रक्षा के लिये कोई दूसरा अच्‍छा - सा उपाय सोचिये। मांस के लोभ से आप की तपस्या का नाश नहीं होना चाहिये। ‘आप शास्त्रविहित धर्म को जानते हैं, अत: आपके द्वारा धर्मसंकरता का प्रचार नहीं होना चाहिये। धर्म का त्‍याग न कीजिये; क्‍योंकि आप धर्मात्‍माओं में श्रेष्ठ समझे जाते हैं। भरतश्रेष्ठ! नरेश्‍वर! चाण्‍डाल के ऐसा कहने पर क्षुधा से पीड़ित हुए महामुनि विश्वामित्र ने उसे इस प्रकार उतर दिया- ‘मैं भोजन न मिलने के कारण उसकी प्राप्ति के लिये इधर-उधर दौड़ रहा हूँ। इसी प्रयत्‍न में एक लंबा समय व्‍यतीत हो गया, किंतु मरे प्राणों की रक्षा के लिये अब तक कोई उपाय हाथ नहीं आया। ‘जो भूखों मर रहा हो, वह जिस-जिस उपाय से अथवा जिस किसी भी कर्म से सम्‍भव हो, अपने जीवन की रक्षा करे, फिर समर्थ होने पर वह धर्म का आचरण कर सकता है। ‘इन्‍द्र देवता का जो पालन रूप धर्म है, वही क्षत्रियों का भी है और अग्निदेव का जो सर्वभक्षित्‍व नामक गुण है, वह ब्राह्मणों का है। मेरा बल वेदरूपी अग्नि है; अत: मैं क्षुधा की शान्ति के लिये सब कुछ भक्षण करूँगा। ‘जैसे-जैसे ही जीवन सुरक्षित रहे, उसे बिना अवहेलना करना चाहिये। मरने से जीवित रहना श्रेष्ठ है, क्‍योंकि जीवित पुरुष पुन: धर्म का अचारण कर सकता है। ‘इसलिये मैंने जीवन की आकांक्षा रखकर इस अभक्ष्‍य पदार्थ का भी भक्षण कर लेने का बुद्धिपूर्वक निश्‍चय किया है। इसका तुम अनुमोदन करो। ‘जैसे सूर्य आदि ज्‍योतिर्मय ग्रह महान अंधकार का नाश कर देते हैं, उसी प्रकार मैं पुन: तप और विद्याद्वारा जब अपने-आपको सबल कर लूँगा, तब सारे अशुभ कर्मों का नाश कर डालूँगा’।[4]

चाण्‍डाल ने कहा- मुने! इसे खाकर कोई बहुत बड़ी आयु नहीं प्राप्‍त कर सकता। न तो इससे प्राणशक्ति प्राप्‍त होती है और न अमृत के समान तृप्ति ही होती है; अत: आप कोई दूसरी भिक्षा माँगिये। कुत्‍ते का मांस खाने की ओर आप का मन नहीं जाना चाहिये। कुत्‍ता द्विजों के लिये अभक्ष्‍य है। विश्वामित्र बोले- श्‍वपाक! सारे देश में अकाल पड़ा है; अत: दूसरा कोई मांस सुलभ नहीं होगा, यह मेरी दृढ़ मान्‍यता है। मेरे पास धन नहीं है कि मैं भेाज्‍य पदार्थ खरीद सकूँ, इधर भूख से मेरा बुरा हाल है। मैं निराश्रय तथा निराश हूँ। मैं समझता हूँ कि मुझे इस कुत्‍ते के मांस में ही षड्रस भेाजन का आनन्‍द भलीभाँति प्राप्‍त होगा। चाण्‍डाल ने कहा- ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्‍य के लिये पाँच नखोंवाले पाँच प्रकार के प्राणी आपत्तिकाल में भक्ष्‍य बताये गये हैं। यदि आप शास्त्र को प्रमाण मानते हैं तो अभक्ष्‍य पदार्थ की ओर मन न ले जाइये। विश्वामित्र बोले- भूखे हुए महर्षि अगस्‍त्‍य ने वातापि नामक असुर को खा लिया था। मैं तो क्षुधा के कारण भारी आपत्ति में पड़ गया हूँ; अत: यह कुत्‍ते की जाँघ अवश्‍य खाऊँगा। चाण्‍डाल ने कहा- मुने! आप दूसरी भिक्षा ले आइये। इसे ग्रहण करना आप के लिये उचित नहीं है। आपकी इच्‍छा हो तो यह कुत्‍ते की जाँघ ले जाइये; परंतु मैं निश्चित रूप से कहता हूँ कि आपको इसका भक्षण नहीं करना चाहिये। विश्वामित्र बोले- शिष्टपुरुष ही धर्म की प्रवृत्ति के कारण हैं। मैं उन्‍हीं के आचार का अनुसरण करता हूँ; अत: इस कुत्‍ते की जाँघ को मैं पवित्र भोजन के समान ही भक्षणीय मानता हूँ। चाण्‍डाल ने कहा- किसी असाधु पुरुष ने यदि कोई अनुचित कार्य किया हो तो वह सनातन धर्म नहीं माना जायेगा; अत: आप यहाँ न करने योग्‍य कर्म न कीजिये। कोई बहाना लेकर पाप करने पर उतारू न हो जाइये। विश्वामित्र बोले- कोई श्रेष्ठ ऋषि ऐसा कर्म नहीं कर सकता, जो पातक हो अ‍थवा जिसकी निन्‍दा की गयी हो। कुत्‍ते और मृग दोनों ही पशु होने के कारण मेरे मत में समान है; अत: मैं यह कुत्‍ते की जाँघ अवश्‍य खाऊँगा।[5]

चाण्‍डाल ने कहा- महर्षि अगस्‍त्‍य ने ब्राह्मणों की रक्षा के लिये प्रार्थना की जाने पर वैसी अवस्‍था में वातापि का भक्षण रूप कार्य किया था (उनके वैसा करने से बहुत से ब्राह्मणों की रक्षा हो गयी; अन्‍यथा वह राक्षस उन सबको खा जाता; अत: महर्षि का वह कार्य धर्म ही था) धर्म वही है, जिसमें लेशमात्र भी पाप न हो। ब्राह्मण गुरुजन है; अत: सभी उपायों से उनकी एवं उनके धर्म की रक्षा करनी चाहिये। विश्वामित्र बोले- (यदि अगस्‍त्‍य ने ब्राह्मणों की रक्षा के लिये वह कार्य किया था तो मैं भी मित्र की रक्षा के लिये उसे करूँगा) यह ब्राह्मण का शरीर मेरा मित्र ही है। यही जगत में मेरे लिये परम प्रिय और आदरणीय है। इसी को जीवित रखने के लिये मैं यह कुत्‍ते की जाँघ ले जाना चाहता हूँ; अत: ऐसे नृशंस कर्मों से मुझे तनिक भी भय नहीं होता है। चाण्‍डाल ने कहा- विद्वन! अच्‍छे पुरुष अपने प्राणों का परित्‍याग भले ही कर दें, परंतु वे कभी अभक्ष्‍य-भक्षण का विचार नहीं करते हैं। इसी से वे अपनी सम्‍पूर्ण कामनाओं को प्राप्‍त कर लेते हैं; अत: आप भी भूख के साथ ही- उपवास द्वारा ही अपनी मन कामना की पूर्ति कीजिये।[5]

विश्वामित्र बोले- यदि उपवास करके प्राण दे दिया जाय तो मरने के बाद क्‍या होगा? यह संशययुक्‍त बात है; परंतु ऐसा करने से पुण्‍यकर्मों का विनाश होगा, इसमें संशय नहीं है, (क्‍योंकि शरीर ही धर्माचरण का मूल हैं) अत: मैं जीवन रक्षा के पश्‍चात फिर प्रतिदिन व्रत एवं शम, दम आदि में तत्‍पर रहकर पापकर्मों का प्रायश्चित कर लूँगा। इस समय तो धर्म के मूलभूत शरीर की ही रक्षा करना आवश्‍यक है; अत: मैं इस अभक्ष्‍य पदार्थ का भक्षण करूँगा। यह कुत्‍ते का मांस-भक्षण दो प्रकार हो सकता है- एक बुद्धि और विचारपूर्वक तथा दूसरा अज्ञान एवं आसक्ति पूर्वक। बुद्धि एवं विचार द्वारा सोचकर धर्म के मूल तथा ज्ञानप्राप्ति के साधनभूत शरीर की रक्षा में पुण्‍य है, यह बात स्‍वत: स्‍पष्ट हो जाती है। इसी तरह मोह एवं आसक्तिपूर्वक उस कार्य में प्रवृत होने से दोष का होना भी स्‍पष्ट ही है। यद्यपि मैं मन में संशय लेकर यह कार्य करने जा रहा हूँ तथापि मेरा विश्‍वास है कि मैं इस मांस को खाकर तुम्‍हारे-जैसा चाण्‍डाल नहीं बन जाऊँगा। (तपस्‍या द्वारा इसके दोष का मार्जन कर लूँगा) चाण्‍डाल ने कहा- यह कुत्‍ते का मांस खाना आप के लिये अत्‍यन्‍न दुख:दायक पाप है। इससे आपको बचना चाहिये। यह मेरा निश्चित विचार है, इसीलिये मैं महान पापी और ब्राह्मणेतर होने पर भी आपको बारंबार उलाहना दे रहा हूँ। अवश्‍य ही यह धर्म का उपदेश करना मेरे लिये धूर्ततापूर्ण चेष्टा ही है।[6]

विश्वामित्र बोले - मेढ़कों के टर्र-टर्र करते रहने पर भी गौएँ जलाशयों में जल पीती ही हैं। (वैसे ही तुम्‍हारे मना करने पर भी मैं तो यह अभक्ष्‍य-भक्षण करूँगा ही) तुम्‍हें धर्मोपदेश देने का कोई अधिकार नहीं है; अत: तुम अपनी प्रशंसा करने वाले न बनो। चाण्‍डाल ने कहा-ब्रह्मन! मैं तो आपका हितैषी सुहृद बनकर ही यह धर्माचरण की सलाह दे रहा हूँ; क्‍योंकि आप पर मुझे दया आ रही है। यह जो कल्‍याण बात बता रहा हूँ, इसे आप ग्रहण करें। लोभवश पाप न करें। विश्वामित्र बोले- भैया! यदि तुम मेरे हितैषी सहृद हो और मुझे सुख देना चाहते हो तो इस वि‍पत्ति से मेरा उद्धार करो। मैं अपने धर्म को जानता हूँ। तुम तो यह कुत्‍ते की जाँघ मुझे दे दो। चाण्‍डाल ने कहा- ब्रह्मन मैं यह अभक्ष्‍य वस्‍तु आपको नहीं दे सकता और मेरे इस अन्‍न का आपके द्वारा अपहरण हो, इसकी उपेक्षा भी नहीं कर सकता। इसे देने वाला मैं और लेने वाले आप ब्राह्मण दोनों ही पापलिप्‍त होकर नरक में पडेंगे। विश्वामित्र बोले- आज यह पापकर्म करके भी यदि मैं जीवित रहा तो परम पवित्र धर्म का अनुष्ठान करूँगा। इससे मेरे तन, मन पवित्र हो जायगे और मैं धर्म का ही फल प्राप्‍त करूँगा। जीवित रहकर धर्माचरण करना और उपवास करके प्राण देना- इन दोनों में कौन बड़ा है, यह मुझे बताओ।

चाण्‍डाल ने कहा- किस कुल के लिये कौन-सा कार्य धर्म है, इस विषय में यह आत्मा ही साक्षी है। इस अभक्ष्‍य-भक्षण में जो पाप है, उसे आप भी जानते हैं। मेरी समझ में जो कुत्‍ते के मांस को भक्षणीय बताकर उसका आदर करें, उसके लिये इस संसार में कुछ भी त्‍याज्‍य नहीं है।[6] विश्वामित्र बोले- चाण्‍डाल! मैं इसे मानता हूँ कि तुमसे दान लेने और इस अभक्ष्‍य वस्‍तु को खाने में दोष है फिर भी जहाँ न खाने से प्राण जाने की सम्‍भावना हो, वहाँ के लिये शास्त्रों में सदा ही अपवाद वचन मिलते हैं। जिससे हिंसा और असत्‍य का तो दोष है ही नहीं, लेशमात्र निन्‍दारूप दोष है। प्राण जाने के अवसरों पर भी जो अभक्ष्‍य-भक्षण का निषेध ही करने वाले वचन हैं, वे गुरुतर अथवा आदरणीय नहीं हैं। चाण्‍डाल ने कहा- द्विजेन्‍द्र! यदि इस अभक्ष्‍य वस्‍तु-को खाने में आपके लिये यह प्राणरक्षारूपी हेतु ही प्रधान है तब तो आपके मत में न वेद प्रमाण है और न श्रेष्ठ पुरुषों का आचार-धर्म ही। अत: मैं आपके लिये भक्ष्‍य वस्‍तु के अभक्षण में अथवा अभक्ष्‍य वस्‍तु के भक्षण में कोई दोष नहीं देख रहा हूँ, जैसा कि यहाँ आपका इस मांस के लिये यह महान आग्रह देखा जाता है। विश्वामित्र बोले- अखाद्य वस्‍तु खाने वाले को ब्रह्महत्‍या आदि के समान महान पातक लगता हो, ऐसा कोई शास्त्रीय वचन देखने में नहीं आता। हाँ, शराब पीकर ब्राह्मण पतित हो जाता है, ऐसा शास्त्र वाक्‍य स्‍पष्ट रूप से उपलब्‍ध होता है; अत: व‍ह सुरापान अवश्‍य त्‍याज्‍य है। जैसे दूसरे-दूसरे कर्म निषिद्ध हैं, वैसा ही अभक्ष्‍य-भक्षण भी है। आपत्ति के समय एक बार किये हुए किसी सामान्‍य पाप से किसी के आजीवन किये हुए पुण्‍य कर्म का नाश नहीं होता। चाण्‍डाल ने कहा- जो अयोग्‍य स्‍थान से, अनुचित कर्म से तथा निदिन्‍त पुरुष से कोई निषिद्ध वस्‍तु लेना चा‍हता है, उस विद्वान को उसका सदाचार ही वैसा करने से रोकता है (अत: आपको तो ज्ञानी और धर्मात्‍मा होने के कारण स्‍वयं ही ऐसे निन्‍ध कर्म से दूर रहना चाहिये); परंतु जो बारंबार अत्‍यन्‍त आग्रह करके कुत्‍ते का मांस ग्रहण कर रहा है, उसी को इसका दण्‍ड भी सहन करना चाहिये (मेरा इसमें कोई दोष नहीं है)।[7]

विश्वामित्र का मांस के टुकडे को ले जाना

भीष्‍म जी कहते हैं- युधिष्ठिर! ऐसा कहकर चाण्‍डाल मुनि को मना करने के कार्य से निवृत हो गया। विश्वामित्र तो उसे लेने का निश्‍चय कर चुके थे; अत: कुत्‍ते की जाँघ ले ही गये। जीवित रहने की इच्‍छा वाले उन महामुनि ने कुत्‍ते के शरीर के उस एक भाग को ग्रहण कर लिया और उसे वन में ले जाकर पत्‍नी सहित खाने का विचार किया। इतने ही में उनके मन में यह विचार उठा कि मैं कुत्‍ते की जाँघ के इस मांस को विधिपूर्वक पहले देवताओं को अर्पण करूँगा और उन्‍हें संतुष्ट करके फिर अपनी इच्‍छानुसार उसे खाऊँगा। ऐसा सोचकर मुनि ने वेदोक्‍त विधि से अग्नि की स्‍थापना करके इन्‍द्र और अग्निदेवता के उद्देश्‍य से स्‍वयं ही चरू पकाकर तैयार किया। भरतनन्‍दन! फिर उन्‍होनें देवकर्म और पितृकर्म आरम्‍भ किया। इन्‍द्र आदि देवताओं का आवाहन करके उनके लिये क्रमश: विधिपूर्वक पृथक-पृथक भाग अर्पित किया।

इसी समय इन्‍द्र ने समस्‍त प्रजा को जीवनदान देते हुए बड़ी भारी वर्षा की और अन्‍न आदि औषधियों को उत्‍पन्‍न किया। भगवान विश्वामित्र भी दीर्घकाल तक निराहर व्रत एवं तपस्‍या करके अपने सारे पाप दग्‍ध कर चुके थे; अत: उन्‍हें अत्‍यन्‍त अदभुत सिद्धि प्राप्‍त हुई। उन द्विजश्रेष्ठ मुनि ने वह कर्म समाप्‍त करके उस हविष्‍य का आस्‍वादन किये बिना ही देवताओं और पितरों को संतुष्ट कर दिया और उन्‍हीं की कृपा से पवित्र भोजन प्राप्‍त करके उसके द्वारा जीवन की रक्षा की। राजन! इस प्रकार संकट में पड़कर जीवन की रक्षा चाहने वाले विद्वान पुरुष को दीनचित न होकर कोई उपाय ढूंढ़ निकालना चाहिये और सभी उपायों से अपने आपका आपतकाल में परिस्थिति से उद्धार करना चाहिये। इस बुद्धि का सहारा लेकर सदा जीवित रहने का प्रयत्‍न करना चाहिये; क्योंकि जीवित रहने वाला पुरुष पुण्‍य करने का अवसर पाता और कल्‍याण का भागी होता है। अत: कुन्‍तीनन्‍दन! अपने मन को वश में रखने वाले विद्वान पुरुष को चाहिये कि वह इस जगत में धर्म और अधर्म का निर्णय करने के लिये अपनी ही विशुद्ध बुद्धि का आश्रय लेकर यथायोग्‍य बर्ताव करे।[7]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 141 श्लोक 1-19
  2. 2.0 2.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 141 श्लोक 20-36
  3. 3.0 3.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 141 श्लोक 37-51
  4. 4.0 4.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 141 श्लोक 52-67
  5. 5.0 5.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 141 श्लोक 68-78
  6. 6.0 6.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 141 श्लोक 79-87
  7. 7.0 7.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 141 श्लोक 88-102

संबंधित लेख

महाभारत शान्ति पर्व में उल्लेखित कथाएँ


राजधर्मानुशासन पर्व
युधिष्ठिर के पास नारद आदि महर्षियों का आगमन | युधिष्ठिर का कर्ण को शाप मिलने का वृत्तांत पूछना | नारद का कर्ण को शाप प्राप्त होने का प्रसंग सुनाना | कर्ण को ब्रह्मास्त्र की प्राप्ति और परशुराम का शाप | कर्ण की मदद से दुर्योधन द्वारा कलिंगराज कन्या का अपहरण | कर्ण के बल और पराक्रम से प्रसन्न होकर जरासंध का उसे अंगदेश का राजा बनाना | युधिष्ठिर का स्त्रियों को शाप | युधिष्ठिर का अर्जुन से आन्तरिक खेद प्रकट करना | अर्जुन का युधिष्ठिर के मत का निराकरण करना | युधिष्ठिर का वानप्रस्थ एवं संन्यासी जीवन का निश्चय | भीम का राजा के लिए संन्यासी का विरोध | अर्जुन का इंद्र और ऋषि बालकों के संवाद का वर्णन | नकुल का गृहस्थ धर्म की प्रशंसा करते हुए युधिष्ठिर को समझाना | सहदेव का युधिष्ठिर को ममता और आसक्ति से मुक्त राज्य करने की सलाह देना | द्रौपदी का युधिष्ठिर को राजदण्डधारणपूर्वक शासन के लिए प्रेरित करना | अर्जुन द्वारा राज राजदण्ड की महत्ता का वर्णन | भीम का राजा को मोह छोड़कर राज्य-शासन के लिए प्रेरित करना | युधिष्ठिर द्वारा भीम की बात का विरोध एवं मुनिवृत्ति-ज्ञानी महात्माओं की प्रशंसा | जनक का दृष्टांत सुनाकर अर्जुन द्वारा युधिष्ठिर को संन्यास ग्रहण से रोकना | युधिष्ठिर द्वारा अपने मत की यथार्थता का प्रतिपादन | मुनिवर देवस्थान का युधिष्ठिर को यज्ञानुष्ठान के लिए प्रेरित करना | देवस्थान मुनि द्वारा युधिष्ठिर के प्रति उत्तम धर्म-यज्ञादि का उपदेश | क्षत्रिय धर्म की प्रशंसा करते हुए अर्जुन पुन: युधिष्ठिर को समझाना | व्यास जी द्वारा शंख और लिखित की कथा सुनाना | व्यास द्वारा सुद्युम्न के दण्डधर्मपालन का महत्त्व सुनाकर युधिष्ठिर को आज्ञा देना | व्यास का युधिष्ठिर को हयग्रीव का चरित्र सुनाकर कर्तव्यपालन के लिए जोर देना | सेनजित के उपदेश युक्त उद्गारों का उल्लेख करके व्यास का युधिष्ठिर को समझाना | युधिष्ठिर द्वारा धन के त्याग की महत्ता का प्रतिपादन | युधिष्ठिर को शोकवश शरीर त्यागने को उद्यत देख व्यास का समझाना | अश्मा ऋषि एवं जनक के संवाद द्वारा व्यास द्वारा युधिष्ठिर को समझाना | श्रीकृष्ण द्वारा नारद-सृंजय संवाद के रूप में युधिष्ठिर के शोक निवारण का प्रयत्न | महर्षि नारद और पर्वत का उपाख्यान | सुवर्णष्ठीवी के जन्म, मृत्यु और पुनर्जीवन का वृत्तांत | व्यास का अनेक युक्तियों से युधिष्ठिर को समझाना | व्यास का युधिष्ठिर को समझाते हुए देवासुर संग्राम का औचित्य सिद्ध करना | कर्मों को करने और न करने का विवेचन | पापकर्म के प्रायश्चितों का वर्णन | स्वायम्भुव मनु के कथानुसार का धर्म का स्वरूप | पाप से शुद्धि के लिए प्रायश्चित | अभक्ष्य वस्तुओं का वर्णन | दान के अधिकारी एवं अनधिकारी का विवेचन | व्यासजी और श्रीकृष्ण की आज्ञा से युधिष्ठिर का नगर में प्रवेश | नगर प्रवेश के समय पुरवासियों एवं ब्राह्मणों द्वारा राजा युधिष्ठिर का सत्कार | चार्वाक का ब्राह्मणों द्वारा वध | चार्वाक को प्राप्त हुए वर आदि का श्रीकृष्ण द्वारा वर्णन | युधिष्ठिर का राज्याभिषेक | युधिष्ठिर का धृतराष्ट्र के अधीन रहकर राज्य व्यवस्था के लिए अपने का भाइयों को नियुक्त करना | युधिष्ठिर और धृतराष्ट्र का युद्ध में मारे गये सगे-संबंधियों का श्राद्धकर्म करना | युधिष्ठिर द्वारा भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति | युधिष्ठिर द्वारा दिये हुए भवनों में सभी भाइयों का प्रवेश और विश्राम | युधिष्ठिर द्वारा ब्राह्मणों एवं आश्रितों का सत्कार | युधिष्ठिर और श्रीकृष्ण का संवाद | श्रीकृष्ण द्वारा भीष्म की प्रशंसा तथा युधिष्ठिर को उनके पास चलने का आदेश | भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की स्तुति-भीष्मस्तवराज | परशुराम द्वारा होने वाले क्षत्रिय संहार के विषय में युधिष्ठिर का प्रश्न | परशुराम के उपाख्यान क्षत्रियों का विनाश तथा पुन: उत्पन्न होने की कथा | श्रीकृष्ण द्वारा भीष्म के गुण-प्रभाव का वर्णन | श्रीकृष्ण का भीष्म की प्रशंसा करते हुए उन्हें युधिष्ठिर को धर्मोपदेश देने का आदेश देना | भीष्म द्वारा अपनी असर्मथता प्रकट करने पर भगवान श्रीकृष्ण का उन्हें वर देना | पाण्डवों व ऋषियों का भीष्म से विदा लेना | श्रीकृष्ण की प्रातश्चर्या | सात्यकि द्वारा कृष्ण का संदेश पाकर युधिष्ठिर का भाइयों सहित कुरुक्षेत्र में आना | श्रीकृष्ण और भीष्म की बातचीत | भीष्म द्वारा युधिष्ठिर को गुण-कथनपूर्वक प्रश्न करने का आदेश देना | भीष्म के आश्वासन पर युधिष्ठिर का उनके समीप जाना | युधिष्ठिर के पूछने पर भीष्म द्वारा राजधर्म का वर्णन | राजा के लिए पुरुषार्थ, सत्य, ब्राह्मणों की अदण्डनीयता | राजा की परिहासशीलता तथा मृदुता में प्रकट होने वाले दोष | राजा द्वारा धर्मानुकूल नीतिपूर्ण बर्ताव का वर्णन | भीष्म द्वारा राज्यरक्षा का वर्णन | युधिष्ठिर का भीष्म से विदा लेकर हस्तिनापुर में प्रवेश | ब्रह्मा जी के नीतिशास्त्र का वर्णन | राजा पृथु के चरित्र का वर्णन | वर्णधर्म का वर्णन | आश्रम धर्म का वर्णन | ब्राह्मण धर्म और कर्तव्यपालन का महत्त्व | वर्णाश्रम धर्म का वर्णन | राजर्धम का वर्णन | इन्द्ररूपधारी विष्णु और मान्धाता का संवाद | राजधर्म के पालन से चारों आश्रमों के धर्म का फल | राष्ट्र की रक्षा और उन्नति | राजा की आवश्यकता का प्रतिपादन | वसुमना और बृहस्पति का संवाद | राजा के न होने से प्रजा की हानि और होने से लाभ का वर्णन | राजा के प्रधान कर्तव्य | दण्डनीति द्वारा युगों के निर्माण का वर्णन | राजा को इहलोक व परलोक में सुख प्राप्ति कराने वाले छत्तीस गुण | धर्मपूर्वक प्रजापालन ही राजा का महान धर्म | राजा के लिए सदाचारी विद्वान पुरोहित की आवश्यकता | विद्वान सदाचारी पुरोहित की आवश्यकता | ब्राह्मण और क्षत्रिय में मेल रहने से लाभविषयक पुरूरवा का उपख्यान | ब्राह्मण और क्षत्रिय में मेल से लाभ का प्रतिपादन करने वाले मुचुकुन्द का उपाख्यान | राज्य के कर्तव्य का वर्णन | युधिष्ठिर का राज्य से विरक्त होने पर भीष्म द्वारा राज्य की महिमा का वर्णन | उत्तम-अधम ब्राह्मणों के साथ राजा का बर्ताव | केकयराजा तथा राक्षस का उपख्यान | केकयराजा की श्रेष्ठता का विस्तृत वर्णन | आपत्तिकाल में ब्राह्मण के लिए वैश्यवृत्ति से निर्वाह करने की छूट | लुटेरों से रक्षा के लिए शस्त्र धारण करने का अधिकार | रक्षक को सम्मान का पात्र स्वीकार करना | ऋत्विजों के लक्षण | यज्ञ और दक्षिणा का महत्व | तप की श्रेष्ठता | राजा के लिए मित्र और अमित्र की पहचान और उनके साथ नीतिपूर्ण बर्ताव | मन्त्री के लक्षणों का वर्णन | कुटुम्बीजनों में दलबंदी होने पर कुल के प्रधान पुरुष के कार्य | श्री कृष्ण और नारद जी का संवाद | मंत्रियों की परीक्षा तथा राजा और राजकीय मनुष्यों से सतर्कता | कालकवृक्षीय मुनि का उपख्यान | सभासद आदि के लक्षण | गुप्त सलाह सुनने के अधिकारी और अनधिकारी तथा गुप्त-मन्त्रणा की विधि एवं निर्देश | इन्द्र और वृहस्पति के संवाद में मधुर वचन बोलने का महत्व | राजा की व्यावहारिक नीति व मंत्रीमण्डल का संघटन | दण्ड का औचित्य तथा दूत व सेनापति के गुण | राजा के निवासयोग्य नगर एवं दुर्ग का वर्णन | प्रजापालन व्यवहार तथा तपस्वीजनों के समादर का निर्देश | राष्ट्र की रक्षा तथा वृद्धि के उपाय | प्रजा से कर लेने तथा कोश संग्रह करने का प्रकार | राजा के कर्तव्य का वर्णन | उतथ्य का मान्धाता को उपदेश | राजा के लिए धर्मपालन की आवश्यकता | उतथ्य के उपदेश में धर्माचरण का महत्व | राजा के धर्म का वर्णन | राजा के धर्मपूर्वक आचार के विषय में वामदेवजी का वसुमना को उपदेश | वामदेव जी के द्वारा राजोचित बर्ताव का वर्णन | वामदेव के उपदेश में राजा और राज्य के लिए हितकर वर्ताव | विजयाभिलाषी राजा के धर्मानुकूल बर्ताव तथा युद्धनीति का वर्णन | राजा के छलरहित धर्मयुक्त बर्ताव की प्रशंसा | शूरवीर क्षत्रियों के कर्तव्य तथा सद्नति का वर्णन | इन्द्र और अम्बरीष के संवाद में नदी और यज्ञ के रूपों का वर्णन | समरभूमि में जुझते हुए मारे जाने वाले शूरवीरों को उत्तम लोकों की प्राप्ति का कथन | शूरवीरों को स्वर्ग और कायरों को नरक की प्राप्ति | सैन्यसंचालन की रीति-नीति का वर्णन | भिन्न-भिन्न देश के योद्धाओं का स्वभाव व आचरण के लक्षण | विजयसूचक शुभाशुभ लक्षणों व बलवान सैनिकों का वर्णन | शत्रु को वश में करने के लिये राजा का नीति से काम लेना | दुष्टों को पहचानने के विषय में इन्द्र और बृहस्पति का संवाद | राज्य, खजाना और सेना से वंचित क्षेमदर्शी राजा को कालकवृक्षीय मुनि का उपदेश | कालकवृक्षीय मुनि के द्वारा गये हुए राज्य की प्राप्ति के लिए विभिन्न उपायों का वर्णन | कालकवृक्षीय मुनि का विदेहराज तथा कोसलराजकुमारों का मेल कराना | विदेहराज का कोसलराज को अपना जामाता बनाना | गणतन्त्र राज्य का वर्णन और उसकी नीति | माता-पिता तथा गुरु की सेवा का महत्त्व | सत्य-असत्य का विवेचन | धर्म के लक्षण व व्यावहारिक नीति का वर्णन | सदाचार और ईश्वरभक्ति को दु:खों से छुटने का उपाय | मनुष्य के स्वभाव की पहचान बताने वाली बाघ और सियार की कथा | तपस्वी ऊँट के आलस्य का कुपरिणाम और राजा का कर्तव्य | सरिताओं और समुद्र का संवाद | दुष्ट मनुष्य द्वारा की हुई निन्दा को सह लेने से लाभ | राजा तथा राजसेवकों के आवश्यक गुण | सज्जनों के चरित्र के विषय में महर्षि और कुत्ते की कथा | कुत्ते का शरभ की योनि से महर्षि के शाप से पुन: कुत्ता हो जाना | राजा के सेवक, सचिव आदि और राजा के गुणों व उनसे लाभ का वर्णन | सेवकों को उनके योग्य स्थान पर नियुक्त करने का वर्णन | सत्पुरुषों का संग्रह व कोष की देखभाल के लिए राजा को प्रेरणा देना | राजधर्म का साररूप में वर्णन | दण्ड के स्वरूप, नाम, लक्षण और प्रयोग का वर्णन | दण्ड की उत्पत्ति का वर्णन | दण्ड का क्षत्रियों कें हाथ में आने की परम्परा का वर्णन | त्रिवर्ग के विचार का वर्णन | पाप के कारण राजा के पुनरुत्थान के विषय में आंगरिष्ठ और कामन्दक का संवाद | इन्द्र और प्रह्लाद की कथा | शील का प्रभाव, अभाव में धर्म, सत्य, सदाचार और लक्ष्मी के न रहने का वर्णन | सुमित्र और ऋषभ ऋषि की कथा | राजा सुमित्र का मृग की खोज में तपस्वी मुनियों के आश्रम पर पहुँचना | सुमित्र का मुनियों से आशा के विषय में प्रश्न करना | ऋषभ का सुमित्र को वीरद्युम्न व तनु मुनि का वृतान्त सुनाना | तनु मुनि का वीरद्युम्न को आशा के स्वरूप का परिचय देना | ऋषभ के उपदेश से सुमित्र का आशा को त्याग देना | यम और गौतम का संवाद | आपत्ति के समय राजा का धर्म

आपद्धर्म पर्व

आपत्तिग्रस्त राजा के कर्त्तव्य का वर्णन | ब्राह्मणों और श्रेष्ठ राजाओं के धर्म का वर्णन | धर्म की गति को सूक्ष्म बताना | राजा के लिए कोश संग्रह की आवश्यकता | मर्यादा की स्थापना और अमर्यादित दस्युवृत्ति की निन्दा | बल की महत्ता और पाप से छूटने का प्रायश्रित्त | मर्यादा का पालन करने वाले कायव्य दस्यु की सद्गति का वर्णन | राजा के द्वारा किसका धन लेने व न लेने तथा कैसे बर्ताव करे इसके विचार का वर्णन | शत्रुओं से घिरे राजा के कृर्त्तव्य का वर्णन | राजा के कृर्त्तव्य के विषय में बिडाल व चूहे का आख्यान | शत्रु से सावधान रहने के विषय में राजा ब्रह्मदत्त और पूजनी चिड़िया का संवाद | भारद्वाज कणिक का सौराष्ट्रदेश के राजा को कूटनीति का उपदेश | विश्वामित्र और चाण्डाल का संवाद | आपत्काल में धर्म का निश्चय | उत्तम ब्राह्मणों के सेवन का आदेश | बहेलिये और कपोत-कपोती का प्रसंग | कबूतर द्वारा अपनी भार्या का गुणगान व पतिव्रता स्त्री की प्रशंसा | कबूतरी का कबूतर से शरणागत व्याध की सेवा के लिए प्रार्थना | कबूतर द्वारा अतिथि-सत्कार और अपने शरीर का बहेलिये के लिए परित्याग | बहेलिये का वैराग्य | कबूतरी का विलाप और अग्नि में प्रवेश कर उन दोनों को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति | बहेलिये को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति | इन्द्रोत मुनि का जनमेजय को फटकारना | जनमेजय का इन्द्रोत मुनि की शरण में जाना | इन्द्रोत का जनमेजय को शरण देना | इन्द्रोत का जनमेजय को धर्मोपदेश देना | ब्राह्मण बालक के जीवित होने की कथा | नारद जी का सेमल वृक्ष से प्रश्न | नारद जी का सेमल को उसका अहंकार देखकर फटकारना | वायु का सेमल को धमकाना और सेमल का विचारमग्न होना | सेमल का हार स्वीकार कर बलवान के साथ वैर न करने का उपदेश | समस्त अनर्थो का कारण लोभ को बताकर उसने होने वाले पापों का वर्णन | श्रेष्ठ महापुरुषों के लक्षण | अज्ञान और लोभ को ही समस्त दोषों का कारण सिद्ध करना | मन और इंद्रियों के संयम रूप दम का माहात्म्य | तप की महिमा | सत्य के लक्षण, स्वरूप और महिमा का वर्णन | काम, क्रोध आदि दोषों का निरूपण व नाश का उपाय | नृशंस अर्थात अत्यन्त नीच पुरुष के लक्षण | नाना प्रकार के पापों और प्रायश्रितों का वर्णन | खड्ग की उत्पत्ति और प्राप्ति व महिमा का वर्णन | धर्म, अर्थ और काम के विषय में विदुर व पाण्डवों के पृथक-पृथक विचार | अन्त में युधिष्ठिर का निर्णय | मित्र बनाने व न बनाने योग्य पुरुषों के लक्षण | कृतघ्न गौतम की कथा का आरम्भ | गौतम का समुद्र की ओर प्रस्थान व बकपक्षी के घर पर अतिथि होना | गौतम का आतिथ्यसत्कार व विरूपाक्ष के भवन में प्रवेश | गौतम का राक्षसराज के यहाँ से सुर्वणराशि लेकर लौटना | गौतम का अपने मित्र बक के वध का विचार मन में लाना | कृतघ्न गौतम द्वारा राजधर्मा का वध | राक्षसों द्वार कृतघ्न की हत्या व उसके माँस को अभक्ष्य बताना | राजधर्मा और गौतम का पुन: जीवित होना

मोक्षधर्म पर्व

शोकाकुल चित्त की शांति के लिए सेनजित और ब्राह्मण संवाद | पिता के प्रति पुत्रद्वारा ज्ञान का उपदेश | त्याग की महिमा के विषय में शम्पाक का उपदेश | धन की तृष्णा से दु:ख का वर्णन | धन के त्याग से परम सुख की प्राप्ति | जनक की उक्ति तथा राजा नहुष के प्रश्नों के उत्तर मे बोध्यगीता | प्रह्लाद और अवधूत का संवाद | आजगर वृत्ति की प्रशंसा का वर्णन | काश्यप ब्राह्मण और इन्द्र का संवाद | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम कर्ता को भोगने का प्रतिपादन | भरद्वाज और भृगु के संवाद में जगत की उत्पत्ति का वर्णन | आकाश से अन्य चार स्थूल भूतों की उत्पत्ति का वर्णन | पंचमहाभूतों के गुणों का विस्तारपूर्वक वर्णन | शरीर के भीतर जठरानल आदि वायुओं की स्थिति का वर्णन | जीव की सत्ता पर अनेक युक्तियों से शंका उपस्थित करना | जीव की सत्ता तथा नित्यता को युक्तियों से सिद्ध करना | मनुष्यों की और समस्त प्राणियों की उत्पत्ति का वर्णन | कर्मो का और सदाचार का वर्णन | वैराग्य से परब्रह्मा की प्राप्ति | सत्य की महिमा, असत्य के दोष व लोक और परलोक के सुख-दु:ख का विवेचन | ब्रह्मचर्य और गार्हस्थ्य आश्रमों के धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास धर्मों का वर्णन | हिमालय के उत्तर में स्थित लोक की विलक्षणता व महत्ता का प्रतिपादन | भृगु और भरद्वाज के संवाद का उपसंहार | शिष्टाचार का फलसहित वर्णन | पाप को छिपाने से हानि और धर्म की प्रशंसा | अध्यात्मज्ञान का निरूपण | ध्यानयोग का वर्णन | जपयज्ञ के विषय में युधिष्ठिर का प्रश्न | जप और ध्यान की महिमा और उसका फल | जापक में दोष आने के कारण उसे नरक की प्राप्ति | जापक के लिए देवलोक भी नरक तुल्य इसके प्रतिपादन का वर्णन | जापक को सावित्री का वरदान | धर्म, यम और काल का आगमन | राजा इक्ष्वाकु और ब्राह्मण का संवाद | सत्य की महिमा तथा जापक की गति का वर्णन | ब्राह्मण और इक्ष्वाकु की उत्तम गति का वर्णन | जापक को मिलने वाले फल की उत्कृष्टता | मनु द्वारा कामनाओं के त्याग एवं ज्ञान की प्रशंसा | परमात्मतत्त्व का निरूपण | आत्मतत्त्व और बुद्धि आदि पदार्थों का विवेचन | साक्षात्कार का उपाय | शरीर, इन्द्रिय और मन-बुद्धि से आत्मा की सत्ता का प्रतिपादन | आत्मा व परमात्मा के साक्षात्कार का उपाय तथा महत्त्व | परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | मनु बृहस्पति संवाद की समाप्ति | श्री कृष्ण से सम्पूर्ण भूतों की उत्पत्ति | श्री कृष्ण की महिमा का कथन | ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन | प्रत्येक दिशा में निवास करने वाले महर्षियों का वर्णन | विष्णु का वराहरूप में प्रकट हो देवताओं की रक्षा और दानवों का विनाश | नारद को अनुस्मृतिस्तोत्र का उपदेश | नारद द्वारा भगवान की स्तुति | श्री कृष्ण सम्बन्धी अध्यात्मतत्तव का वर्णन | संसारचक्र और जीवात्मा की स्थिति का वर्णन | निषिद्ध आचरण के त्याग आदि के परिणाम तथा सत्त्वगुण के सेवन का उपदेश | जीवोत्पत्ति के दोष और बंधनों से मुक्त तथा विषय शक्ति के त्याग का उपदेश | ब्रह्मचर्य तथा वैराग्य से मुक्ति | आसक्ति छोड़कर सनातन ब्रह्म की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने के उपदेश | स्वप्न और सुषुप्ति-अवस्था में मन की स्थिति का वर्णन | गुणातीत ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | सच्चिदान्नदघन परमात्मा, दश्यवर्ग प्रकृति और पुरुष उन चारों के ज्ञान से मुक्ति का वर्णन | परमात्मा प्राप्ति के अन्य साधनों का वर्णन | राजा जनक के दरबार में पञ्चशिख का आगमन | नास्तिक मतों के निराकरणपूर्वक शरीर से भिन्न आत्मा की नित्य सत्ता का प्रतिपादन | पञ्चशिख के द्वारा मोक्षतत्त्व के विवेचन का वर्णन | विष्णु द्वारा मिथिलानरेश जनकवंशी जनदेव की परीक्षा और उनके के लिए वर प्रदान | श्वेतकेतु और सुवर्चला का विवाह | पति-पत्नी का अध्यात्मविषयक संवाद | दम की महिमा का वर्णन | व्रत, तप, उपवास, ब्रह्मचर्य तथा अतिथि सेवा का विवेचन | सनत्कुमार का ऋषियों को भगवत्स्वरूप का उपदेश | इंद्र और प्रह्लाद का संवाद | इन्द्र के आक्षेप युक्त वचनों का बलि के द्वारा कठोर प्रत्युत्तर | बलि और इन्द्र का संवाद | बलि द्वारा इन्द्र को फटकारना | इन्द्र और लक्ष्मी का संवाद | बलि को त्यागकर आयी हुई लक्ष्मी की इन्द्र के द्वारा प्रतिष्ठा | इन्द्र और नमुचि का संवाद | काल और प्रारब्ध की महिमा का वर्णन | लक्ष्मी का दैत्यों को त्यागकर इन्द्र के पास आना | सद्गुणों पर लक्ष्मी का आना व दुर्गुणों पर त्यागकर जाने का वर्णन | जैगीषव्य का असित-देवल को समत्वबुद्धि का उपदेश | श्रीकृष्ण और उग्रसेन का संवाद | शुकदेव के प्रश्नों के उत्तर में व्यास जी द्वारा काल का स्वरूप बताना | व्यास जी का शुकदेव को सृष्टि के उत्पत्ति-क्रम तथा युगधर्मों का उपदेश | ब्राह्मप्रलय एंव महाप्रलय का वर्णन | ब्राह्मणों का कर्तव्य और उन्हें दान देने की महिमा का वर्णन | ब्राह्मण के कर्तव्य का प्रतिपादन करते हुए कालरूप नद को पार करने का उपाय | ध्यान के सहायक योग | फल और सात प्रकार की धारणाओं का वर्णन | मोक्ष की प्राप्ति | सृष्टि के समस्त कार्यों में बुद्धि की प्रधानता | प्राणियों की श्रेष्ठता के तारतम्य का वर्णन | नाना प्रकार के भूतों की समीक्षापूर्वक कर्मतत्त्व का विवेचन | युगधर्म का वर्णन एवं काल का महत्त्व | ज्ञान का साधन और उसकी महिमा | योग से परमात्मा की प्राप्ति का वर्णन | कर्म और ज्ञान का अन्तर | ब्रह्मप्राप्ति के उपाय का वर्णन | ब्रह्मचर्य-आश्रम का वर्णन | गार्हस्थ्य-धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास-आश्रम के धर्म और महिमा का वर्णन | संन्यासी के आचरण | ज्ञानवान संन्यासी का प्रशंसा | परमात्मा की श्रेष्ठता व दर्शन का उपाय | ज्ञानमय उपदेश के पात्र का निर्णय | महाभूतादि तत्त्वों का विवेचन | बुद्धि की श्रेष्ठता और प्रकृति-पुरुष-विवेक | ज्ञान के साधन व ज्ञानी के लक्षण और महिमा | परमात्मा की प्राप्ति का साधन | ज्ञान से ब्रह्म की प्राप्ति | ब्रह्मवेत्ता के लक्षण व परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | शरीर में पंचभूतों के कार्य व गुणों की पहचान | जीवात्मा और परमात्मा का योग द्वारा साक्षात्कार | कामरूपी अद्भुत वृक्ष व शरीर रूपी नगर का वर्णन | मन और बुद्धि के गुणों का विस्तृत वर्णन | युधिष्ठिर का मृत्युविषयक प्रश्न व ब्रह्मा की रोषाग्नि से प्रजा के दग्ध होने का वर्णन | ब्रह्मा के द्वारा रोषाग्नि का उपसंहार व मृत्यु की उत्पत्ति | मृत्यु की तपस्या व प्रजापति की आज्ञा से मृत्यु का प्राणियों के संहार का कार्य स्वीकार करना | धर्माधर्म के स्वरूप का निर्णय | युधिष्ठिर का धर्म की प्रमाणिकता पर संदेह उपस्थित करना | जाजलि की घोर तपस्या व जटाओं में पक्षियों का घोंसला बनाने से उनका अभिमान | आकाशवाणी की प्रेरणा से जाजलि का तुलाधार वैश्य के पास जाना | जाजलि और तुलाधार का धर्म के विषय में संवाद | जाजलि को तुलाधार का आत्मयज्ञविषयक धर्म का उपदेश | जाजलि को पक्षियों का उपदेश | राजा विचख्नु के द्बारा अहिंसा-धर्म की प्रशंसा | महर्षि गौतम और चिरकारी का उपाख्यान | दीर्घकाल तक सोच-विचारकर कार्य करने की प्रशंसा | द्युमत्सेन और सत्यवान का संवाद | अहिंसापूर्वक राज्यशासन की श्रेष्ठता का कथन | स्यूमरश्मि और कपिल का संवाद | प्रवृत्ति एवं निवृत्तिमार्ग के विषय में स्यूमरश्मि व कपिल संवाद | चारों आश्रमों में उत्तम साधनों के द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति का कथन | ब्रह्मण और कुण्डधार मेघ की कथा | यज्ञ में हिंसा की निंदा और अहिंसा की प्रशंसा | धर्म, अधर्म, वैराग्य और मोक्ष के विषय में युधिष्ठिर के प्रश्न | मोक्ष के साधन का वर्णन | नारद और असितदेवल का संवाद | तृष्णा के परित्याग के विषय में माण्डव्य मुनि और जनक का संवाद | पिता और पुत्र का संवाद | हारित मुनि के द्वारा आचरण व धर्मों का वर्णन | ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | ब्रह्म की प्राप्ति के विषय में वृत्र और शुक्र का संवाद | वृत्रासुर को सनत्कुमार का आध्यात्मविषयक उपदेश | भीष्म द्वारा युधिष्ठिर की शंका निवारण | इन्द्र और वृत्रासुर के युद्ध का वर्णन | वृत्रासुर के वध से प्रकट हुई ब्रह्महत्या का ब्रह्मा जी के द्वारा चार स्थानों में विभाजन | शिवजी के द्वारा दक्ष के यज्ञ का भंग | शिवजी के क्रोध से ज्वर की उत्पत्ति व उसके विविध रूप | पार्वती के रोष के निवारण के लिए शिव द्वारा दक्ष-यज्ञ का विध्वंस | महादेव जी का दक्ष को वरदान | स्तोत्र की महिमा | अध्यात्म ज्ञान और उसके फल का वर्णन | समंग द्वारा नारद जी से अपनी शोकहीन स्थिति का वर्णन | नारद जी द्वारा गालव मुनि को श्रेय का उपदेश | अरिष्टनेमि का राजा सगर को मोक्षविषयक उपदेश | उशना का चरित्र | उशना को शुक्र नाम की प्राप्ति | पराशर मुनि का राजा जनक को कल्याण की प्राप्ति के साधन का उपदेश | कर्मफल की अनिवार्यता | कर्मफल से लाभ | धर्मोपार्जित धन की श्रेष्ठता, व अतिथि-सत्कार का महत्त्व | गुरुजनों की सेवा से लाभ | सत्संग की महिमा व धर्मपालन का महत्त्व | ब्राह्मण और शूद्र की जीविका | मनुष्यों में आसुरभाव की उत्पत्ति व शिव के द्वारा उसका निवारण | विषयासक्त मनुष्य का पतन | तपोबल की श्रेष्ठता व दृढ़तापूर्वक स्वधर्मपालन का आदेश | वर्ण विशेष की उत्पत्ति का रहस्य | हिंसारहित धर्म का वर्णन | धर्म व कर्तव्यों का उपदेश | राजा जनक के विविध प्रश्नों का उत्तर | ब्रह्मा को साध्यगणों को उपदेश | योगमार्ग के स्वरूप, साधन, फल और प्रभाव का वर्णन | सांख्ययोग के अनुसार साधन का वर्णन | सांख्ययोग के फल का वर्णन | वसिष्ठ और करालजनक का संवाद | प्रकृति-संसर्ग के कारण जीव का बारंबार जन्म ग्रहण करना | प्रकृति के संसर्ग दोष से जीव का पतन | क्षर-अक्षर एवं प्रकृति-पुरुष के विषय में राजा जनक की शंका | योग और सांख्य के स्वरूप का वर्णन तथा आत्मज्ञान से मुक्ति | विद्या-अविद्या व पुरुष के स्वरूप के उद्गार का वर्णन | वसिष्ठ व जनक संवाद का उपसंहार | जनकवंशी वसुमान को मुनि का धर्मविषयक उपदेश | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश | इन्द्रियों में मन की प्रधानता का प्रतिदान | संहार क्रम का वर्णन | अध्यात्म व अधिभूत वर्णन तथा राजस और तामस के भावों के लक्षण | राजा जनक के प्रश्न | प्रकृति पुरुष का विवेक और उसका फल | योग का वर्णन व उससे परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति | मृत्यु सूचक लक्षण व मृत्यु को जीतने का उपाय | याज्ञयवल्क्य द्वारा सूर्य से वेदज्ञान की प्राप्ति का प्रसंग सुनाना | विश्वावसु को जीवात्मा और परमात्मा की एकता के ज्ञान का उपदेश देना | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश देकर विदा होना | पञ्चशिख और जनक का संवाद | सुलभा का राजा जनक के शरीर में प्रवेश करना | राजा जनक का सुलभा पर दोषारोपण करना | सुलभा का राजा जनक को अज्ञानी बताना | व्यास जी का शुकदेव को धर्मपूर्ण उपदेश देते हुए सावधान करना | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम का वर्णन | शंकर द्वारा व्यास को पुत्रप्राप्ति के लिये वरदान देना | शुकदेव की उत्पति तथा संस्कार का वृतान्त | पिता की आज्ञा से शुकदेव का मिथिला में जाना | शुकदेव का ध्यान में स्थित होना | राजा जनक द्वारा शुकदेव जी का पूजन तथा उनके प्रश्न का समाधान | जनक द्वारा बह्मचर्याश्रम में परमात्मा की प्राप्ति | शुकदेव द्वारा मुक्त पुरुष के लक्षणों का वर्णन | शुकदेव का पिता के पास लौट आना


वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः