विविध प्रकार के तप और दानों का फल

महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 57 में विविध प्रकार के तप और दानों का फल का वर्णन हुआ है[1]-

युधिष्ठिर का विलाप

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! युधिष्ठिर ने कहा- पितामह। इस पृथ्वी को जब मैं उन सम्पतिशालीनरेशों से हीन देखता हूँ तब भारी चिन्ता में पड़कर बारंबार मूर्च्छित-सा होने लगता हूँ। भरतनन्दन। पितामह। यद्यपि मैंने इस पृथ्वी को जीतकर सैकड़ों देशों के राज्यों पर अधिकार पाया है तथापि इसके लिये जो करोड़ों पुरुषों की हत्सा करनी पड़ी है, उसके कारण मेरे मन में बड़ा संताप हो रहा है। हाय। उन बेचारी सुन्दरी स्त्रियों की क्या दशा होगी जो आज अपने पति, पुत्र, भाई और मामा आदि सम्बन्धियों से सदा के लिये विछुड़ गयी हैं। हम लोग अपने ही कुटुम्बीजन कौरवों तथा अन्य सुहृदों का वध करके नीचे मुंह किये नरक में गिरेंगे, इसमें संशय नहीं है। भारत। प्रजानाथ। मैं अपने शरीर को कठोर तपस्या के द्वारा सुखा डालना चाहता हूँ और इसके विषय में आपका यथार्थ उपदेश ग्रहण करना चाहता हूँ।

भीष्म का संवाद

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय। युधिष्ठिर का यह कथन सुनकर महामनस्वी भीष्म जी ने अपनी बुद्धि के द्वारा उस पर भलिभाँति विचार करके उनसे इस प्रकार कहा- प्रजानाथ। मैं तुम्हे एक अद्भुत रहस्य की बात बताता हूँ मनुष्य को मरने पर किस कर्म से कौन-सी गति मिलती है- इस विषय को सुनो। प्रभो तपस्या से स्वर्ग मिलता है, तपस्या से सुयश की प्राप्ति होती है तथा तपस्या से बड़ी आयु, ऊंचा पद और उत्तमोत्तम भोग प्राप्त होते हैं। ‘भरतश्रेष्ठ। ज्ञान, विज्ञान, आरोग्य, रूप, संपत्ति तथा सौभाग्य भी तपस्या से प्राप्त होते हैं। मनुष्य तप करने से धन पाता है। मौन-व्रत के पालन से दूसरों पर हुक्म चलाता है। दान से उपभोग और ब्रह्मचर्य के पालन से दीर्घआयु प्राप्त करता है। अहिंसा का फल है रूप और दीक्षा का फल है उत्तम कुल में जन्म। फल-मूल खाकर रहने वालों को राज्य और पत्ता चबाकर तप करने वालों को स्वर्ग लोक की प्राप्ति होती है। ‘दूध पीकर रहने वाला मनुष्य स्वर्ग को जाता है और दान देने से वह अधिक धनवान होता है। गुरु की सेवा करने से विद्या और नित्य श्राद्ध करने से संतान की प्राप्ति होती है। ‘जो केवल साग खाकर रहने का नियम लेता है वह गोधन से सम्पन्न होता है। तृण खाकर रहने वाले मनुष्यों को स्वर्ग की प्राप्ति होती है। तीनों काल में स्नान करने से बहुतेरी स्त्रियों की प्राप्ति होती है और हवा पीकर रहने से मनुष्य को यज्ञ का फल प्राप्त होता है। राजन। जो द्विज नित्य स्नान करके दोनों समय संध्योपासना और गायत्री-जप करता है वह चतुर होता है। मरू की साध्ना-जल का परित्याग करने वाले तथा निराहार रहने वाले को स्वर्गलोक की प्राप्ति होती है। ‘मिट्टी की वेदी या चबूतरों पर सोने वालों को घर और शैय्याऐं प्राप्त होती हैं। चीर और वल्क के वस्त्र पहनने से उत्तमोत्तम वस्त्र और आभूषण प्राप्त होते हैं। ‘योगयुक्त तपोधन को शैय्या, आसन और वाहन प्राप्त होते हैं। नियमपूर्वक अग्नि में प्रवेश कर जाने पर जीव को ब्रह्मलोक में सम्मान प्राप्त होता है। ‘रसों का परित्याग करने से मनुष्य वहाँ सौभाग्य का भागी होता है। मांस-भक्षण का त्याग करने से दीर्घायु संतान उत्पन्न होती है। ‘जो जल में निवास करता है वह राजा होता है। नरश्रेष्ठ सत्यवादी मनुष्य स्वर्ग में देवताओं के साथ आनन्द भोगता है।

विविध प्रकार के तप और दानों का फल

‘दान से यश, अहिंसा से अरोग्य तथा ब्राह्मणों की सेवा में राज्य एवं अतिशयब्राह्मणत्व की प्राप्ति होती है। ‘जल दान करने से मनुष्य को अक्षय कीर्ति प्राप्त होती है, तथा अन्न-दान करने से मनुष्य को काम और भोग से पूर्णतः तृप्ति मिलती है। ‘जो समस्त प्राणियों को सान्त्वना देता है, वह सम्पूर्ण शोकों से मुक्त हो जाता है, देवाताओं की सेवा से राज्य और दिव्य रूप प्राप्त होते हैं। ‘मन्दिर में दीपक का प्रकाश दान करने से मनुष्य का नेत्र नीरोग होता है। दर्षनीय वस्तुओं का दान करने से मनुष्य स्मरण शक्ति और मेधा प्राप्त कर लेता है। ‘गन्ध और पुण्य-माला दान करने से प्रचुर यश की प्राप्ति होती है। सिर के बाल और दाढ़ी-मूंछ धारण करने वालों को श्रेष्ठ संतान की प्राप्ति होती है। ‘पृथ्वीनाथ। बारह वर्षों तक सम्पूर्ण भोगों का त्याग, दीक्षा (जप आदि नियमों का ग्रहण) तथा तीनों समय स्नान करने से वीर पुरुषों की अपेक्षा भी श्रेष्ठ गति प्राप्ति होती है। ‘नरश्रेष्ठ। जो अपनी पुत्री का ब्रह्म विवाह की विधि से सुयोग्य वर को दान करता है, उसे दास-दासी, अलंकार, क्षेत्र और घर प्राप्त होते हैं। ‘भारत। यज्ञ और उपवास करने से मनुष्य स्वर्गलोक में जाता है तथा फल-फूल का दान करने वाला मानव कल्याणमय मोक्षस्वरूप ज्ञान प्राप्त कर लेता है। ‘सोने से मढ़े हुए सींगों द्वारा सुशोभित होने वाली एक हजार गौओं का दान करने से मनुष्य स्वर्ग में पुण्यमय देवलोक को प्राप्त होता है- ऐसा स्वर्गवासी देववृन्द कहते हैं। जिसके सींगों के अग्र भाग में सोना मढ़ा हुआ हो, ऐसी गाय का कांस से बने हुए दुग्धपात्र और बछड़े समेत जो दान करता है, उस पुरुष के पास वह गौ उन्हीं गुणों से युक्त कामधेनु होकर आती हैं। ‘उस गौ के शरीर में जितने रोएं हैं, उतने वर्षों तक मनुष्य गोदान के पुण्य से स्वर्गीय सुख भोगता है। इतना ही नहीं, वह गौ उसके पुत्र-पौत्र आदि सात पीढि़यों तक समस्त कुल का परलोक में उद्धार कर देती है। ‘जो मनुष्य सोने के सुन्दर सींग बनवाकर और द्रव्यमय उत्तरीय देकर कांस्यमय दुग्ध पात्र तथा दक्षिणा सहित तिल की धेनु का ब्राह्मण को दान करता है, उसे वसुओं के लोक सुलभ होते हैं।

‘जैसे महासागर के बीच में पड़ी हुई नाव वायु का सहारा पाकर पार पहुँचा देती है, उसी प्रकार अपने कर्मों से बंधकर घोर अन्धकारमय नरक में गिरते हुए मनुष्यों को गोदान ही परलोक में पार लगाता है। ‘जो मनुष्य ब्राह्मण विधि से अपनी कन्या का दान करता है, ब्राह्मण को भूमिदान देता है तथा विधिपूर्वक अन्न का दान करता है, उसे इन्द्रलोक की प्राप्ति होती है। ‘जो मनुष्य स्वाध्यायशील और सदाचारी ब्राह्मण को सर्वगुण सम्पन्न गृह और शैय्या आदि गृहस्थी के सामान देता है, उसे उत्तर कुरुदेश में निवास प्राप्त होता है। ‘भारत ढोने में समर्थ बैल और गायों का दान करने से मनुष्य को वसुओं के लोक प्राप्त होते हैं। सुवर्णमय आभूषणों का दान स्वर्गलोक की प्राप्ति कराने वाला बताया गया है और विशुद्ध पक्के सोने का दान उससे भी उत्तम फल देता है। ‘छाता देने से उत्तम घर, जूता दान करने से सवारी, वस्त्र देने से सुन्दर रूप और गन्ध दान करने से सुगन्धित शरीर की प्राप्ति होती है।[2] ‘जो ब्राह्मण को फल अथवा फूलों से भरे हुए वृक्ष का दान करता है, वह अनायास ही नाना प्रकार के रत्नों से परिपूर्ण, धनसम्पन्न समृद्धिशाली घर प्राप्त कर लेता है। ‘अन्न, जल और रस प्रदान करने वाल पुरुष इच्छानुसार सब प्रकार के रसों को प्राप्त करता है तथा जो रहने के लिये घर और ओढ़ने के लिये वस्त्र देता है, उसे भी इन्हीं वस्तुओं की उपलब्धि होती है। इसमें संशय नहीं है। ‘नरेन्द्र। जो मनुष्य ब्राह्मणों को फूलों की माला, धूप, चन्दन, उबटन, नहाने के लिये जल और पुण्य दान करता है, वह संसार में नीरोग और सुन्दर रूप वाला होता है। ‘राजन। जो पुरुष ब्राह्मण को अन्न और शैय्या से सम्पन्न गृहदान करता है, उसे अत्यन्त पवित्र, मनोहर और नान प्रकार के रत्नों से भरा हुआ उत्तम घर प्राप्त होता है। ‘जो मनुष्य ब्राह्मण को सुगन्धयुक्त विचित्र बिछौने और तकिये युक्त शैय्या का दान करता है, वह बिना यत्न के ही उत्तम कुल में उत्पन्न अथवा सुन्दर केशपाश वाली, रूपवती एवं मनाहारिणी भार्या प्राप्त कर लेता है। ‘संग्राम भूमि में वीर शैय्या पर शयन करने वाला पुरुष ब्रह्मा जी के समान हो जाता है। ब्रह्मा जी से बढ़कर कुछ भी नहीं है- ऐसा महर्षियों का कथन है’।

युधिष्ठिर का प्रस्न होना

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय। पितामह का यह वचन सुनकर युधिष्ठिर का मन प्रसन्न हो उठा। एवं वीरमार्ग की अभिलाषा उत्पन्न हो जाने के कारण उन्होंने आश्रम में निवास करने की इच्छा का त्याग कर दिया। पुरुषप्रवर। तब शक्तिशाली राजा युधिष्ठिर ने पाण्डवों से कहा- ‘वीरमार्ग के विषय में पितामह का जो कथन है, उसी में तुम सब लोगों की रुचि होनी चाहिये;। ।तब समस्त पाण्डवों तथा यशस्विनी द्रौपदी देवी ने ‘बहुत अच्छा’ कहकर युधिष्ठिर के उस वचन का आदर किया।[3]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 57 श्लोक 1-18
  2. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 57 श्लोक 19-35
  3. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 57 श्लोक 36-44

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दान-धर्म-पर्व
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मनुष्यों का वर्णन | दान लेने और अनुचित भोजन करने का प्रायश्चित | दान से स्वर्गलोक में जाने वाले राजाओं का वर्णन | पाँच प्रकार के दानों का वर्णन | तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना | ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना | नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन | शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना | शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना | वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार | प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण | वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा | ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का वर्णन | बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन | स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन | उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन | मनुष्य को बुद्धिमान, मन्दबुद्धि तथा नपुंसक बनाने वाले कर्मों का वर्णन | राजधर्म का वर्णन | योद्धाओं के धर्म का वर्णन | रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा | संक्षेप से राजधर्म का वर्णन | अहिंसा और इन्द्रिय संयम की प्रशंसा | दैव की प्रधानता | त्रिवर्ग का निरूपण | कल्याणकारी आचार-व्यवहार का वर्णन | विविध प्रकार के कर्मफलों का वर्णन | अन्धत्व और पंगुत्व आदि दोषों और रोगों के कारणभूत दुष्कर्मों का वर्णन | उमा-महेश्वर संवाद में महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन | प्राणियों के चार भेदों का निरूपण | पूर्वजन्म की स्मृति का रहस्य | मरकर फिर लौटने में कारण स्वप्नदर्शन | दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन | यमलोक तथा वहाँ के मार्गों का वर्णन | पापियों की नरकयातनाओं का वर्णन | कर्मानुसार विभिन्न योनियों में पापियों के जन्म का उल्लेख | शुभाशुभ आदि तीन प्रकार के कर्मों का स्वरूप और उनके फल का वर्णन | मद्यसेवन के दोषों का वर्णन | पुण्य के विधान का वर्णन | व्रत धारण करने से शुभ फल की प्राप्ति | शौचाचार का वर्णन | आहार शुद्धि का वर्णन | मांसभक्षण से दोष तथा मांस न खाने से लाभ | गुरुपूजा का महत्त्व | उपवास की विधि | तीर्थस्थान की विधि | सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य | अन्न, सुवर्ण और गौदान का माहात्म्य | भूमिदान के महत्त्व का वर्णन | कन्या और विद्यादान का माहात्म्य | तिल का दान और उसके फल का माहात्म्य | नाना प्रकार के दानों का फल | लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताओं की पूजा का निरूपण | श्राद्धविधान आदि का वर्णन | दान के पाँच फल | अशुभदान से भी शुभ फल की प्राप्ति | नाना प्रकार के धर्म और उनके फलों का प्रतिपादन | शुभ और अशुभ गति का निश्चय कराने वाले लक्षणों का वर्णन | मृत्यु के भेद | कर्तव्यपालनपूर्वक शरीरत्याग का महान फल | काम, क्रोध आदि द्वारा देहत्याग करने से नरक की प्राप्ति | मोक्षधर्म की श्रेष्ठता का प्रतिपादन | मोक्षसाधक ज्ञान की प्राप्ति का उपाय | मोक्ष की प्राप्ति में वैराग्य की प्रधानता | सांख्यज्ञान का प्रतिपादन | अव्यक्तादि चौबीस तत्त्वों की उत्पत्ति आदि का वर्णन | योगधर्म का प्रतिपादनपूर्वक उसके फल का वर्णन | पाशुपत योग का वर्णन | शिवलिंग-पूजन का माहात्म्य | पार्वती के द्वारा स्त्री-धर्म का वर्णन | वंश परम्परा का कथन और श्रीकृष्ण के माहात्म्य का वर्णन | श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन और भीष्म का युधिष्ठिर को राज्य करने का आदेश | श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम् | जपने योग्य मंत्र और सबेरे-शाम कीर्तन करने योग्य देवता | ऋषियों और राजाओं के मंगलमय नामों का कीर्तन-माहात्म्य | गायत्री मंत्र का फल | ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन | कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन | ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद | वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन | ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन | ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन | अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन | कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार | ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना | भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन | श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना | श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना | श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता | भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन | साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण | युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना | भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना | नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य | भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन | भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना | भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना | भीष्म का प्राणत्याग | धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार | गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना

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