विमलतीर्थ

विमलतीर्थ
Vimaltirth.JPG
पूरा नाम विमलतीर्थ
अभिभावक नाना- पण्डित निरंजन, नानी- सुनन्‍दा देवी
पति/पत्नी सुनयनादेवी
कर्म भूमि भारत
प्रसिद्धि भक्त
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी विमलतीर्थ बचपन से ही भगवान श्रीनारायण के परम भक्त थे। इनको पढ़ाने में अध्‍यापक महोदय को विशेष परिश्रम नहीं करना पड़ता था। ये ग्रन्‍थों को ऐसे सहज ही पढ़ लेते थे, जैसे कोई पहले पढ़े हुए पाठ को याद कर लेता हो। इनकी बुद्धि बड़ी तीव्र थी।

विमलतीर्थ नैष्ठिक ब्राह्मण थे। इनका कुल बड़ा ही सदाचारी और पवित्र था। त्रिकाल-सन्‍ध्‍या, अग्निहोत्र, वेद का स्‍वाध्‍याय, तत्त्वविचार आदि इनके कुल में सबके लिये मानो स्‍वाभाविक कर्म थे। सत्‍य, अहिंसा, क्षमा, दया, नम्रता, अस्‍तेय, अपरिग्रह और सन्‍तोष आदि गुण इस कुल में पैतृक सम्‍पत्ति के रूप में सबको मिलते थे। इतना सब होने पर भी भगवान के प्रति भक्ति का भाव जैसा होना चाहिये, वैसा नहीं देखा जाता था। पण्डित विमलतीर्थ इस कुल के एक अनुपम रत्‍न थे।

प्रारम्भिक समय और शिक्षा

विमलतीर्थ की माता का देहान्‍त लड़कपन में ही हो गया था। ननिहाल में बालकों का अभाव था, अत: ये पहले से ही अधिकांश समय नानी के पास रहते थे। माता के मरने पर तो नानी ने इनको छोड़ना ही नहीं चाहा, ये वहीं रहे। इनके नाना पण्डित निरंजन जी भी बड़े विद्वान और महाशय थे। उनसे इनको सदाचार की शिक्षा मिलती थी तथा गाँव के ही एक सुनिपुण अध्‍यापक इन्‍हें पढ़ाते थे। इनकी बुद्धि बड़ी तीव्र थी। कुल परम्‍परा की पवित्र विद्याभिरुचि इनमें थी ही। अतएव इनको पढ़ाने में अध्‍यापक महोदय को विशेष परिश्रम नहीं करना पड़ता था। ये ग्रन्‍थों को ऐसे सहज ही पढ़ लेते थे, जैसे कोई पहले पढ़े हुए पाठ को याद कर लेता हो। यज्ञोपवीत नाना जी ने करवा ही दिया था, इसलिये ये त्रिकाल-सन्‍ध्‍या करते थे। नित्‍य प्रात: काल बड़ों को प्रणाम करते, उनकी श्रेष्‍ठ आज्ञाओं का कुतर्कशून्‍य बुद्धि से परंतु समझकर भलीभाँति पालन करते और सहज ही सबके स्‍नेह भाजन बने हुए थे।[1]

भगवान नारायण की सेवा

विमलतीर्थ जी की नानी सुनन्‍दा देवी परम भक्तिमती थी। उसने अपने पति की परमेश्‍वर भाव से सेवा करने के साथ ही परम पति, पति के भी पति भगवान की सेवा में अपने जीवन को लगा रखा था। भगवान पर और उनके मंगल-विधान पर उसका अटल विश्‍वास था और इसलिये वह प्रत्‍येक स्थिति में नित्‍य प्रसन्‍न रहा करती थी। इस प्रकार की गुणवती पत्‍नी को पाकर पण्डित निरंजन जी भी अपने को धन्‍य मानते थे। सुनन्‍दा देवी घर का सारा काम बड़ी दक्षता तथा सावधानी के साथ करती। परंतु इसमें उसका भाव यही रहता कि ‘यह घर भगवान का है, मुझे इसकी सेवा का भार सौंपा गया है। जब तक मेरे जिम्‍मे यह कार्य है, तब तक मुझे इसको सुचारु रूप से करना है।' इस प्रकार समझकर वह सारे कार्य करती; परंतु घर में, घर की वस्‍तुओं में, कार्य में तथा कार्य के फल में न उसकी आसक्ति थी, न ममता। उनकी सारी आसक्ति और ममता अपने प्रभु भगवान नारायण में केन्द्रित हो गयी थी। इसलिये वह जो कुछ भी करती, सब अपने प्रभु श्री नारायण की प्रीति के लिये, उन्‍हीं का काम समझकर करती। इससे काम करने में भी उसे विशेष सुख मिलता था।

शुद्ध कर्तव्‍य बुद्धि से किये जाने वाले कर्म में भी सुख है; परंतु उसमें वह सुख नहीं है, जो अपने प्राण प्रिय प्रभु की प्रसन्‍नता के लिये किये जाने वाले कर्म में होता है। उसमें रूखापन तो कभी होता ही नहीं, एक विशेष प्रकार के रस की अनुभूति होती है, जो प्रेमी को पद-पद पर उल्‍लसित और उत्‍फुल्लित करती रहती है और वह नित्‍य-नूतन उत्‍साह से सहज ही प्राणों को न्‍योछावर करके प्रभु का कार्य करता रहता है। परंतु इस प्रकार के कार्य में जो उसे अप्रतिम रसानुभूति मिलती है, उसका कारण कर्म या उसका कोई फल नहीं है। उसका कारण है- प्रभु में केन्द्रित आसक्ति और ममत्‍व। प्रभु उस कार्य से प्रसन्‍न न हों और किसी दूसरे कार्य में लगाना चाहें तो उसे उस पहले कार्य को छोड़कर दूसरे के करने में वही आनन्‍द प्राप्‍त होगा, जो पहले को करने में होता था। सुनन्‍दा का इसी भाव से घरवालों के साथ सम्‍बन्‍ध था और इसी भाव से वह घर का सारा कार्य सँभालती तथा करती थी।

नानी का ममत्‍व

मातृहीन विमल को भी सुनन्‍दा इसी भाव से हृदय की सारी स्‍नेह-सुधा को उँडेलकर प्‍यार करती और पालती-पोसती है कि वह प्रियतम प्रभु भगवान के द्वारा सौंपा हुआ सेवा का पात्र है। उसमें नानी का बड़ा ममत्‍व था; पर वह इसलिये नहीं था कि विमल उसकी कन्‍या का लड़का है, वरं इसलिये था कि वह भगवान के बगीचे का एक सुन्‍दर सुमधुर फलवृक्ष है, जो सेवा-सँभाल के लिये उसे सौंपा गया है। नानी के पवित्र और विशद स्‍नेह का विमल पर बड़ा प्रभाव पड़ा और विमल की मति भी क्रमश: नानी की सुमति की भाँति ही उत्तरोत्तर विमल होती गयी। उसमें भगवत्‍परायणता, भगवद्विश्‍वास, भगवद्भक्ति और शुभ भगवदीय कर्म के मधुर तथा निर्मल भाव जाग्रत हो गये। वह नानी की भगवद-विग्रह की सेवा को देख-देखकर मुग्‍ध होता, उसके मन में भी भगवत्‍सेवा की आती। अन्‍त में उसके सच्‍चे तथा तीव्र मनोरथ को देखकर भगवान की प्रेरणा से नानी ने उसके लिये भी एक सुन्‍दर भगवान नारायण की प्रतिमा मँगवा दी और नानी के उपदेशानुसार बालक विमल बड़े भक्तिभाव से भगवान की पूजा करने लगा।

विमल वंश

विमलतीर्थ जी के विमल वंश में सभी कुछ विमल तथा पवित्र था। भगवद्भक्ति की कुछ कमी थी- वह यों पूरी हो गयी। कर्मकाण्ड, विद्या तथा तत्त्व-विचार के साथ जिसमें नम्रता तथा विनय होती है, वह अन्‍त में विद्या तथा तत्त्व के परम फल श्रीभगवान की भक्ति को अवश्‍य प्राप्‍त करता है। परंतु जहाँ कर्मकाण्ड, विद्या एवं तत्त्वविचार अभिमान तथा घमंड पैदा करने वाले होते हैं, वहाँ परिणाम में पतन होता है। वस्‍तुत: जो कर्म, जो विद्या और जो विचार भगवान की ओर न ले जाकार अभिमान के मल से अन्‍त: करण को दूषित कर देते हैं, वे तो कुकर्म, अविद्या और अविचाररूप ही हैं। विमलतीर्थ के कुल में कर्म, विद्या और तत्त्वविचार के साथ सहज नम्रता थी- विनय थी और उसका फल भगवान में रुचि तथा रति उत्‍पन्‍न होना अनिवार्य था। सत्‍कर्म का फल शुभ ही होता है और परम शुभ तो भगवद्भक्ति ही है। नानी सुनन्‍दा के संग से विमलतीर्थ की विमल कुल परम्‍परा के पवित्र फल का प्रादुर्भाव हो गया!

विवाह

नाना-नानी ने बड़े उत्‍साह से पवित्र कुल की साधुस्‍वभावा सुनयनादेवी के साथ विमलतीर्थ का विवाह पवित्र वैदिक विधान के अनुसार कर दिया। सुलक्षणवती बहू घर में आ गयी। वृद्धा सुनन्‍दा के शरीर की शक्ति क्षीण हो चली थी, अत: घर के कार्य का तथा नानी जी के ठाकुर की पूजा का भार सुनयना ने अपने ऊपर ले लिया। वृद्धा अब अपना सारा समय भगवान के स्‍मरण में लगाने लगी। निरंजन पण्डित भी बूढ़े हो गये थे, पर उनका स्‍वभाव बड़ा ही सुन्‍दर था। उन्‍होंने भी अपना मन भगवान में लगाया।

ठाकुर-सेवा

कुछ समय के बाद ही वृद्ध नाना-नानी की भगवान का स्‍मरण करते-करते बिना किसी बीमारी के सहज ही मृत्‍यु हो गयी। विमल और सुनयना यों तो नाना-नानी की सेवा सदा-सर्वदा करते ही थे, परंतु पुण्‍यपुंज दम्‍पति ने बीमार होकर उनसे सेवा नहीं ली। अब विमलतीर्थ ही इस घर के स्‍वामी हुए। पति-पत्‍नी में बड़ा प्रेम था, दोनों के बहुत पवित्र आचरण थे। दोनों ही भक्तिपरायण थे। विमल अपने भगवान की पूजा नियमित रूप से प्रेमपूर्वक करते थे और सुनयना देवी नानी सुनन्‍दा के दिये हुए भगवान की पूजा करती थी। यों पति-पत्‍नी के अलग-अलग ठाकुर जी थे। पर ठाकुर-सेवा में दोनों को बड़ा आनन्‍द आता था। दोनों ही मानो होड़-सी लगाकर अपने-अपने भगवान को सुख पहुँचाने में संलग्‍न रहते थे। दोनों में ही विद्या थी, श्रद्धा थी और सात्त्विक सेवा-भाव था।

भाईयों का स्‍नेह-सौहार्द

विमलतीर्थ के तीन बड़े भाई थे। वे भी बहुत अच्‍छे स्‍वभाव के तथा शुभ कर्मपरायण थे। छोटे भाई विमल अब एक प्रकार से उन लोगों के मामा के स्‍थानापन्‍न थे। चारों में परस्‍पर बड़ी प्रीति और स्‍नेह-सौहार्द था। प्रीति का नाश तो स्‍वार्थ में होता है। इनका स्‍वार्थ विचित्र ढंग का था। ये एक-दूसरे का विशेष हित करने, सुख पहुँचाने और सेवा करने में ही अपना स्‍वार्थ समझते थे। त्‍याग तो मानो इनकी स्‍वाभाविक सम्‍पत्ति थी। जहाँ त्‍याग होता है, वहाँ प्रेम रहता ही है और जहाँ प्रेम होता है, वहाँ आनन्‍द को रहने, बढ़ने तथा फूलने-फलने के लिये पर्याप्‍त अवकाश मिलता है। दोनों परिवार इसीलिये आनन्‍दपूर्ण थे। नाम ही दो थे। वस्‍तुत: कार्य रूप में एक ही थे।

वैराग्‍य और भक्ति

विमलतीर्थ जी के मन में वैराग्‍य तो था ही। धीरे-धीरे उसमें वृद्धि होने लगी। भगवान की कृपा से उनकी धर्मपत्‍नी इसमें सहायक हुई। दोनों में मानो वैराग्‍य तथा भक्ति की होड़ लगी थी। ऐसी सात्त्विक ईर्ष्‍या भगवत्‍कृपा से ही होती है। इस ईर्ष्‍या में एक-दूसरे से आगे बढ़ने की चेष्‍टा तो होती है, परंतु गिराने की या रोकने की नहीं होती। बल्कि एक-दूसरे की सहायता करने में ही प्रसन्‍नता होती है। शक्ति गिराने में नहीं, बढ़ने और बढ़ाने में लगती है। यही शक्ति का सदुपयोग है। आखिर उपरति बढ़ी, दोनों भगवान के ध्‍यान में मस्‍त रहने लगे।

नारायण साधना

एक दिन भगवान ने कृपा करके सुनयना देवी को दर्शन दिये और उसी दिन भगवदाज्ञा से वे शरीर छोड़कर भगवान के परम धाम में चली गयीं। विमलतीर्थ जी को इससे बड़ी प्रसन्‍नता हुई। होड़ में पत्‍नी की विजय हुई। उसने भगवान का साक्षात्‍कार पहले किया। विमलतीर्थ जी के लिये यह बड़े ही आनन्‍द का प्रसंग था। विमलतीर्थ सर्वथा साधना में लग गये। वे वन में जाकर एकान्‍त में रहने लगे और अपनी सारी विद्या-बुद्धि को भूलकर निरन्‍तर भगवान श्रीनारायण के मंगलमय ध्‍यान में ही रत रहने लगे। धीरे-धीरे भगवान के दिव्‍य दर्शन की उत्‍कण्‍ठा बढ़ी और एक दिन तो वह इतनी बढ़ गयी कि अब क्षण भर का विलम्‍ब भी असह्य हो गया। जैसे अत्‍यन्‍त पिपासा से व्‍याकुल होकर मनुष्‍य जल की बूँद के लिये छटपटाता है और एक क्षण की देर भी सहन नहीं कर सकता, वैसी दशा जब भगवान के दर्शन के लिए भक्त की हो जाती है, तब भगवान को भी एक क्षण का विलम्‍ब असह्य हो जाता है और वे अपने सारे ऐश्‍वर्य-वैभव को भुलाकर उस नगण्‍य मानव के सामने प्रकट होकर उसे कृतार्थ करते हैं।

भगवान का दर्शन

भक्तवा कल्पतरु भगवान श्रीनारायण विमलतीर्थ को कृतार्थ करने के लिए उनके सामने प्रकट हो गये। वे चकित होकर निर्निमेष नेत्रों से उस विलक्षण रूपमाधुरी को देखते ही रह गये। बड़ी देर के बाद उनमें हिलने-डोलने तथा बोलने की शक्ति आयी। तब तो आनन्‍दमुग्ध होकर वे भगवान के चरणों में लोट गये और प्रेमाश्रुओं से उनके चरण-पद्मों को पखारने लगे। भगवान ने उठाकर बड़े स्‍नेह से उनको हृदय से लगा लिया और अपनी अनुपम अनन्‍य भक्ति का दान देकर सदा के लिये पावन बना दिया।[1]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 पुस्तक- भक्त चरितांक | प्रकाशक- गीता प्रेस, गोरखपुर | विक्रमी संवत- 2071 (वर्ष-2014) | पृष्ठ संख्या- 666

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः