विभिन्न पापों के फलस्वरूप नरकादि की प्राप्ति एवं तिर्यग्योनियों में जन्म लेने का वर्णन

महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 111 में विभिन्न पापों के फलस्वरूप नरकादि की प्राप्ति एवं तिर्यग्योनियों में जन्म लेने का वर्णन का वर्णन हुआ है।[1]

युधिष्ठिर-बृहस्पति संवाद

युधिष्ठिर ने कहा- भगवन! गर्भ जिस प्रकार उत्पन्न होता है, वह आपने बताया। अब यह बताइये कि उत्पन्न हुआ पुरुष पुनः किस प्रकार बंधन में पड़ता है।

बृहस्पति जी ने कहा- राजन! जीव उस वीर्य में प्रविष्ठ होकर जब गर्भ में संनिहित होता है, तब वे पांचों भूत शरीर रूप में परिणित हो उसे बांध लेते हैं, फिर उन्हीं भूतों विलग होने पर वह दूसरी गति को प्राप्त होता है। शरीर में संपूर्ण भूतों से युक्त हुआ वह जीव ही सुख या दुःख पाता है। उस समय पांचों भूतों में स्थित उनके अधिष्ठाता देवता जीव के शुभ या अशुभ कर्म को देखते हैं। अब और क्या सुनना चाहते हो?

युधिष्ठिर ने पूछा- भगवन! जीव त्वचा, अस्थि और मांसमय शरीर का त्याग करके जब पांचों भूतों के सम्बन्ध से पृथक हो जाता है, तब कहाँ रहकर वह सुख-दुख का उपभोग करता है?

बृहस्पति जी ने कहा- भारत! जीव अपने कर्मों से प्रेरित होकर शीघ्र ही वीर्य भाव को प्राप्त होता है और स्त्री के रज में प्रविष्ट होकर समयानुसार जन्म धारण करता है।[1]

विभिन्न पापों के फलस्वरूप नरकादि की प्राप्ति

(गर्भ में आने के पहले सूक्ष्म शरीर में स्थित होकर अपने दुष्कर्मों के कारण) वह यमदूतों द्वारा नाना प्रकार के क्लेष पाता, उनके प्रहार सहता और दुःखमय संसार चक्र में भाँति-भाँति के कष्ट भोगता है। पृथ्वीनाथ। यदि प्राणी इस लोक में जन्म से ही पुण्य कर्म में लगा रहता है तो वह धर्म के फल का आश्रय लेकर उसके अनुसार सुख भोगता है। यदि अपनी शक्ति के अनुसार बाल्यकाल से ही धर्म का सेवन करता है तो वह मनुष्य होकर सदा सुख का अनुभव करता है। किंतु धर्म के बीच में यदि कभी-कभी वह अधर्म का भी आचरण कर बैठता है तो उसे सुख के बाद दुःख भी भोगना पड़ता है।

अधर्म परायण मनुष्य यमलोक में जाता है और वहाँ महान दुःख भोगकर यहाँ पशु-पक्षियों की योनि में जन्म लेता है। जीव मोह के वशीभूत होकर जिस-जिस कर्म का अनुष्ठान करने से जैसी-जैसी योनि में जन्म धारण करता है, उसे बता रहा हूँ। शास्त्र, इतिहास और वेद में जो यह बात बताई गई है कि मनुष्य इस लोक में पाप करने पर मृत्यु के पश्चात यमराज के भयंकर लोक में जाता है, यह सत्य ही है। भूपाल! इस यमलोक में देवलोक के समान पुण्यमय स्थान भी हैं, जिनके तिर्यक (तथा कीट-पतंग आदि) योनि के प्राणियों को छोड़कर समस्त पुण्यात्मा जन्म जीव होते हैं। यमराज का भवन सौन्दर्य आदि गुणों के कारण ब्रह्मलोक के समान दिव्य भी है। परंतु अपने नीयत पाप कर्मों से बंधा हुआ जीव वहाँ भी नरक में पड़कर दुःख भोगता है। मनुष्य जिस-जिस भाव और जिस-जिस कर्म से निष्ठुरता पूर्ण भयंकर गति को प्राप्त होता, अब उसी को बता रहा हूँ। जो द्विज चारों वेदों का अध्ययन करने बाद भी मोहवश पतित मनुष्यों से दान लेता है, उसका गदहे की योनि में जन्म होता है।

भारत! गदहे की योनि में वह पन्द्रह वर्षों तक जीवित रहता है। उसके बाद मरकर बैल होता है। उस योनि में वह सात वर्षों तक जीवित रहता है। जब बैल का शरीर छूट जाता है, तब वह ब्रह्म राक्षस होता है। तीन मास तक ब्रह्म राक्षस रहने के बाद फिर वह ब्राह्मण का जन्म पाता है। भारत! जो ब्राह्मण पतित पुरुष को यज्ञ कराता है, वह मरने के बाद कीड़े की योनि में जन्म लेता है और उस योनि में पन्द्रह वर्षों तक जीवित रहता है। कीड़े की योनि से छूटने पर वह गदहे का जन्म पाता है। पांच वर्ष तक गधा रहकर पांच वर्ष सूअर, पांच वर्ष मुर्गा, पांच वर्ष सियार और एक वर्ष कुत्ता होता है। उसके बाद वह मनुष्य योनि में उत्पन्न होता है। जो मूर्ख शिष्य अपने अध्यापक का अपराध करता है, वह यहाँ निम्नांकित तीन योनियों में जन्म ग्रहण करता है, इसमें संशय नहीं है। राजेन्द्र! पहले तो वह कुत्ता होता है फिर राक्षस और गदहा होता है। उसके बाद मरकर प्रेतावस्था में अनेक कष्ट भोगने के पश्चात ब्राह्मण का जन्म पाता है। जो पापाचरी शिष्य गुरुपत्नि के साथ समागम का विचार भी मन में लाता है वह अपने मानसिक पाप के कारण भयंकर योनियों में जन्म लेता है।[2]

पहले कुत्ते की योनि में जन्म लेकर वह तीन वर्ष तक जीवन धारण करता है। उस योनि में मृत्यु को प्राप्त होकर वह कीड़े की योनि में उत्पन्न होता है। कीट योनि में जन्म लेकर वह एक वर्ष तक जीवित रहता है। फिर मरने के बाद उसका ब्राह्मण योनि में जन्म होता है। यदि गुरु अपने पुत्र समान शिष्य को बिना कारण ही मारता-पीटता है तो वह अपनी स्वेच्छाचारिता के कारण हिंसक पशु की योनि में जन्म लेता है।

भिन्न योनियों मे जन्म का वर्णन

राजन! जो पुत्र अपने माता-पिता का अनादर करता है वह भी मरने बाद पहले गदहा नामक प्राणी होता है। गदहे का शरीर पाकर वह दस वर्षों तक जीवित रहता है। फिर एक साल तक घडियाल रहने के बाद मानव योनि में उत्पन्न होता है। जिस पुत्र के ऊपर माता और पिता दोनों ही रुष्ट होते हैं, वह गुरुजनों के अनिष्ट चिंतन के कारण मृत्यु के बाद गदहा होता है। गदहे की योनि में वह दस मास तक जीवित रहता है। उसके बाद चौदह महीनों तक कुत्ता और सात माह तक बिलाव होकर अन्त में वह मनुष्य की योनि में जन्म ग्रहण करता है। माता-पिता की निंदा करके अथवा उन्हें गाली देकर मनुष्य दूसरे जन्म में मैना होता है।

नरेश्‍वर! जो माता-पिता को मारता है, वह कछुआ होता है। दस वर्ष तक कछुआ रहने के पश्चात तीन वर्ष सही और छः महीने तक सर्प होता है। उसके अनन्तर वह मनुष्य योनि में जन्म लेता है। जो पुरुष राजा के टुकड़े खाकर पलता हुआ भी मोहवश उसके शत्रुओं की सेवा करता है, वह मरने बाद वानर होता है। दस वर्षों तक वानर, पांच वर्षों तक चूहा और छः महीनों तक कुत्ता होकर वह मनुष्य का जन्म पाता है। दूसरों की धरोहर हड़प लेने वाला मनुष्य यमलोक में जाता और क्रमश: सौ योनियों में भ्रमण करके अन्त में कीड़ा होता है। भारत। कीड़े की योनि में वह पन्द्रह वर्षों तक जीवित रहता है और अपने पापों का क्षय करके अन्त में मनुष्य योनि में जन्म लेता है। दूसरों के दोष ढ़ूढने वाला मनुष्य हरिण की योनि में जन्म लेता है तथा जो अपनी खोटी बुद्धि के कारण किसी के साथ विश्‍वासघात करता है, वह मनुष्य मछली होता है।

भारत! आठ वर्षों तक मछली रहकर मरने के बाद वह चार मास तक मृग होता है। उसके बाद बकरे की योनि में जन्म लेता है। बकरा पूरे एक वर्ष पर मृत्यु को प्राप्त होन के पश्चात कीड़ा होता है। उसके बाद उस जीव को मनुष्य का जन्म मिलता है। महाराज! जो पुरुष लज्ला का परित्याग करके अज्ञान और मोह के वशीभूत होकर दान, जौ, तिल, उड़द, कुलथी, सरसों, चना, मटर, मूंग, गैहूँ और तीसी तथ दूसरे-दूसरे अनाजों की चोरी करता है वह मरने के बाद पहले चूहा होता है। राजन! फिर वह चूहा मृत्यु के पश्चात सूअर होता है। नरेश्‍वर। वह सूअर जन्म लेते ही रोग से मर जाता है। पृथ्वीनाथ। फिर उसी कर्म से वह मूढ़ जीव कुत्ता होता है और पांच वर्ष तक कुत्ता होकर अन्त में मनुष्य का जन्म पाता है। परस्त्री गमन का पाप करके मनुष्य क्रमश: भेडि़या, कुत्ता, सियार, गीध, कंक, सांप और बगुला होता है। [3]

नरेश्‍वर! जो पापात्मा मोहवश भाई की स्त्री के साथ बलात्कार करता है, वह एक वर्ष तक कोयल की योनि में पड़ा रहता है। जो कामना की पूर्ति के लिये मित्र, गुरु और राजा की स्त्री का सतीत्व भंग करता है, वह मरने बाद सूअर होता है। पांच वर्ष तक सूअर रहकर दस वर्ष भेडिया, पांच वर्ष बिलाव, दस वर्ष मुर्गा, तीन महीने चींटी और एक महीने कीड़े की योनि में रहता है। इन सभी योनियों में चक्कर लगाने के बाद वह पुनः कीड़े की योनि में जन्म लेता है। उस कीट योनि में वह चौदह महीनों तक जीवन धारण करता है। तदनन्तर पापक्षय करके वह पुनः मनुष्य-योनि में जन्म लेता है। प्रभो। जो विवाह, यज्ञ अथवा दान का अवसर आने पर मोहवश उसमें विघ्न डालता है, वह भी मरने के बाद कीड़ा ही होता है। भारत! वह कीट पंद्रह वर्षों तक जीवित रहता है। फिर पापों का क्षय करके वह मनुष्य योनि में जन्म लेता है। राजन! जो पहले एक व्यक्ति को कन्यादान करके फिर दूसरे को उसी कन्या का दान करना चाहता है, वह भी मरने बाद कीड़े की योनि में जन्म लेता है।

युधिष्ठिर! उस योनि में वह तेरह वर्षो तक जीवन धारण करता है। तदनन्तर पाप क्षय के पश्चात वह पुनः मनुष्य योनि में उत्पन्न होता है। जो देवकार्य अथवा पितृकार्य न करके बलिवैश्‍वदेव किया बिना ही अन्न ग्रहण करता है, वह मरने के बाद कौए की योनि में जन्म लेता है। सौ वर्षों तक कौए के शरीर में रहकर वह मुर्गा होता है। उसके बाद एक मास तक सर्प रहता है। तत्पश्‍चात मनुष्य का जन्म पाता है। बड़ा भाई पिता के समान आदरणीय है, जो उसका अपमान करता है, उसे मृत्यु के बाद क्रांच पक्षी की योनि में जन्म लेना पड़ता है। क्रांच होकर वह एक वर्ष तक जीवित रहता है। उसके बाद चीरक जाति का पक्षी होता है और फिर मरने के बाद मनुष्य-योनि में जन्म पाता है। शूद्र-जाति का पुरुष ब्राह्मण जाति की स्त्री के साथ समागम करके देहत्याग के पश्‍चात पहले कीड़े की योनि में जन्म लेता है। फिर मरने के बाद सूअर होता है।

नरेश्‍वर! सूअर की योनि में जन्म लेते ही वह रोग से मर जाता है। पृथ्वीनाथ! तत्पश्‍चात वह मूढ़ जीव उसी पाप-कर्म के कारण कुत्ता होता है। कुत्ता होने पर पापकर्म का भोग समाप्त करके वह मनुष्यों में जन्म लेता है। मनुष्य योनि में भी वह एक ही संतान पैदा करे मर जाता है और शेष पाप का फल भोगने के लिये चूहा होता है। राजन। कृतघ्न मनुष्य मरने के बाद यमराज के लोक में जाता है। जहाँ क्रोध में भरे हुए यमदूत उसके ऊपर बड़ी निर्दयता के साथ प्रहार करते हैं। भारत! वह दण्ड, मुद्गर और शूल की चोट खाकर दारुण अग्निकुम्भ (कुम्भीपाक), असिपत्रवन, तपी हुई भयंकर बालू, कांटों से भी भरी हुई शाल्मली आदि नरकों में कष्ट भोगता है। यमलोक में पहुँचकर इन ऊपर बताये हुए तथा और भी बहुत-से नरकों की भयंकर यातनाऐं भोगकर वह वहाँ यमदूतों द्वारा पीटा जाता है। भरतश्रेष्ठ। इस प्रकार निर्दयी यमदूतों से पीड़ित हुआ कृतघ्न पुरुष पुनः संसारचक्र में आता और कीड़े की योनि में जन्म लेता है।[4]

भारत! पंद्रह वर्षों तक वह कीड़े की योनि में रहता है। फिर गर्भ में आकर वहीं गर्भस्थ शिशु की दशा में ही मर जाता है। इस तरह कई सौ बार वह जीव गर्भ की यंत्रणा भोगता है। तदनन्तर बहुत बार जन्म लेेने के पश्चात तिर्यक योनि में उत्पन्न होता है। इस योनियों में बहुत वर्षों तक दुःख भोगने के पश्‍चात वह फिर मनुष्य योनि में न आकर दीर्घकाल के लिये कछुआ हो जाता है। दुर्बधि मनुष्य दही की चोरी करके बगला होता है, कच्ची मछलियों की चोरी करके वह कारण्डव नामक जल पक्षी होता है और मधु का अपहरण करके वह डांस (मच्छर) की योनि में जन्म लेता है। फल, मूल अथवा पुए की चोरी करने पर मनुष्य को चींटी की योनि में जन्म लेना पड़ता है। निष्पाव (मटर या उड़द) की चोरी करने बाला हरगोलक नामक कीड़ा होता है। खीर की चोरी करने वाला तीतर की योनि में जन्म लेता है। आटे का पुआ चुराकर मनुष्य मरने के बाद उल्लू होता है।

लोहे की चोरी करने वाला मूर्ख मानव कौवा होता है। कांस की चोरी करके खोटी बुद्धि वाला मनुष्य हारित नामक पक्षी होता है। चांदी का बर्तन चुराने वाला कबूतर होता है और सुवर्णमय भाण्ड की चोरी करके मनुष्य को कीड़े की योनि में जन्म लेना पड़़ता है। ऊनी वस्त्र चुराने वाला कृकल (गिरगिट) की योनि में जन्म लेता है। कौशेय (रेशमी) वस्त्र की चोरी करने पर मनुष्य बत्तख होता है। अंषुक (महीन कपड़े) की चोरी करके मनुष्य तोते का जन्म पाता है तथा दुकूल (उत्तरीय वस्त्र) की चोरी करके मृत्यु को प्राप्त हुआ मानव हंस की योनि में जन्म लेता है। सूती वस्त्र की चोरी करके मरा हुआ मनुष्य क्रोंच पक्षी की योनि में जन्म लेता है। भारत! पाटम्बर, भेड़ के ऊन का बना हुआ तथा क्षौम (रेशमी) वस्त्र चुराने वाला मनुष्य खरगोष नामक जंतु होता है। अनेक प्रकार के रंगों की चोरी करके मृत्यु को प्राप्त हुआ पुरुष मोर होता है। लाल कपड़े चुराने वाला मनुष्य चकोर की योनि में जन्म लेता है।

राजन! जो मनुष्य लोभ के वशीभूत होकर वर्णक (अनुलेपन) आदि तथा चंदन की चोरी करता है, वह छछुन्दर होता है। उस योनि में वह पन्द्रह वर्ष तक जीवित रहता है। फिर अधर्म का क्षय हो जाने पर वह मनुष्य का जन्म पाता है। दूध चुराने वाली स्त्री बगुली होती है। राजन! जो मनुष्य मोह युक्त होकर तेल चुराता है, वह मरने पर तेलपाई नामक कीड़ा होता है। जो नीच मनुष्य धन के लोभ से अथवा शत्रुता के कारण हथियार लेकर निहत्थे पुरुष को मार डालता है, वह अपनी मृत्यु के बाद गदहे की योनि में जन्म पाता है। गदहा होकर वह दो वर्षों तक जीवित रहता है। फिर शस्त्र से उसका वध होता है। इस प्रकार मरकर वह मृग की योनि में जन्म लेता और हिंसकों के भय से सदा उद्वेग्न रहता है। मृग होकर वह साल भर में ही शस्त्र द्वारा मारा जाता है। मरने पर मत्स्य होता है, फिर वह जाल से बंधता है। [5]

वह किसी प्रकार जाल से छूटा हुआ भी चौथे महीने में मृत्यु को प्राप्त हो हिंसक जंतु भेडि़या आदि होता है। उस योनि में दस वर्षों तक रहकर वह पांच वर्षों तक व्याघ्र या चीते की योनि में पड़ा रहता है। तदनन्तर पाप का क्षय होने पर काल की प्रेरणा से मृत्यु को प्राप्त हो वह पुनः मनुष्य होता है। जो खोटी बुद्धि वाला पुरुष स्त्री की हत्या कर डालता है, वह यमराज के लोक में जाकर नाना प्रकार के क्लेष भोगने के पश्‍चात वीस बार दुःखद योनियों में जन्म लेता है।

महाराज! तदनन्तर वह कीड़े की योनि में जन्म लेता है और बीस वर्षों तक कीट योनि में रहकर अन्त में मनुष्य होता है। भोजन की चोरी करके मनुष्य मक्खी होता है और कई महीनों तक मक्खियों के समुदाय के अधीन रहता है। तत्पश्‍चात पापों का भोग समाप्त करके वह पुनः मनुष्य योनि में जन्म लेता है। धान्य की चोरी करने वाले मनुष्य के शरीर में दूसरे जन्म में बहुत से रोये पैदा होते हैं। प्रजानाथ! जो मानव तिल के चूर्ण से मिश्रित भोजन की चोरी करता है, वह नेवले के समान आकार वाला भयानक चूहा होता है तथा वह पापी सदा मनुष्यों का काटा करता है। जो दुर्बद्वि मनुष्य घी चुराता है वह काकमद्गु (सींग वाला जल पक्षी) होता है। जो खोटी बुद्धि वाला मनुष्य मत्स्य और मांस की चोरी करता है, वह कौवा होता है। नमक की चोरी करने से मनुष्य को चिरकाल योनि में जन्म लेना पड़ता है। तात! जो मानव विश्‍वासपूर्वक रखी हुई दूसरे की धरोहर को हड़प लेता है वह गतायु होन पर मत्स्य की योनि में जन्म लेता है। मत्स्य योनि में जन्म लेने के बाद जब मरता है, तब पुनः मनुष्य का जन्म पाता है। मानव योनि में आकर उसकी आयु बहुत कम होती है।

भारत! पाप करके मनुष्य पशु-पक्षियों की योनि में जन्म लेते हैं। वहाँ उन्हें अपने उद्धार करने वाले धर्म का कुछ भी ज्ञान नहीं रहता। जे पापाचारी पुरुष लोभ और मोह के वशीभूत हो पाप करके उसे व्रत आदि के द्वारा दूर करने का प्रयत्न करते हैं, वे सदा सुख-दुःख भोगते हुए व्यथित रहते हैं। उन्हें कहीं रहने को ठौर नहीं मिलता तथा वे म्लेच्छ होकर सदा मारे-मारे फिरते हैं। इसमें संशय नहीं है। जो मनुष्य जन्म से ही पाप का परित्याग कर देते हैं, वे नीरोग, रूपवान और धनी होते हैं। स्त्रियां भी यदि पूर्वोक्त पाप कर्म करती हैं तो पाप की भागिनी होती हैं और वे उन पापभोगी प्राणियों की ही पत्नी होती हैं। निष्पाप नरेश! पराये धन का अपहरण करने से जो दोष होते हैं, वे सब बताये गये। यहाँ मेरे द्वारा संक्षेप से ही इस विषय का दिग्दर्शन कराया गया है। भरतनन्दन! अब दूसरी बार बातचीत के प्रसंग में फिर कभी इस विषय को सुनना। महाराज! पूर्वकाल में ब्रह्मा जी देवर्षियों के बीच यह प्रसंग सुना रहे थे। वहाँ उन्हीं के मुंह से मैंने ये सारी बातें सुनी थीं और तुम्हारे पूछने पर उन्हीं सब बातों का मैंने भी यथार्थरूप से वर्णन किया है। राजन! यह सुनकर तुम सदा धर्म में मन लगाओ।[6]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 111 श्लोक 19-35
  2. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 111 श्लोक 36-54
  3. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 111 श्लोक 55-75
  4. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 111 श्लोक 76-95
  5. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 111 श्लोक 96-114
  6. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 111 श्लोक 115-133

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अपने निवास का कारण बताना | च्यवन मुनि द्वारा राजा कुशिक को वरदान | च्यवन मुनि द्वारा भृगुवंशी और कुशिकवंशियों के सम्बंध का कारण बताना | विविध प्रकार के तप और दानों का फल | जलाशय बनाने तथा बगीचे लगाने का फल | भीष्म द्वारा उत्तम दान तथा उत्तम ब्राह्मणों की प्रशंसा | भीष्म द्वारा उत्तम ब्राह्मणों के सत्कार का उपदेश | श्रेष्ठ, अयाचक, धर्मात्मा, निर्धन और गुणवान को दान देने का विशेष फल | राजा के लिए यज्ञ, दान और ब्राह्मण आदि प्रजा की रक्षा का उपदेश | भूमिदान का महत्त्व | भूमिदान विषयक इन्द्र और बृहस्पति का संवाद | अन्न दान का विशेष माहात्म्य | विभिन्न नक्षत्रों के योग में भिन्न-भिन्न वस्तुओं के दान का माहात्म्य | सुवर्ण और जल आदि विभिन्न वस्तुओं के दान की महिमा | जूता, शकट, तिल, भूमि, गौ और अन्न के दान का माहात्म्य | अन्न और जल के दान की महिमा | तिल, जल, दीप तथा रत्न आदि के दान का माहात्म्य | गोदान की महिमा | गौओं और ब्राह्मणों की रक्षा से पुण्य की प्राप्ति | राजा नृग का उपाख्यान | पिता के शाप से नचिकेता का यमराज के पास जाना | यमराज का नचिकेता से गोदान की महिमा का वर्णन | गोलोक तथा गोदान विषयक युधिष्ठिर और इन्द्र के प्रश्न | ब्रह्मा का इन्द्र को गोलोक की महिमा बताना | ब्रह्मा का इन्द्र को गोदान की महिमा बताना | दूसरे की गाय को चुराने और बेचने के दोष तथा गोहत्या के परिणाम | गोदान एवं स्वर्ण दक्षिणा का माहात्म्य | व्रत, नियम, ब्रह्मचर्य, माता-पिता और गुरु आदि की सेवा का महत्त्व | गोदान की विधि और गौओं से प्रार्थना | गोदान करने वाले नरेशों के नाम | कपिला गौओं की उत्पत्ति | कपिला गौओं की महिमा का वर्णन | वसिष्ठ का सौदास को गोदान की विधि और महिमा बताना | गौओं को तपस्या द्वारा अभीष्ट वर की प्राप्ति | विभिन्न गौओं के दान से विभिन्न उत्तम लोकों की प्राप्ति | गौओं तथा गोदान की महिमा | व्यास का शुकदेव से गौओं की महत्ता का वर्णन | व्यास द्वारा गोलोक की महिमा का वर्णन | व्यास द्वारा गोदान की महिमा का वर्णन | लक्ष्मी और गौओं का संवाद | गौओं द्वारा लक्ष्मी को गोबर और गोमूत्र में स्थान देना | ब्रह्मा का इन्द्र को गोलोक और गौओं का उत्कर्ष बताना | ब्रह्मा का गौओं को वरदान देना | भीष्म का पिता शान्तनु को कुश पर पिण्ड देना | सुवर्ण की उत्पत्ति और उसके दान की महिमा | पार्वती का देवताओं को शाप | तारकासुर के भय से देवताओं का ब्रह्मा की शरण में जाना | ब्रह्मा का देवताओं को आश्वासन | देवताओं द्वारा अग्नि की खोज | गंगा का शिवतेज को धारण करना और फिर मेरुपर्वत पर छोड़ना | कार्तिकेय और सुवर्ण की उत्पत्ति | महादेव के यज्ञ में अग्नि से प्रजापतियों और सुवर्ण की उत्पत्ति | कार्तिकेय की उत्पत्ति और उनका पालन-पोषण | कार्तिकेय का देवसेनापति पद पर अभिषेक और तारकासुर का वध | विविध तिथियों में श्राद्ध करने का फल | श्राद्ध में पितरों के तृप्ति विषय का वर्णन | विभिन्न नक्षत्रों में श्राद्ध करने का फल | पंक्तिदूषक ब्राह्मणों का वर्णन | पंक्तिपावन ब्राह्मणों का वर्णन | श्राद्ध में मूर्ख ब्राह्मण की अपेक्षा वेदवेत्ता को भोजन कराने की श्रेष्ठता | निमि का पुत्र के निमित्त पिण्डदान | श्राद्ध के विषय में निमि को अत्रि का उपदेश | विश्वेदेवों के नाम तथा श्राद्ध में त्याज्य वस्तुओं का वर्णन | पितर और देवताओं का श्राद्धान्न से अजीर्ण होकर ब्रह्मा के पास जाना | श्राद्ध से तृप्त हुए पितरों का आशीर्वाद | भीष्म का युधिष्ठिर को गृहस्थ के धर्मों का रहस्य बताना | वृषादर्भि तथा सप्तर्षियों की कथा | भिक्षुरूपधरी इन्द्र द्वारा कृत्या का वध तथा सप्तर्षियों की रक्षा | इन्द्र द्वारा कमलों की चोरी तथा धर्मपालन का संकेत | अगस्त्य के कमलों की चोरी तथा ब्रह्मर्षियों और राजर्षियों की धर्मोपदेशपूर्ण शपथ | इन्द्र का चुराये हुए कमलों को वापस देना | सूर्य की प्रचण्ड धूप से रेणुका के मस्तक और पैरों का संतप्त होना | जमदग्नि का सूर्य पर कुपित होना | छत्र और उपानह की उत्पत्ति एवं दान की प्रशंसा | गृहस्थधर्म तथा पंचयज्ञ विषयक पृथ्वीदेवी और श्रीकृष्ण का संवाद | तपस्वी सुवर्ण और मनु का संवाद | नहुष का ऋषियों पर अत्याचार | महर्षि भृगु और अगस्त्य का वार्तालाप | नहुष का पतन | शतक्रतु का इन्द्रपद पर अभिषेक तथा दीपदान की महिमा | ब्राह्मण के धन का अपहरण विषयक क्षत्रिय और चांडाल का संवाद | ब्रह्मस्व की रक्षा में प्राणोत्सर्ग से चांडाल को मोक्ष की प्राप्ति | धृतराष्ट्ररूपधारी इन्द्र और गौतम ब्राह्मण का संवाद | ब्रह्मा और भगीरथ का संवाद | आयु की वृद्धि और क्षय करने वाले शुभाशुभ कर्मों का वर्णन | गृहस्थाश्रम के कर्तव्यों का विस्तारपूर्वक निरूपण | बड़े और छोटे भाई के पारस्परिक बर्ताव का वर्णन | माता-पिता, आचार्य आदि गुरुजनों के गौरव का वर्णन | मास, पक्ष एवं तिथि सम्बंधी विभिन्न व्रतोपवास के फल का वर्णन | दरिद्रों के लिए यज्ञतुल्य फल देने वाले उपवास-व्रत तथा उसके फल का वर्णन | मानस तथा पार्थिव तीर्थ की महत्ता | द्वादशी तिथि को उपवास तथा विष्णु की पूजा का माहात्म्य | मार्गशीर्ष मास में चन्द्र व्रत करने का प्रतिपादन | बृहस्पति और युधिष्ठिर का संवाद | विभिन्न पापों के फलस्वरूप नरकादि की प्राप्ति एवं तिर्यग्योनियों में जन्म लेने का वर्णन | पाप से छूटने के उपाय तथा अन्नदान की विशेष महिमा | बृहस्पति का युधिष्ठिर को अहिंसा एवं धर्म की महिमा बताना | हिंसा और मांसभक्षण की घोर निन्दा | मद्य और मांस भक्षण के दोष तथा उनके त्याग की महिमा | मांस न खाने से लाभ तथा अहिंसाधर्म की प्रशंसा | द्वैपायन व्यास और एक कीड़े का वृत्तान्त | कीड़े का क्षत्रिय योनि में जन्म तथा व्यासजी का दर्शन | कीड़े का ब्राह्मण योनि में जन्म तथा सनातनब्रह्म की प्राप्ति | दान की प्रशंसा और कर्म का रहस्य | विद्वान एवं सदाचारी ब्राह्मण को अन्नदान की प्रशंसा | तप की प्रशंसा तथा गृहस्थ के उत्तम कर्तव्य का निर्देश | पतिव्रता स्त्रियों के कर्तव्य का वर्णन | नारद का पुण्डरीक को भगवान नारायण की आराधना का उपदेश | ब्राह्मण और राक्षस का सामगुण विषयक वृत्तान्त | श्राद्ध के विषय में देवदूत और पितरों का संवाद | पापों से छूटने के विषय में महर्षि विद्युत्प्रभ और इन्द्र का संवाद | धर्म के विषय में इन्द्र और बृहस्पति का संवाद | वृषोत्सर्ग आदि के विषय में देवताओं, ऋषियों और पितरों का संवाद | विष्णु, देवगण, विश्वामित्र और ब्रह्मा आदि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | अग्नि, लक्ष्मी, अंगिरा, गार्ग्य, धौम्य तथा जमदग्नि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | वायु द्वारा धर्माधर्म के रहस्य का वर्णन | लोमश द्वारा धर्म के रहस्य का वर्णन | अरुन्धती, धर्मराज और चित्रगुप्त द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | प्रमथगणों द्वारा धर्माधर्म सम्बन्धी रहस्य का कथन | दिग्गजों का धर्म सम्बन्धी रहस्य एवं प्रभाव | महादेव जी का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | स्कन्ददेव का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | भगवान विष्णु और भीष्म द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्यों के माहात्म्य का वर्णन | जिनका अन्न ग्रहण करने योग्य है और जिनका ग्रहण करने योग्य नहीं है, उन मनुष्यों का वर्णन | दान लेने और अनुचित भोजन करने का प्रायश्चित | दान से स्वर्गलोक में जाने वाले राजाओं का वर्णन | पाँच प्रकार के दानों का वर्णन | तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना | ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना | नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन | शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना | शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना | वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार | प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण | वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा | ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का वर्णन | बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन | स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन | उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन | मनुष्य को बुद्धिमान, मन्दबुद्धि तथा नपुंसक बनाने वाले कर्मों का वर्णन | राजधर्म का वर्णन | योद्धाओं के धर्म का वर्णन | रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा | संक्षेप से राजधर्म का वर्णन | अहिंसा और इन्द्रिय संयम की प्रशंसा | दैव की प्रधानता | त्रिवर्ग का निरूपण | कल्याणकारी आचार-व्यवहार का वर्णन | विविध प्रकार के कर्मफलों का वर्णन | अन्धत्व और पंगुत्व आदि दोषों और रोगों के कारणभूत दुष्कर्मों का वर्णन | उमा-महेश्वर संवाद में महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन | प्राणियों के चार भेदों का निरूपण | पूर्वजन्म की स्मृति का रहस्य | मरकर फिर लौटने में कारण स्वप्नदर्शन | दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन | यमलोक तथा वहाँ के मार्गों का वर्णन | पापियों की नरकयातनाओं का वर्णन | कर्मानुसार विभिन्न योनियों में पापियों के जन्म का उल्लेख | शुभाशुभ आदि तीन प्रकार के कर्मों का स्वरूप और उनके फल का वर्णन | मद्यसेवन के दोषों का वर्णन | पुण्य के विधान का वर्णन | व्रत धारण करने से शुभ फल की प्राप्ति | शौचाचार का वर्णन | आहार शुद्धि का वर्णन | मांसभक्षण से दोष तथा मांस न खाने से लाभ | गुरुपूजा का महत्त्व | उपवास की विधि | तीर्थस्थान की विधि | सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य | अन्न, सुवर्ण और गौदान का माहात्म्य | भूमिदान के महत्त्व का वर्णन | कन्या और विद्यादान का माहात्म्य | तिल का दान और उसके फल का माहात्म्य | नाना प्रकार के दानों का फल | लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताओं की पूजा का निरूपण | श्राद्धविधान आदि का वर्णन | दान के पाँच फल | अशुभदान से भी शुभ फल की प्राप्ति | नाना प्रकार के धर्म और उनके फलों का प्रतिपादन | शुभ और अशुभ गति का निश्चय कराने वाले लक्षणों का वर्णन | मृत्यु के भेद | कर्तव्यपालनपूर्वक शरीरत्याग का महान फल | काम, क्रोध आदि द्वारा देहत्याग करने से नरक की प्राप्ति | मोक्षधर्म की श्रेष्ठता का प्रतिपादन | मोक्षसाधक ज्ञान की प्राप्ति का उपाय | मोक्ष की प्राप्ति में वैराग्य की प्रधानता | सांख्यज्ञान का प्रतिपादन | अव्यक्तादि चौबीस तत्त्वों की उत्पत्ति आदि का वर्णन | योगधर्म का प्रतिपादनपूर्वक उसके फल का वर्णन | पाशुपत योग का वर्णन | शिवलिंग-पूजन का माहात्म्य | पार्वती के द्वारा स्त्री-धर्म का वर्णन | वंश परम्परा का कथन और श्रीकृष्ण के माहात्म्य का वर्णन | श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन और भीष्म का युधिष्ठिर को राज्य करने का आदेश | श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम् | जपने योग्य मंत्र और सबेरे-शाम कीर्तन करने योग्य देवता | ऋषियों और राजाओं के मंगलमय नामों का कीर्तन-माहात्म्य | गायत्री मंत्र का फल | ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन | कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन | ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद | वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन | ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन | ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन | अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन | कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार | ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना | भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन | श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना | श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना | श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता | भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन | साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण | युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना | भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना | नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य | भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन | भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना | भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना | भीष्म का प्राणत्याग | धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार | गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना

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