विरह-पदावली -सूरदास
(158) (सूरदास जी के शब्दों में कोई गोपी कह रही है-) सखी! मेरे नेत्र उस मथुरा के मार्ग की ओर ही देखते रहते हैं। (अब) या तो (कोई) श्यामसुन्दर को लाकर हमसे मिला दे या हमको ही वहाँ ले जाय। मिलने के बाद जब से वियोग हुआ है, तब से पलकें नहीं लगी हैं। बराबर (मार्ग) देखती रहती हूँ। श्यामसुन्दर! आपके बिना हम अत्यन्त दुःखी हैं, आप हमें स्वपन में ही मिल जाते। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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