- महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 78 में वसिष्ठ का सौदास को गोदान की विधि और महिमा का वर्णन हुआ है[1]-
विषय सूची
वसिष्ठ का सौदास को गोदान की विधि का वर्णन
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! भीष्म जी कहते हैं- राजन। एक समय की बात है, वक्ताओं में श्रेष्ठ इक्ष्वाकुवंशी राजा सौदान ने सम्पूर्ण लोकों में विचरने वाले, वैदिक ज्ञान के भण्डार, सिद्व सनातन ऋषि श्रेष्ठ वषिष्ठ जी से, जो उन्हीं के पुरोहित थे, प्रणाम करके इस प्रकार पूछना आरंभ किया।
सौदास बोले- भगवन। निष्पाप महर्षे। तीनों लोकों में ऐसी पवित्र वस्तु कौन कही जाती है जिसका नाम लेने मात्र से मनुष्य को सदा उत्तम पुण्य की प्राप्ति हो सके?
भीष्म जी कहते हैं- राजन। अपने चरणों में पड़े हुए राजा सौदास से गवोपनिषद् (गौओं की महिमा के गूढ रहस्य को प्रकट करने वाली विद्या) के विद्वान पवित्र महर्षि वषिष्ठ ने गौओं को नमस्कार करके इस प्रकार कहना आरंभ किया- ‘राजन। गौओं के शरीर से अनेक प्रकार की मनोरम सुगंध निकलती हरती है तथा बहुतेरी गौऐं गुग्गल के समान गंध वाली होती हैं। गौऐं समस्त प्राणियों की प्रतिष्ठा (आधार) हैं और गौऐं ही उनके लिये महान मंगल की निधि हैं। गौऐं ही भूत और भविष्य हैं। गौऐं ही सदा रहने वाली पुष्टि का कारण तथा लक्ष्मी की जड़ हैं। गौओं को जो कुछ दिया जाता है, उसका पुण्य कभी नष्ट नहीं होता। ‘गौऐं ही सर्वोत्तम अन्न की प्राप्ति में कारण हैं। वे ही देवताओं को उत्तम हविष्य प्रदान करती हैं। स्वाहाकार (देवयज्ञ) और वश ट्कार (इन्द्रयाग)- ये दोनो कर्म सदा गौओं पर अबलम्बित हैं। ‘गौऐं ही यज्ञ का फल देने वाली हैं। उन्हीं में यज्ञों की प्रतिष्ठा है। गौऐं ही भूत और भविष्य हैं। उन्हीं में यज्ञ प्रतिष्ठित हैं, अर्थात यज्ञ गौओं पर ही निर्भर हैं। ‘महातेजस्वी पुरुष प्रवर। प्रातःकाल और सायंकाल सदा होम के समय ऋषियों का गौऐं ही हवनीय पदार्थ (घृत आदि) देती हैं। ‘प्रभो। जो लोग (नव प्रसूति का दूध देने वाली) गौ का दान करते हैं वे जो कोई भी दुर्गम संकट आने वाले हैं, उन सबसे अपने किये हुए दुष्कर्मों से तथा समस्त पाप समूह से भी तर जाते हैं। ‘जिसके पास दो गौऐं हों, वह एक गौ का दान करे। जो सौ गाय रखता हो, वह दस गौओं का दान करे और जिसके पास एक हजार गौऐं मौजूद हों वह सौ गौऐं दान में दे तो इन सबको बरावर ही फल मिलता है। ‘जो सौ गौओं का स्वामी होकर भी अग्निहोत्र नहीं करता, जो हजार गौऐं रखकर भी यज्ञ नहीं करता तथा जो धनी होकर भी कृपणता नहीं छोड़ता- ये तीनों मनुष्य अर्ध्य (सम्मान) पाने के अधिकारी नहीं हैं। ‘जो उत्तम लक्षणों से युक्त कपिला गौ को वस्त्र ओढ़ाकर बछड़े सहित उसका दान करते हैं और उसके साथ दूध दोहने के लिये कांस्य का एक पात्र भी देते हैं वे इहलोक और परलोक दोनों पर विजय पाते हैं। ‘शत्रुओं को संताप देने वाले नरेश। जो लोग जवान, सभी इन्द्रियों से सम्पन्न, सौ गायों यूथपति, बड़ी-बड़ी सींगों वाले गवेन्द्र वृषभ (सांड़) को सुसज्जित करके सौ गायों सहित उसे श्रोत्रिय ब्राह्मण को दान करते हैं, वे जब-जब इस संसार में जन्म लेते हैं तब-तब महान ऐश्वर्य के भागी होते हैं। ‘गौओं का नाम- कीर्तन किये बिना न सोयें, उनका स्मरण करके ही उठें और सबेरे-शाम उन्हें नमस्कार करें। इससे मनुष्य को बल एवं पुष्टि प्राप्त होती है।
गोदान की महिमा का वर्णन
‘गौओं के मूत्र और गोबर से किसी प्रकार उद्विग्न न हो, घृणा न करें और उनका मांस न खाऐं। इससे मनुष्य को पुष्टि प्राप्त होती है। ‘प्रतिदिन गौओं का नाम लें। उनका कभी अपमान न करें। यदि बुरे स्वप्न दिखाई दे तो मनुष्य गौ माता का नाम लें। ‘प्रतिदिन शरीर में गोबर लगाकर स्नान करें। सूखे हुए गोबर पर बैठें। उस पर थूक न फैंकें, मल-मूत्र न छोड़ें तथा गौओं के तिरस्कार से बचता रहे। ‘भीगे हुए गौ चर्म पर बैठकर भोजन करें। पश्चिम दिशा की ओर देखें और मौन हो भूमि पर बैठकर घी का भक्षण करें। इससे सदा गौओं की वृद्धि एवं पुष्टि होती है। ‘अग्नि में घृत से हवन करें। घृत से ही स्वस्ति वाचन करायें। घृत का दान करें और स्वयं भी गौ का घृत खायें। इससे मनुष्य सदा गौओं की पुष्टि वृद्धि का अनुभव करता है। ‘जो मनुष्य सब प्रकार के रत्नों से युक्त तिल की धेनु को ‘गोमां अग्नेविमां अश्वि’ इत्यादि गोमती मंत्र से अभिमंत्रित करके उसका ब्राह्मण को दान करता है, वह किये हुए शुभाशुभ कर्म के लिये शोक नहीं करता। ‘जैसे नदियां समुद्र के पास जाती हैं, उसी तरह सोने के मुढ़ी हुई सींगों वाली, दूध देने वाली सुरभि और सौरभेयी गौऐं मेरे निकट आयें। ‘मैं सदा गौओं का दर्शन करूं और गौऐं मुझ पर कृपा-दृष्टि करें। गौऐं हमारी हैं और हम गौओं के हैं। जहाँ गौऐं रहें, वहीं हम रहें। ‘जो मनुष्य इस प्रकार रात में या दिन में सम अवस्था में या विषम अवस्था में तथा बड़े-से-बड़े भय आने पर भी गौ माता का नाम कीर्तन करता है, वह भय से मुक्त हो जाता है।[2]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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| वायु द्वारा धर्माधर्म के रहस्य का वर्णन
| लोमश द्वारा धर्म के रहस्य का वर्णन
| अरुन्धती, धर्मराज और चित्रगुप्त द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन
| प्रमथगणों द्वारा धर्माधर्म सम्बन्धी रहस्य का कथन
| दिग्गजों का धर्म सम्बन्धी रहस्य एवं प्रभाव
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| दान लेने और अनुचित भोजन करने का प्रायश्चित
| दान से स्वर्गलोक में जाने वाले राजाओं का वर्णन
| पाँच प्रकार के दानों का वर्णन
| तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना
| ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना
| नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन
| शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना
| शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना
| वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार
| प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण
| वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा
| ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का वर्णन
| बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन
| स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन
| उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन
| मनुष्य को बुद्धिमान, मन्दबुद्धि तथा नपुंसक बनाने वाले कर्मों का वर्णन
| राजधर्म का वर्णन
| योद्धाओं के धर्म का वर्णन
| रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा
| संक्षेप से राजधर्म का वर्णन
| अहिंसा और इन्द्रिय संयम की प्रशंसा
| दैव की प्रधानता
| त्रिवर्ग का निरूपण
| कल्याणकारी आचार-व्यवहार का वर्णन
| विविध प्रकार के कर्मफलों का वर्णन
| अन्धत्व और पंगुत्व आदि दोषों और रोगों के कारणभूत दुष्कर्मों का वर्णन
| उमा-महेश्वर संवाद में महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन
| प्राणियों के चार भेदों का निरूपण
| पूर्वजन्म की स्मृति का रहस्य
| मरकर फिर लौटने में कारण स्वप्नदर्शन
| दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन
| यमलोक तथा वहाँ के मार्गों का वर्णन
| पापियों की नरकयातनाओं का वर्णन
| कर्मानुसार विभिन्न योनियों में पापियों के जन्म का उल्लेख
| शुभाशुभ आदि तीन प्रकार के कर्मों का स्वरूप और उनके फल का वर्णन
| मद्यसेवन के दोषों का वर्णन
| पुण्य के विधान का वर्णन
| व्रत धारण करने से शुभ फल की प्राप्ति
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| मांसभक्षण से दोष तथा मांस न खाने से लाभ
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| तीर्थस्थान की विधि
| सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य
| अन्न, सुवर्ण और गौदान का माहात्म्य
| भूमिदान के महत्त्व का वर्णन
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| तिल का दान और उसके फल का माहात्म्य
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| लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताओं की पूजा का निरूपण
| श्राद्धविधान आदि का वर्णन
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| श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम्
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| कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन
| ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद
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| ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन
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| श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना
| श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन
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| साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण
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भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
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