वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार

महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 141 में वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार का वर्णन हुआ है।[1]

शिव द्वारा धर्म के लक्षणों का वर्णन

उमा ने पूछा- भगवन! मैं एक और संशय उपस्थित करती हूँ, चारों वर्णों का जो-जो धर्म अपने-अपने वर्ण के लिये विशेष लाभकारी हो, वह मुझे बताने की कृपा कीजिये। ब्राह्मण के लिये धर्म का स्वरूप कैसा है, क्षत्रिय के लिये कैसा है, वैश्य के लिये उपयोगी धर्म का क्या लक्षण है तथा शूद्र के धर्म का भी क्या लक्षण है?

श्री महेश्वर ने कहा- देवि! तुम्हारे मन को प्रिय लगने वाला जो यह धर्म का विषय है, उसे बताऊँगा। तुम वर्णों और आश्रमों पर अवलम्बित समस्त धर्म का पूर्णरूप से वर्णन सुनो। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-ये वर्णों के चार भेद हैं। लोकतन्त्र की इच्छा रखने वाले विधाता ने सबसे पहले ब्राह्मणों की सृष्टि की है और शास्त्रों में उनके योग्य कर्मों का विधान किया है। देवि! यदि यह सारा जगत् एक ही वर्ण का होता तो सब साथ ही नष्ट हो जाता। इसलिये विधाता ने चार वर्ण बनाये हैं। ब्राह्मणों की सृष्टि विधाता के मुख से हुई है, इसीलिये वे वाणीविशारद होते हैं। क्षत्रियों की सृष्टि दोनों भुजाओं से हुई है, इसीलिये उन्हें अपने बाहुबल पर गर्व होता है। वैश्यों की उत्पत्ति उदर से हुई है, इसीलिये वे उदर पोषण के निमित्त कृषि, वाणिज्यादि वार्तावृत्ति का आश्रय ले जीवन-निर्वाह करते हैं। शूद्रों की सृष्टि पैर से हुई है, इसलिये वे परिचारक होते हैं। देवि! अब तुम एकाग्रचित्त होकर चारों वर्णों के धर्म और कर्मों का वर्णन सुनो। ब्राह्मण को इस भूमि का देवता बनाया गया है। वे सब लोकों की रक्षा के लिये उत्पन्न किये गये हैं।

कर्मों का वर्णन

अतः अपने हित की इच्छा रखने वाले किसी भी मनुष्य को ब्राह्मणों का अपमान नहीं करना चाहिये।। देवि! यदि दान और योग का वहन करने वाले वे ब्राह्मण न हों तो लोक और परलोक दोनों की स्थिति कदापि नहीं रह सकती। जो ब्राह्मणों का अपमान और निन्दा करता अथवा उन्हें क्रोध दिलाता या उन पर प्रहार करता अथवा उनका धन हर लेता है या काम, लोभ एवं मोह के वशीभूत होकर उनसे नीच कर्म कराता है, वह नराधम मेरा ही अपमान या निन्दा करता है। मुझे ही क्रोध दिलाता है, मुझ पर ही प्रहार करता है, वह मूढ़ मेरे ही धन का अपहरण करता है तथा वह मूढ़चित्त मानव मुझे ही इधर-उधर भेजकर नीच कर्म कराता और निन्दा करता है।। वेदों का स्वाध्याय, यज्ञ और दान ब्राह्मण का धर्म है, यह शास्त्र का निर्णय है। वेदों को पढ़ाना, यजमान का यज्ञ कराना और दान लेना- ये उसकी जीविका के साधनभूत कर्म हैं। सत्य, मनोनग्रिह, तप और शौचाचार का पालन- यह उनका सनातन धर्म है।। रस और धान्य (अनाज) का विक्रय करना ब्राह्मण के लिये निन्दित है।। सदा तप करना ही ब्राह्मण का धर्म है, इसमें संशय नहीं है। विधाता ने पूर्वकाल में धर्म का अनुष्ठान करने के लिये ही अपने तपोबल से ब्राह्मण को उत्पन्न किया था।[1]

महाभागे! मैंने तुम्हारे निकट सब प्रकार से धर्म का निर्णय किया है। महाभाग ब्राह्मण इस लोक में सदा भूमिदेव माने गये हैं। इसमें संशय नहीं कि उपावास (इन्द्रियसंयम) व्रत का आचरण करना ब्राह्मण के लिये सदा धर्म बतलाया गया है। धर्मार्थ सम्पन्न ब्राह्मण ब्रह्मभाव को प्राप्त हो जाता है। देवि! उसे धर्म का अनुष्ठान और न्यायतः ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिये। व्रत के पालनपूर्वक उपनयन संस्कार का होना उसके लिये परम आवश्यक है, क्योंकि उसी से वह द्विज होता है। गुरु और देवताओं की पूजा तथा स्वाध्याय और अभ्यासरूप धर्म का पालन ब्राह्मण को अवश्य करना चाहिये। धर्मपरायण देहधारियों को उचित है कि वे पुण्यप्रद धर्म का आचरण अवश्य करें।

उमा ने कहा- भगवन! मेरे मन में अभी संशय रह गया है। अतः उसकी व्याख्या करके मुझे समझाइये। चारों वर्णों का जो धर्म है, उसका पूर्णरूप से प्रतिपादन कीजिये।

श्रीमहेश्वर ने कहा- धर्म का रहस्य सुनना, वेदोक्त व्रत का पालन करना, होम और गुरुसेवा करना- यह बह्मचर्य-आश्रम का धर्म है। ब्रह्मचारी के लिये भैक्षचर्या (गाँवों में से भिक्षा माँगकर लाना और गुरु को समर्पित करना) परम धर्म है। नित्य यज्ञोपवीत धारण किये रहना, प्रतिदिन वेद का स्वाध्याय करना और ब्रह्मचर्याश्रम के नियमों के पालन में लगे रहना, ब्रह्मचारी का प्रधान कर्म है। ब्रह्मचर्य की अवधि समाप्त होने पर द्विज अपने गुरु की आज्ञा लेकर समावर्तन करे और घर आकर अनुरूप स्त्री से विधिपूर्वक विवाह करे। ब्राह्मण को शूद्र का अन्न नहीं खाना चाहिये, यह उसका धर्म है। सन्मार्ग का सेवन, नित्य उपवास-व्रत और ब्रह्मचर्य का पालन भी धर्म है। गृहस्थ को अग्निस्थापनपूर्वक अग्निहोत्र करने वाला, स्वाध्यायशील, होमपरायण, जितेन्द्रिय, विघसाशी, मिताहारी, सत्यवादी और पवित्र होना चाहिये।

अतिथि-सत्कार करना और गार्हपत्य आदि त्रिविध अग्नियों की रक्षा करना उसके लिये धर्म है। वह नाना प्रकार की इष्टियों और पशु रक्षा कर्म का भी विधिपूर्वक आचरण करे। यज्ञ करना तथा किसी भी जीव की हिंसा न करना उसके लिये परम धर्म है। घर में पहले भोजन न करना तथा विघसाशी होना- कुटुम्ब के लोगों के भोजन कराने के बाद ही अवशिष्ट अन्न का भोजन करना- यह भी उसका धर्म है। जब कुटुम्बीजन भोजन कर लें उसके पश्चात स्वयं भोजन करना- यह गृहस्थ ब्राह्मण का विशेषतः श्रोत्रिय का मुख्य धर्म बताया गया है। पति और पत्नी का स्वभाव एक सा होना चाहिये। यह गृहस्थ का धर्म है। घर के देवताओं की प्रतिदिन पुष्पों द्वारा पूजा करना, उन्हें अन्न की बलि समर्पित करना, रोज-रोज घर लीपना और प्रतिदिन व्रत रखना भी गृहस्थ का धर्म है। झाड़-बुहार, लीप-पोतकर स्वच्छ किये हुए घर में घृतयुक्त आहुति करके उसका धुआँ फैलाना चाहिये। यह ब्राह्मणों का गार्हस्थ्य धर्म बतलाया, जो संसार की रक्षा करने वाला है। अच्छे ब्राह्मणों के यहाँ सदा ही इस धर्म का पालन किया जाता है।[2]

देवि! मेरे द्वारा जो क्षत्रिय-धर्म बताया गया है, उसी का अब तुम्हारे समक्ष वर्णन करता हूँ, तुम मुझसे एकाग्रचित्त होकर सुनो। क्षत्रिय का सबसे पहला धर्म है प्रजा का पालन करना। प्रजा की आय के रूठे भाग का उपभोग करने वाला राजा धर्म का फल पाता है। देवि! क्षत्रिय ब्राह्मणों के पालन में तत्पर रहते हैं। यदि संसार में क्षत्रिय न होता तो इस जगत में भारी उलट-फेर या विप्लव मच जाता। क्षत्रियों द्वारा रक्षा होने से ही यह जगत सदा टिका रहता है।। उत्तम गुणों का सम्पादन और पुरवासियों का हितसाधन उसके लिये धर्म है। गुणवान राजा सदा न्याययुक्त व्यवहार में स्थित रहे। जो राजा धर्मपूर्वक प्रजा का पालन करता है, उसे उसके प्रजापालनरूपी धर्म के प्रभाव से उत्तम लोक प्राप्त होते हैं। राजा का परम धर्म है- इन्द्रियसंयम, स्वाध्याय, अग्निहोत्रकर्म, दान, अध्ययन, यज्ञोपवीत-धारण, यज्ञानुष्ठान, धार्मिक कार्य का सम्पादन, पोष्यवर्ग का भरण-पोषण, आरम्भ किये हुए कर्म को सफल बनाना, अपराध के अनुसार उचित दण्ड देना, वैदिक यज्ञादि कर्मों का अनुष्ठान करना, व्यवहार में न्याय की रक्षा करना और सत्यभाषण में अनुरक्त होना। ये सभी कर्म राजा के लिये धर्म ही हैं।

जो राजा दुखी मनुष्यों को हाथ का सहारा देता है, वह इस लोक और परलोक में भी सम्मानित होता है। गौओं और ब्राह्मणों को संकट से बचाने के लिये जो पराक्रम दिखाकर संग्राम में मृत्यु को प्राप्त होता है, वह स्वर्ग में अश्वमेध यज्ञों द्वारा जीते हुए लोकों पर अधिकार जमा लेता है। देवि! इसी प्रकार वैश्य भी लोगों की जीवन यात्रा के निर्वाह में सहायक माने गये हैं। दूसरे वर्णों के लोग उन्हीं के सहारे जीवन-निर्वाह करते हैं, क्योंकि वे प्रत्यक्ष फल देने वाले हैं। यदि वैश्य न हों तो दूसरे वर्ण के लोग भी न रहें। पशुओं का पालन, खेती, व्यापार, अग्निहोत्रकर्म, दान, अध्ययन, सन्मार्ग का आश्रय लेकर सदाचार का पालन, अतिथि-सत्कार, शम, दम, ब्राह्मणों का स्वागत और त्याग- ये सब वैश्यों के सनातन धर्म हैं। व्यापार करने वाले सदाचारी वैश्य को तिल, चन्दन और रस की विक्री नहीं करनी चाहिये तथा ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य- इस त्रिवर्ग का सब प्रकाकर से यथाशक्ति यथायोग्य आतिथ्यसत्कार करना चाहिये। शूद्र का परम धर्म है तीनों वर्णों की सेवा। जो शूद्र सत्यवादी, जितेन्द्रिय और घर पर आये हुए अतिथि की सेवा करने वाला है, वह महान तप का संचय कर लेता है। उसका सेवारूप धर्म उसके लिये कठोर तप है। नित्य सदाचार का पालन और देवता तथा ब्राह्मणों की पूजा करने वाले बुद्धिमान शूद्र को धर्म का मनोवांछित फल प्राप्त होता है। इसी प्रकार शूद्र भी सम्पूर्ण धर्मों के साधक बताये गये हैं। यदि शूद्र न हों तो सेवा का कार्य करने वाला कोई नहीं है।[3]

पहले के जो तीन वर्ण हैं, वे सब शूद्रमूलक ही हैं, क्योंकि शूद्र ही सेवा का कर्म करने वाले माने गये हैं। ब्राह्मण आदि की सेवा ही दास या शूद्र का धर्म माना गया है। वाणिज्य, कारीगर के कार्य, शिल्प तथा नाट्य भी शूद्र का धर्म है। उसे अहिंसक, सदाचारी और देवताओं तथा ब्राह्मणों का पूजक होना चाहिये।। ऐसा शूद्र अपने धर्म से सम्पन्न और उसके अभीष्ट फलों का भागी होता है। यह तथा और भी शूद्र-धर्म कहा गया है। शोभने! इस प्रकार मैंने तुम्हें एक-एक करके चारों वर्णों का सारा धर्म बतलाया। सुभगे! अब और क्या सुनना चाहती हो?

उमा बोलीं- भगवन! देवदेवेश्वर! वृषभध्वज! देव! आपको नमस्कार है। प्रभो! अब मैं आश्रमियों का धर्म सुनना चाहती हूँ।

श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! एकाग्रचित्त होकर आश्रमधर्म का वर्णन सुनो। ब्रह्मवादी मुनियों ने आश्रमों का जो धर्म निश्चित किया है, वही यहाँ बताया जारहा है। आश्रमों में गृहस्थ-आश्रम सबसे श्रेष्ठ है, क्योंकि वह गार्हस्थ्य धर्म पर प्रतिष्ठित है। पंच महायज्ञों का अनुष्ठान, बाहर-भीतर की पवित्रता, अपनी ही स्त्री से संतुष्ट रहना, आलस्य को त्याग देना, ऋतुकाल में ही पत्नी के साथ समागम करना, दान, यज्ञ और तपस्या में लगे रहना, परदेश न जाना और अग्निहोत्रपूर्वक वेद-शास्त्रों का स्वाध्याय करना- ये गृहस्थ के अभीष्ट धर्म हैं। इसी प्रकार वानप्रस्थ आश्रम के सनातन धर्म बताये गये हैं। वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करने की इच्छा वाला पुरुष एकचित्त होकर निश्चय करने के पश्चात घर का रहना छोड़कर वन में चला जाय और वन में प्राप्त होने वाले उत्तम आहारों से ही जीवन-निर्वाह करे। यही उसके लिये शास्त्रीविहित मर्यादा है। पृथ्वी पर सोना, जटा आफर दाढ़ी-मूँछ रखना, मृगचर्म और वल्कल वस्त्र धारण करना, देवताओं और अतिथियों का सत्कार करना, महान कष्ट सहकर भी देवताओं की पूजा आदि का निर्वाह करना- यह वानप्रस्थ का नियम है। उसके लिये प्रतिदिन अग्निहोत्र और त्रिकाल-स्नान का विधान है। ब्रह्मचर्य, क्षमा और शौच आदि उसका सनातन धर्म है। ऐसा करने वाला वानप्रस्थ प्राणत्याग के पश्चात देवलोक में प्रतिष्ठित होता है। देवि! यतिधर्म इस प्रकार है।

संन्यासी घर छोड़कर इधर-उधर विचरता रहे। वह अपने पास किसी वस्तु का संग्रह न करे। कर्मों के आरम्भ या आयोजन से दूर रहे। सब ओर से पवित्रता और सरलता को वह अपने भीतर स्थान दे। सर्वत्र भिक्षा से जीविका चलावे। सभी स्थानों से वह विलग रहे। सदा ध्यान में तत्पर रहना, दोषों से शुद्ध होना, सब पर क्षमा और दया का भाव रखना तथा बुद्धि को तत्त्व के चिन्तन में लगाये रखना- ये सब संन्यासी के लिये धर्मकार्य हैं। वरारोहे! जो भूख-प्यास से पीड़ित और थके-मादे आये हुए अतिथि की सेवा-पूजा करते हैं, उन्हें भी महान फल की प्राप्ति होती है। धर्म की अभिलाषा रखने वाले पुरुषों को चाहिये कि अपने घर पर आये हुए सभी अतिथियों को दान का उत्तम पात्र समझकर दान दें। उन्हें यह विश्वास रखना चाहिये कि आज जो पात्र आयेगा, वह हमारा उद्धार कर देगा।[4]

आश्रम का वर्णन

समय पर भोजन की इच्छा से आये अथवा उपस्थित हुए अतिथि का जो समादर करता है, वहाँ यह साक्षात भगवान व्यास उपस्थित होते हैं। अतः कोमलचित्त होकर उस अतिथि की यथाशक्ति पूजा करनी चाहिये, क्योंकि धर्म का मूल है चित्त का विशुद्ध भाव और यश का मूल है धर्म। अतः देवि! सर्वथा सौम्यचित्त से दान देना चाहिये, क्योंकि जो सौम्यचित्त होकर दान देता है, उसका वह दान सर्वोत्तम होता है। शोभने! जैसे भूतल पर वर्षा के समय गिरती हुई जल की छोटी-छोटी बूँदों से ही खेतों की क्यारियाँ, तालाब, सरोवर और सरिताएँ अतक्य भाव से जलपूर्ण दिखायी देती हैं, उसी प्रकार एक-एक करके थोड़ा-थोड़ा दिया हुआ दान भी बढ़ जाता है। भरण-पोषण के योग्य कुटुम्बीजनों को थोड़ा-सा कष्ट देकर भी यदि दान किया जा सके तो दान ही श्रेष्ठ माना गया है। स्त्री-पुत्र, धन और धान्य- ये वस्तुएँ मरे हुए पुरुषों के साथ नहीं जाती हैं। यशस्विनी! धन पाकर उसका दान और भोग करना भी श्रेष्ठ है, परंतु दान करने से मनुष्य महान सौभाग्यशाली नरेश होते हैं। इस पृथ्वी पर दान के समान कोई दूसरी वस्तु नहीं है। दान के समान कोई निधि नहीं है। सत्य से बढ़कर कोई धर्म नहीं है और असत्य से बढ़कर कोई पातक नही है।

जो वानप्रस्थ आश्रम में फल-मूल खाकर जटा बढ़ाये, वल्कल पहने, सूर्य की ओर मुँह करके तपस्या करता है, हेमन्त-ऋतु में मेढक की भाँति जल में सोता है और ग्रीष्म-ऋतु में पंचाग्नि का ताप सहन करता है। इस प्रकार जो लोग वानप्रस्थ आश्रम में रहकर श्रद्धापूर्वक उत्तम तप करते हैं, वे भी गृहस्थाश्रम के पालन से होने वाले धर्म की सोलहवीं कला के भी बराबर नहीं हो सकते। उमा ने कहा- प्रभो! गृहस्थाश्रम का जो आचार है, जो व्रत और नियम है, गृहस्थ को सदा जिस प्रकाकर से देवताओं की पूजा करनी चाहिये तथा तिथि और पर्वों के दिन उसे जिस-जिस वस्तु का त्याग करना चाहिये, वह सब मैं आपके मुख से सुनना चाहती हूँ।

श्री महेश्वर ने कहा- देवि! गृहस्थ-आश्रम का जो मूल और फल है, यह उत्तम धर्म जहाँ अपने चारों चरणों से सदा विराजमान रहता है, वरारोहे! जैसे दही से घी निकाला जाता है, उसी प्रकार जो सब धर्मों का सारभूत है, उसको मैं तुम्हें बता रहा हूँ। धर्मचारिणि! सुनो। जो लोग गृहस्थ-आश्रम में रहकर माता-पिता की सेवा करते हैं, जो नारी पति की सेवा करती है तथा जो ब्राह्मण नित्य अग्निहोत्र कर्म करते हैं, उन सब पर इन्द्र आदि देवता, पितृलोक निवासी पितर प्रसन्न होते हैं एवं वह पुरुष अपने धर्म से आनन्दित होता है। उमा ने पूछा- जिन गृहस्थों के माता-पिता न हों, उनकी अथवा विधवा स्त्रियों की जीवनचर्या क्या होनी चाहिये? यह मुझे बताइये।[5]

श्री महेश्वर ने कहा- देवता और अतिथियों की सेवा, गुरुजनों तथा वृद्ध पुरुषों का अभिवादन, किसी भी प्राणी की हिंसा न करना, लोभ को त्याग देना, सत्यप्रतिज्ञ होना, ब्रह्मचर्य, शरणागतवत्सलता, शौचाचार, पहले बातचीत करना, उपकारी के प्रति कृतज्ञ होना, किसी की चुगली न खाना, सदा धर्मशील रहना, दिन में दो बार स्नान करना, देवता और पितरों का पूजन करना, गौओं को प्रतिदिन अन्न का ग्रास और घास देना, अतिथियों को विभागपूर्वक भोजन देना, दीप, ठहरने के लिये स्थान तथा पाद्य और आसन देना, पंचमी, षष्ठी, द्वादशी, अष्टमी, चतुर्दशी एवं पूर्णिमा को सदा ब्रह्मचर्य का पालन करना, इन तिथियों पर मूँछ मुड़ाने, सिर में तेल लगाने, आँख में अंजन करने तथा दाँतुन करने एवं दाँत धोने आदि का कार्य न करे। जो इन विधि-निषेधों का पालन करते हैं, उनके यहाँ लक्ष्मी प्रतिष्ठित होती हैं। व्रत और उपवास का नियम पालना, तपस्या करना, यथाशक्ति दान देना, पोष्यवर्ग का पोषण करना, दीनों पर कृपा रखना, परायी स्त्री से दूर रहना तथा सदा ही अपनी स्त्री से प्रेम रखना गृहस्थ का धर्म है। विधाता ने पूर्वकाल में पति-पत्नी का एक ही शरीर बनाया था, अतः अपनी ही स्त्री में अनुरक्त रहने वाला पुरुष ब्रह्मचारी माना जाता है। जो शील और सदाचार से विनीत है, जिसने अपनी इन्द्रियों को काबू में रखा है, जो सरलतापूर्वक बतार्व करता है और समस्त प्राणियों का हितैषी है, जिसको अतिथि प्रिय है, जो क्षमाशील है, जिसने धर्मपूर्वक धन का उपार्जन किया है- ऐसे गृहस्थ के लिये अन्य आश्रमों की क्या आवश्यकता है? जैसे सभी जीव माता का सहारा लेकर जीवन धारण करते हैं, उसी प्रकार सभी आश्रम गृहस्थ-आश्रम का आश्रय लेकर ही जीवन-यापन करते हैं।

राजा, पाखण्डी, नट, सपेरा, दम्भ, चोर, राजपुरुष, विद्वान, सम्पूर्ण शीलों के जानकार, सभी संशयालु तथा दूर के रास्ते पर आये हुए पाथेयरहित राही- ये तथा और भी बहुत से मनुष्य गृहस्थ-आश्रम पर ही ताक लगाये रहते हैं। देवि! चूहे, बिल्ली, कुत्ते, सुअर, तोते, कबूतर, कर्कट(काक आदि), सरीसृपसेवी- ये तथा और भी बहुत-से मृग-पक्षियों के वनवासी समुदाय हैं तथा इसी तरह इस जगत में जो नाना प्रकार के सैकड़ों और हजारों चराचर प्राणी घर, क्षेत्र और बिल में निवास करते हैं, वे सब-के-सब यहाँ गृहस्थ के किये हुए कर्म को ही भोगते हैं। जो वस्तु उनके उपयेाग में आ गयी, उसके लिये जो बुद्धिमान पुरुष कभी शोक नहीं करता, इन सबका पालन करना धर्म ही है, ऐसा समझकर संतुष्ट रहता है, उसे मिलने वाले फल का वर्णन सुनो।। देवि! जो सम्पूर्ण यज्ञों का सम्पादन कर कचुका है, उसे अश्वमेधयज्ञ से जो फल मिलता है, वही फल इस गृहस्थ को बारह वर्षों तक पूर्वोक्त नियमों का पालन करने से प्राप्त हो जाता है।[6]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 141 भाग-5
  2. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 141 भाग-6
  3. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 141 भाग-7
  4. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 141 भाग-8
  5. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 141 भाग-9
  6. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 141 भाग-10

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दान-धर्म-पर्व
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द्वारा मतंग को समझाना | मतंग की तपस्या और इन्द्र का उसे वरदान | वीतहव्य के पुत्रों से काशी नरेशों का युद्ध | प्रतर्दन द्वारा वीतहव्य के पुत्रों का वध | वीतहव्य को ब्राह्मणत्व प्राप्ति की कथा | नारद द्वारा पूजनीय पुरुषों के लक्षण | नारद द्वारा पूजनीय पुरुषों के आदर-सत्कार से होने वाले लाभ का वर्णन | वृषदर्भ द्वारा शरणागत कपोत की रक्षा | वृषदर्भ को पुण्य के प्रभाव से अक्षयलोक की प्राप्ति | भीष्म द्वारा यूधिष्ठिर से ब्राह्मण के महत्त्व का वर्णन | भीष्म द्वारा श्रेष्ठ ब्राह्मणों की प्रशंसा | ब्रह्मा द्वारा ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन | ब्राह्मण प्रशंसा विषयक इन्द्र और शम्बरासुर का संवाद | दानपात्र की परीक्षा | पंचचूड़ा अप्सरा का नारद से स्त्री दोषों का वर्णन | युधिष्ठिर के स्त्रियों की रक्षा के विषय में प्रश्न | भृगुवंशी विपुल द्वारा योगबल से गुरुपत्नी की रक्षा | विपुल का देवराज इन्द्र से गुरुपत्नी को बचाना | विपुल को गुरु देवशर्मा से वरदान की प्राप्ति | विपुल को दिव्य पुष्प की प्राप्ति और चम्पा नगरी को प्रस्थान | विपुल का अपने द्वारा किये गये दुष्कर्म का स्मरण करना | देवशर्मा का विपुल को निर्दोष बताकर समझाना | भीष्म का युधिष्ठिर को स्त्रियों की रक्षा हेतु आदेश | कन्या विवाह के सम्बंध में पात्र विषयक विभिन्न विचार | कन्या के विवाह तथा कन्या और दौहित्र आदि के उत्तराधिकार का विचार | स्त्रियों के वस्त्राभूषणों से सत्कार करने की आवश्यकता का प्रतिपादन | ब्राह्मण आदि वर्णों की दायभाग विधि का वर्णन | वर्णसंकर संतानों की उत्पत्ति का विस्तार से वर्णन | नाना प्रकार के पुत्रों का वर्णन | गौओं की महिमा के प्रसंग में च्यवन मुनि के उपाख्यान का प्रारम्भ | च्यवन मुनि का मत्स्यों के साथ जाल में फँसना | नहुष का एक गौ के मोल पर च्यवन मुनि को खरीदना | च्यवन मुनि द्वारा गौओं का माहात्म्य कथन | च्यवन मुनि द्वारा मत्स्यों और मल्लाहों की सद्गति | राजा कुशिक और उनकी रानी द्वारा महर्षि च्यवन की सेवा | च्यवन मुनि द्वारा राजा कुशिक और उनकी रानी के धैर्य की परीक्षा | च्यवन मुनि का राजा कुशिक और उनकी रानी की सेवा से प्रसन्न होना | च्यवन मुनि के प्रभाव से राजा कुशिक और उनकी रानी को आश्चर्यमय दृश्यों का दर्शन | च्यवन मुनि का राजा कुशिक से वर माँगने के लिए कहना | च्यवन मुनि का राजा कुशिक के यहाँ अपने निवास का कारण बताना | च्यवन मुनि द्वारा राजा कुशिक को वरदान | च्यवन मुनि द्वारा भृगुवंशी और कुशिकवंशियों के सम्बंध का कारण बताना | विविध प्रकार के तप और दानों का फल | जलाशय बनाने तथा बगीचे लगाने का फल | भीष्म द्वारा उत्तम दान तथा उत्तम ब्राह्मणों की प्रशंसा | भीष्म द्वारा उत्तम ब्राह्मणों के सत्कार का उपदेश | श्रेष्ठ, अयाचक, धर्मात्मा, निर्धन और गुणवान को दान देने का विशेष फल | राजा के लिए यज्ञ, दान और ब्राह्मण आदि प्रजा की रक्षा का उपदेश | भूमिदान का महत्त्व | भूमिदान विषयक इन्द्र और बृहस्पति का संवाद | अन्न दान का विशेष माहात्म्य | विभिन्न नक्षत्रों के योग में भिन्न-भिन्न वस्तुओं के दान का माहात्म्य | सुवर्ण और जल आदि विभिन्न वस्तुओं के दान की महिमा | जूता, शकट, तिल, भूमि, गौ और अन्न के दान का माहात्म्य | अन्न और जल के दान की महिमा | तिल, जल, दीप तथा रत्न आदि के दान का माहात्म्य | गोदान की महिमा | गौओं और ब्राह्मणों की रक्षा से पुण्य की प्राप्ति | राजा नृग का उपाख्यान | पिता के शाप से नचिकेता का यमराज के पास जाना | यमराज का नचिकेता से गोदान की महिमा का वर्णन | गोलोक तथा गोदान विषयक युधिष्ठिर और इन्द्र के प्रश्न | ब्रह्मा का इन्द्र को गोलोक की महिमा बताना | ब्रह्मा का इन्द्र को गोदान की महिमा बताना | दूसरे की गाय को चुराने और बेचने के दोष तथा गोहत्या के परिणाम | गोदान एवं स्वर्ण दक्षिणा का माहात्म्य | व्रत, नियम, ब्रह्मचर्य, माता-पिता और गुरु आदि की सेवा का महत्त्व | गोदान की विधि और गौओं से प्रार्थना | गोदान करने वाले नरेशों के नाम | कपिला गौओं की उत्पत्ति | कपिला गौओं की महिमा का वर्णन | वसिष्ठ का सौदास को गोदान की विधि और महिमा बताना | गौओं को तपस्या द्वारा अभीष्ट वर की प्राप्ति | विभिन्न गौओं के दान से विभिन्न उत्तम लोकों की प्राप्ति | गौओं तथा गोदान की महिमा | व्यास का शुकदेव से गौओं की महत्ता का वर्णन | व्यास द्वारा गोलोक की महिमा का वर्णन | व्यास द्वारा गोदान की महिमा का वर्णन | लक्ष्मी और गौओं का संवाद | गौओं द्वारा लक्ष्मी को गोबर और गोमूत्र में स्थान देना | ब्रह्मा का इन्द्र को गोलोक और गौओं का उत्कर्ष बताना | ब्रह्मा का गौओं को वरदान देना | भीष्म का पिता शान्तनु को कुश पर पिण्ड देना | सुवर्ण की उत्पत्ति और उसके दान की महिमा | पार्वती का देवताओं को शाप | तारकासुर के भय से देवताओं का ब्रह्मा की शरण में जाना | ब्रह्मा का देवताओं को आश्वासन | देवताओं द्वारा अग्नि की खोज | गंगा का शिवतेज को धारण करना और फिर मेरुपर्वत पर छोड़ना | कार्तिकेय और सुवर्ण की उत्पत्ति | महादेव के यज्ञ में अग्नि से प्रजापतियों और सुवर्ण की उत्पत्ति | कार्तिकेय की उत्पत्ति और उनका पालन-पोषण | कार्तिकेय का देवसेनापति पद पर अभिषेक और तारकासुर का वध | विविध तिथियों में श्राद्ध करने का फल | श्राद्ध में पितरों के तृप्ति विषय का वर्णन | विभिन्न नक्षत्रों में श्राद्ध करने का फल | पंक्तिदूषक ब्राह्मणों का वर्णन | पंक्तिपावन ब्राह्मणों का वर्णन | श्राद्ध में मूर्ख ब्राह्मण की अपेक्षा वेदवेत्ता को भोजन कराने की श्रेष्ठता | निमि का पुत्र के निमित्त पिण्डदान | श्राद्ध के विषय में निमि को अत्रि का उपदेश | विश्वेदेवों के नाम तथा श्राद्ध में त्याज्य वस्तुओं का वर्णन | पितर और देवताओं का श्राद्धान्न से अजीर्ण होकर ब्रह्मा के पास जाना | श्राद्ध से तृप्त हुए पितरों का आशीर्वाद | भीष्म का युधिष्ठिर को गृहस्थ के धर्मों का रहस्य बताना | वृषादर्भि तथा सप्तर्षियों की कथा | भिक्षुरूपधरी इन्द्र द्वारा कृत्या का वध तथा सप्तर्षियों की रक्षा | इन्द्र द्वारा कमलों की चोरी तथा धर्मपालन का संकेत | अगस्त्य के कमलों की चोरी तथा ब्रह्मर्षियों और राजर्षियों की धर्मोपदेशपूर्ण शपथ | इन्द्र का चुराये हुए कमलों को वापस देना | सूर्य की प्रचण्ड धूप से रेणुका के मस्तक और पैरों का संतप्त होना | जमदग्नि का सूर्य पर कुपित होना | छत्र और उपानह की उत्पत्ति एवं दान की प्रशंसा | गृहस्थधर्म तथा पंचयज्ञ विषयक पृथ्वीदेवी और श्रीकृष्ण का संवाद | तपस्वी सुवर्ण और मनु का संवाद | नहुष का ऋषियों पर अत्याचार | महर्षि भृगु और अगस्त्य का वार्तालाप | नहुष का पतन | शतक्रतु का इन्द्रपद पर अभिषेक तथा दीपदान की महिमा | ब्राह्मण के धन का अपहरण विषयक क्षत्रिय और चांडाल का संवाद | ब्रह्मस्व की रक्षा में प्राणोत्सर्ग से चांडाल को मोक्ष की प्राप्ति | धृतराष्ट्ररूपधारी इन्द्र और गौतम ब्राह्मण का संवाद | ब्रह्मा और भगीरथ का संवाद | आयु की वृद्धि और क्षय करने वाले शुभाशुभ कर्मों का वर्णन | गृहस्थाश्रम के कर्तव्यों का विस्तारपूर्वक निरूपण | बड़े और छोटे भाई के पारस्परिक बर्ताव का वर्णन | माता-पिता, आचार्य आदि गुरुजनों के गौरव का वर्णन | मास, पक्ष एवं तिथि सम्बंधी विभिन्न व्रतोपवास के फल का वर्णन | दरिद्रों के लिए यज्ञतुल्य फल देने वाले उपवास-व्रत तथा उसके फल का वर्णन | मानस तथा पार्थिव तीर्थ की महत्ता | द्वादशी तिथि को उपवास तथा विष्णु की पूजा का माहात्म्य | मार्गशीर्ष मास में चन्द्र व्रत करने का प्रतिपादन | बृहस्पति और युधिष्ठिर का संवाद | विभिन्न पापों के फलस्वरूप नरकादि की प्राप्ति एवं तिर्यग्योनियों में जन्म लेने का वर्णन | पाप से छूटने के उपाय तथा अन्नदान की विशेष महिमा | बृहस्पति का युधिष्ठिर को अहिंसा एवं धर्म की महिमा बताना | हिंसा और मांसभक्षण की घोर निन्दा | मद्य और मांस भक्षण के दोष तथा उनके त्याग की महिमा | मांस न खाने से लाभ तथा अहिंसाधर्म की प्रशंसा | द्वैपायन व्यास और एक कीड़े का वृत्तान्त | कीड़े का क्षत्रिय योनि में जन्म तथा व्यासजी का दर्शन | कीड़े का ब्राह्मण योनि में जन्म तथा सनातनब्रह्म की प्राप्ति | दान की प्रशंसा और कर्म का रहस्य | विद्वान एवं सदाचारी ब्राह्मण को अन्नदान की प्रशंसा | तप की प्रशंसा तथा गृहस्थ के उत्तम कर्तव्य का निर्देश | पतिव्रता स्त्रियों के कर्तव्य का वर्णन | नारद का पुण्डरीक को भगवान नारायण की आराधना का उपदेश | ब्राह्मण और राक्षस का सामगुण विषयक वृत्तान्त | श्राद्ध के विषय में देवदूत और पितरों का संवाद | पापों से छूटने के विषय में महर्षि विद्युत्प्रभ और इन्द्र का संवाद | धर्म के विषय में इन्द्र और बृहस्पति का संवाद | वृषोत्सर्ग आदि के विषय में देवताओं, ऋषियों और पितरों का संवाद | विष्णु, देवगण, विश्वामित्र और ब्रह्मा आदि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | अग्नि, लक्ष्मी, अंगिरा, गार्ग्य, धौम्य तथा जमदग्नि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | वायु द्वारा धर्माधर्म के रहस्य का वर्णन | लोमश द्वारा धर्म के रहस्य का वर्णन | अरुन्धती, धर्मराज और चित्रगुप्त द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | प्रमथगणों द्वारा धर्माधर्म सम्बन्धी रहस्य का कथन | दिग्गजों का धर्म सम्बन्धी रहस्य एवं प्रभाव | महादेव जी का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | स्कन्ददेव का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | भगवान विष्णु और भीष्म द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्यों के माहात्म्य का वर्णन | जिनका अन्न ग्रहण करने योग्य है और जिनका ग्रहण करने योग्य नहीं है, उन मनुष्यों का वर्णन | दान लेने और अनुचित भोजन करने का प्रायश्चित | दान से स्वर्गलोक में जाने वाले राजाओं का वर्णन | पाँच प्रकार के दानों का वर्णन | तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना | ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना | नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन | शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना | शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना | वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार | प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण | वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा | ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का वर्णन | बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन | स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन | उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन | मनुष्य को बुद्धिमान, मन्दबुद्धि तथा नपुंसक बनाने वाले कर्मों का वर्णन | राजधर्म का वर्णन | योद्धाओं के धर्म का वर्णन | रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा | संक्षेप से राजधर्म का वर्णन | अहिंसा और इन्द्रिय संयम की प्रशंसा | दैव की प्रधानता | त्रिवर्ग का निरूपण | कल्याणकारी आचार-व्यवहार का वर्णन | विविध प्रकार के कर्मफलों का वर्णन | अन्धत्व और पंगुत्व आदि दोषों और रोगों के कारणभूत दुष्कर्मों का वर्णन | उमा-महेश्वर संवाद में महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन | प्राणियों के चार भेदों का निरूपण | पूर्वजन्म की स्मृति का रहस्य | मरकर फिर लौटने में कारण स्वप्नदर्शन | दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन | यमलोक तथा वहाँ के मार्गों का वर्णन | पापियों की नरकयातनाओं का वर्णन | कर्मानुसार विभिन्न योनियों में पापियों के जन्म का उल्लेख | शुभाशुभ आदि तीन प्रकार के कर्मों का स्वरूप और उनके फल का वर्णन | मद्यसेवन के दोषों का वर्णन | पुण्य के विधान का वर्णन | व्रत धारण करने से शुभ फल की प्राप्ति | शौचाचार का वर्णन | आहार शुद्धि का वर्णन | मांसभक्षण से दोष तथा मांस न खाने से लाभ | गुरुपूजा का महत्त्व | उपवास की विधि | तीर्थस्थान की विधि | सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य | अन्न, सुवर्ण और गौदान का माहात्म्य | भूमिदान के महत्त्व का वर्णन | कन्या और विद्यादान का माहात्म्य | तिल का दान और उसके फल का माहात्म्य | नाना प्रकार के दानों का फल | लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताओं की पूजा का निरूपण | श्राद्धविधान आदि का वर्णन | दान के पाँच फल | अशुभदान से भी शुभ फल की प्राप्ति | नाना प्रकार के धर्म और उनके फलों का प्रतिपादन | शुभ और अशुभ गति का निश्चय कराने वाले लक्षणों का वर्णन | मृत्यु के भेद | कर्तव्यपालनपूर्वक शरीरत्याग का महान फल | काम, क्रोध आदि द्वारा देहत्याग करने से नरक की प्राप्ति | मोक्षधर्म की श्रेष्ठता का प्रतिपादन | मोक्षसाधक ज्ञान की प्राप्ति का उपाय | मोक्ष की प्राप्ति में वैराग्य की प्रधानता | सांख्यज्ञान का प्रतिपादन | अव्यक्तादि चौबीस तत्त्वों की उत्पत्ति आदि का वर्णन | योगधर्म का प्रतिपादनपूर्वक उसके फल का वर्णन | पाशुपत योग का वर्णन | शिवलिंग-पूजन का माहात्म्य | पार्वती के द्वारा स्त्री-धर्म का वर्णन | वंश परम्परा का कथन और श्रीकृष्ण के माहात्म्य का वर्णन | श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन और भीष्म का युधिष्ठिर को राज्य करने का आदेश | श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम् | जपने योग्य मंत्र और सबेरे-शाम कीर्तन करने योग्य देवता | ऋषियों और राजाओं के मंगलमय नामों का कीर्तन-माहात्म्य | गायत्री मंत्र का फल | ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन | कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन | ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद | वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन | ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन | ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन | अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन | कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार | ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना | भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन | श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना | श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना | श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता | भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन | साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण | युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना | भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना | नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य | भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन | भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना | भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना | भीष्म का प्राणत्याग | धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार | गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना

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