वर्णधर्म का वर्णन

महाभारत शान्ति पर्व के ‘राजधर्मानुशासन पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 60 के अनुसार वर्णधर्म का वर्णन इस प्रकार है[1]-

युधिष्ठिर का भीष्म से वर्ण धर्म से सम्बन्धित प्रश्न करना

वैशम्पायनजी कहते है- जनमेजय! तब राजा युधिष्ठिर ने मन को वश में करके गंगानन्दन पितामह भीष्म को प्रणाम किया और हाथ जोडकर पूछा। पितामह! कौन से ऐसे धर्म है, जो सभी वर्णों के लिये उपयोगी हो सकते है। चारों वर्णों के पृथक-पृथक धर्म कौन से है? चारों वर्णों के साथ ही चारों आश्रमों के भी धर्म कौन है तथा राजा के द्वारा पालन करने योग्य कौन कौन से धर्म माने गये है? राष्ट्र की वृद्धि कैसे होती है, राजा का अभ्युदय किस उपास से होता है? भरतश्रेष्ठ! पुरवासियों और भरण पोषण करने योग्य सेवकों की उन्नति भी किस उपाय से होती है? राजा को किस प्रकार के कोश, दण्ड, दुर्ग, सहायक, मन्त्री, ऋत्विक, पुरोहित और आचार्यों का त्याग कर देना चाहिये। पितामह किसी आपत्ति के आने पर राजा को किन लोगों पर विश्वास करना चाहिये और किन लोगों से अपने शरीर की दृढतापूर्वक रक्षा करनी चाहिये यह मुझे बताइये।[1]

भीष्म द्वारा सनातन धर्म का वर्णन

भीष्मजी ने कहा-महान् धर्म को नमस्कार है विश्र विधाता श्रीकृष्ण को नमस्कार है अब मैं उपस्थित ब्राह्मणों को नमस्कार करके सनातन धर्म का वर्णन आरम्भ करता हूँ। किसी पर क्रोध न करना, सत्य बोलना, धन को बाँटकर भोगना, क्षमाभाव रखना, अपनी ही पत्नी के गर्भ से संतान पैदा करना बाहर -भीतर से पवित्र रहना, किसी से द्रोह न करना, सरलभाव रखना और भरण पोषण के योग्य व्यक्तियों का पालन करना -ये नौ सभी वर्णों के लिये उपयोगी धर्म है।[1]

ब्राह्मण धर्म का वर्णन

अब मैं केवल ब्राह्मण का जो धर्म है उसे बता रहा हूँ। महाराज! इन्द्रिय- संयम को ब्राह्मणों का प्राचीन धर्म बताया गया है इसके सिवा उन्हें सदा वेद -शास्त्रों का स्वाध्याय करना चाहिये क्योंकि इसी से उनके सब कर्मों की पूर्ति हो जाती है। यदि अपने वर्णोचित कर्म में स्थित शान्त और ज्ञान विज्ञान से तृप्त ब्राह्मण को किसी प्रकार के असत् कर्म का आश्रय लिये बिना ही धन प्राप्त हो जाय तो वह उस धन से विवाह करके संतान की उत्पत्ति करे अथवा उस धन को दान और यज्ञ में लगा दे धन को बाँटकर ही भोगना चाहिये ऐसा सत्पुरुषों का कथन है। ब्राह्मण केवल वेदों के स्वाध्याय से ही कृतकृत्य हो जाता है। वह दुसरा कर्म करे या न करे। सब जीवों के प्रति मैत्री भाव रखने के कारण वह मैत्र कहलाता है।[1]

क्षत्रिय धर्म का वर्णन

भरतनन्दन! क्षत्रिय का भी जो धर्म है, वह तुम्हें बता रहा हुं। राजन्! क्षत्रिय दान तो करे, किंतु किसी से याचना न करे स्वयं यज्ञ करे, किंतु पुरोहित बनकर दुसरों का यज्ञ न करावे। वह अध्ययन करे, किंतु अध्यापक न बने, प्रजाजनों का सब प्रकार से पालन करता रहे। लुटेरों और डाकुओं का वध करने के लिये सदा तैयार रहे। रणभूमि में पराक्रम प्रकट करे। इन राजाओं मे जो भुपाल बडे-बडे यज्ञ करने वाले तथा वेदशास्त्रों के ज्ञान से सम्पत्र हैं और जो युद्ध में विजय प्राप्त करने वाले है, वे ही पुण्यलोकों पर विजय प्राप्त करने वालों में उत्तम हैं। जो क्षत्रिय शरीर पर घाव हुए बिना ही समर- भूमि से लौट आता है, उसके इस कर्म की पुरातन धर्म को जानने वाले विद्वान प्रशंसा नहीं करते हैं।[1] इस प्रकार युद्ध को ही क्षत्रियों के लिये प्रधान मार्ग बताया गया है, उसके लिये लुटेरों के संहार से बढ कर दुसरा कोई श्रेष्ठतम कर्म नहीं है। यद्यपि दान, अध्ययन और यज्ञ-इनके अनुष्ठान से भी राजाओं का कल्याण होता है, तथापि युद्ध के लिये उद्यत रहना चाहिये। राजा समस्त प्रजाओं को अपने -अपने धर्मों में स्थापित करके उनके द्वारा शांतिपूर्णं समस्त कर्मों का धर्म के अनुसार अनुष्ठान करावे। राजा दुसरा कर्म करे या न करे, प्रजा की रक्षा करने मात्रा से वह कृतकृत्य हो जाता है। उसमें इन्द्र देवता- सम्बन्धी बल की प्रधानता होने से राजा ‘ऐन्द्र’ कहलाता है।[2]

वैश्य का सनातन धर्म

अब वैश्य का जो सनातन धर्म है, वह तुम्हें बता रहा हुं। दान, अध्ययन, यज्ञ और पवित्रतापूर्वक धन का संग्रह ये वैश्य के कर्म हैं। वेश्य सदा उद्योगशील रहकर पुत्रों की रक्षा करने वाले पिता के समान सब प्रकार के पशुओं का पालन करे। इन कर्मों के सिवा वह और जो कुछ भी करेगा, वह उसके लिये विपरीत कर्म होगा। पशुओं के पालन से वैश्य को महान सुख की प्राप्ति हो सकती है। प्रजापति ने पशुओं की सृष्टि करके उनके पालन का भार वैश्य को सौंप दिया था। ब्राह्मण और राजा को उन्होंने सारी प्रजा के पोषण का भार सौंपा था। अब मैं वैश्य की उस वृत्ति का वर्णन करूँगा, जिससे उसका जीवन निर्वाह हों। वैश्य यदि राजा या किसी दूसरे की छः दुधारू गौओं का एक वर्ष तक पालन करे तो उनमें से एक गौ का दूध वह स्वयं पीये ( यही उसके लिये वेतन है )। यदि दूसरे की एक सौ गौओं का वह पालन करे तो सालभर में एक गाय और एक बैल मालिक से वेतन के रूप में ले। यदि उन पशुओं के दूध आदि बेचने से धन प्राप्त हो तो उसमें सातवाँ भाग वह अपने वेतन के रूप में ग्रहण करे। सींग बेचने से जो धन मिले, उसमें से भी वह सातवाँ भाग ही ले; परंतु पशुविशेष का बहुमूल्य खुर बेचने से जो धन प्राप्त हो, उसका सोलहवाँ भाग ही उसे ग्रहण करना चाहिये। दूसरे के अनाज की फसलों तथा सब प्रकार के बीजों की रक्षा करने पर वैश्य को उपज का सातवाँ भाग वेतन के रूप में ग्रहण करना चाहिये। यह उसके लिये वार्षिक वेतन है। वैश्य के मन में कभी यह संकल्प नहीं उठना चाहिये कि मैं पशुओं का पालन नहीं करूंगा। जब तक वैश्य पशुपालन का कार्य करना चाहे, तब तक मालिक को दूसरे किसी के द्वारा किसी तरह भी वह कार्य नहीं कराना चाहिये,[2]

शुद्र के धर्म का वर्णन

भारत! अब मैं शूद्र का भी धर्म तुम्हें बता रहा हूँ। प्रजापति ने अन्य तीनों वर्णों के सेवक के रूप में शूद्र की सृष्टि की है; अतः शूद्र के लिये तीनों वर्णों की सेवा ही शास्त्र-विहित कर्म है। वह उन तीनों वर्णों की सेवा से ही महान सुख का भागी हो सकता है। अतः शूद्र इन तीनों वर्णों की क्रमशः सेवा करे। शूद्र को कभी किसी प्रकार भी धन का संग्रह नहीं करना चाहिये; क्योंकि धन पाकर वह महान पाप में प्रवृत्त हो जाता है और अपने से श्रेष्ठतम पुरुषों को भी अपने अधीन रखने लगता है।[2] धर्मात्मा शूद्र राजा की आज्ञा लेकर अपनी इच्छा के अनुसार कोई धार्मिक कृत्य कर सकता है। अब मैं उसकी वृत्ति का वर्णन करूंगा, जिससे उसकी आजीविका चल सकती है। तीनों वर्णों को शूद्र का भरण पोषण अवश्य करना चाहिये; क्योंकि वह भरण-पोषण करने योग्य कहा गया है। अपनी सेवा में रहने वाले शूद्र को उपभोग में लाये हुए छाते, पगड़ी, अनुलेपन, जूते और पंखे देने चाहिये। फटे-पुराने कपडे, जो अपने धारण करने योग्य न रहें, वे द्विजातियों द्वारा शू्द्र को ही दे देने योग्य हैं; क्योंकि धर्मतः वे सब वस्तुएँ शूद्र की ही सम्पति हैं। द्विजातियों मे से जिस किसी की सेवा करने के लिये कोई शूद्र आवे, उसी को उसकी जीविका की व्यवस्था करनी चाहिये; ऐसा धर्मज्ञ पुरुषों का कथन है। यदि स्वामी संतानहीन हो तो सेवा करने वाले शूद्र को ही उसके लिये पिण्डदान करना चाहिये। यदि स्वामी बूढा या दुर्बल हो तो उसका सब प्रकार से भरण पोषण करना चाहिये। किसी आपति में भी शूद्र को अपने स्वामी के धन का नाश हो जाय तो शूद्र को अपने कुटुम्ब को पालने से बचे हुए धन के द्वारा उसका भरण-पोषण करना चाहिये। शुद्र का अपना कोई धन नहीं होता। उसके सारे धन पर उसके स्वामी का ही अधिकार होता है।[3]

यज्ञ का अनुष्ठान

भरतनन्दन! यज्ञ का अनुष्ठान तीनों वर्णों तथा शूद्र के लिये भी आवश्यक बताया गया है। शूद्र के यज्ञ में स्वाहाकार, वषट्कार तथा वैदिक मन्त्रोंका प्रयोग नहीं होता है। अतः शूद्र स्वयं वैदिक व्रतों की दी़क्षा न लेकर पाकयज्ञों (बलिवैश्देव आदि) द्वारा यजन करे। पाक यज्ञ की दक्षिणा पूर्णपात्रमयी[4] बतायी गयी हैं। हमने सुना है कि पैजवन नामक शुद्र ने ऐन्द्राग्र यज्ञ की विधि से मन्त्रहीन यज्ञ का अनुष्ठान करके उसकी दक्षिणा के रुप में एक लाख पूर्णपात्र दान किये थे। भरतनन्दन! बाह्मण आदि तीनों वर्णें का जो यज्ञ है वह सब सेवाकार्य करने के कारण शूद्र का भी है ही (उसे भी उसका फल मिलता ही है; अतः उसे पृथक् यज्ञ करने की आवश्यकता नही है)। सम्पूर्ण यज्ञों में पहले श्रद्धारुप यज्ञ का ही विधान है। क्योंकि श्रद्धा सबसे बडा देवता है। वही यज्ञ करने वालों को पवित्र करती है।[3]

ब्राह्मण का देवता रूप

ब्राह्मण साक्षात् यज्ञ कराने के कारण परम देवता माने गये हैं। सभी वर्णों के लोग अपने-अपने कर्म द्वारा एक-दूसरेके यज्ञों में सहायक होते हैं। सभी वर्ण के लोगों ने यहाँ यज्ञों का अनुष्ठान किया है और उनके द्वारा वे मनोवाच्छित फलोंसे सम्पन्न हुए हैं। ब्राह्मणों ने ही तीनों वर्णों की संतानों की सृष्टि की है। जो देवताओं के भी देवता हैं, वे ब्राह्मण जो कुछ कहें, वही सबके लिये परम हितकारक है; अतः अन्य वर्णों के लोग ब्राह्मणों के बताये अनुसार ही सब यज्ञों का अनुष्ठान करें, अपनी इच्छा से न करे। ऋक्, साम और यजुर्वेद का ज्ञाता ब्राह्मण सदा देवता के समान पूजनीय है। दास या शूद्र ऋक्, यजु और सामने ज्ञान से शून्य होता है; तो भी वह ‘प्राजापत्य‘ (प्रजापतिका भक्त) कहा गया है। तात! भरतनन्दन! मनसिक संकल्प द्वारा जो भावनात्मक यज्ञ होता है, उसमे सभी वर्णों का अधिकार है।[3] इस मानसिक यज्ञ करने वाले यजमान के यज्ञ में देवता और मनुष्य सभी भाग ग्रहण करने की अभिलाषा रखते हैं; क्योकि उसका यज्ञ श्रद्धा के कारण परम पवित्र होता है; श्रद्धाप्रधान यज्ञ करने का अधिकार सभी वर्णों को प्राप्त है। ब्राह्मण अपने कर्मों द्वारा ही सदा दूसरे वर्णों के लिये अपने-अपने देवता के समान है; अतः वह दूसरे वर्णों का यज्ञ न करता हो, ऐसी बात नहीं है। जिस यज्ञ में वैश्य आचार्य आदि के रुप में कार्य कर रहा हो, वह निकृष्ठ माना गया है। विधाता ने केवल ब्राह्मण को ही तीनों वर्णों का यज्ञ कराने के लिये उत्पन्न किया है। विधाता एकमात्र ब्राह्मण से ही अन्य तीन वर्णो की सृष्टि करते हैं, अतः शेष तीन वर्ण भी ब्राह्मण के समान ही सरल तथा उनके जाति-भाई या कुटुम्बी हैं। जैसै ऋक्, यजुः और साम एकमात्र अकार से ही प्रकट होने के कारण परस्पर अभिन्न हैं, उसी प्रकार उन सभी वर्णों में तत्त्व का निश्चय किया जाय तो एकमात्र ब्राह्मण ही उन सबसे रुप में प्रकट हुआ है, अतः ब्राह्मण के साथ सबकी अभिन्न्ता है। राजेन्द्र! प्राचीन बातों को जानने वाले विद्वान् इस विषय में यज्ञ की अभिलाषा रखने वाले वैखानस मुनियों की कही हुई एक गाथा का उल्लेख किया करते हैं, जो यज्ञ के सम्बन्ध में गायी गयी है। सूर्य के उदय होने पर अथवा सूर्योदय से पहले ही श्रद्धालु एवं जितेन्द्रिय मनुष्य जो धर्म के अनुसार अग्नि में आहुति देता है, उसमें श्रद्धा ही प्रधान हेतु है। (बह्वुच ब्राह्मणमें सोलह प्रकार के अग्रिहोत्र बताये गये हैं) होता का किया हुआ जो हवन वायुदेवता के उद्देश्य से होता है, वह स्कन्नसंज्ञक होम प्रथम है और उसमें भिन्न जों स्कन्नसंज्ञक होम है, वह अन्तिम या सबसे उत्कृष्ट है। इसी प्रकार रौद्र आदि बहुत-से यज्ञ हैं,जो नाना प्रकार के कर्म फल देने वाले हैं। उन षोडश प्रकार के अग्निहोत्रों को जो जानता है, वही यज्ञ-सम्बन्धी निश्यात्मक ज्ञान से सम्पन्न है। ऐसा ज्ञानी एवं श्रद्धालु द्विज ही यज्ञ करने का अधिकारी है। यदि कोई चोर हो, पापी हो अथवा पापाचारियों में भी सबसे महान् हो तो भी जो यज्ञ करना चाहता है, उसे सभी लोग ‘साधु‘ ही कहते हैं।[5]

ऋषि भी उसकी प्रश्ंसा करते हैं। यह यज्ञ-कर्म श्रेष्ठ है, इसमें कोई संदेह नहीं है; अतः सभी वर्णके लोगोंको सदा सब प्रकार से यज्ञ करना चाहिये, यही शास्त्रों का निर्णय है। तीनों लोकोमें यज्ञके समान कुछ भी नहीं है; इसलिये मनुष्य को दोष दृष्टि का परित्याग करके शास्त्रीय विधिका आश्रय ले अपनी शक्ति और इच्छा के अनुसार उत्तम श्रद्धापूर्वक यज्ञका अनुष्ठान करना चाहिये, ऐसा मनीषी पुरुषों का कथन है।[5]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 1.4 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 60 श्लोक 1-16
  2. 2.0 2.1 2.2 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 60 श्लोक 17-30
  3. 3.0 3.1 3.2 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 60 श्लोक 31-44
  4. पूर्णपात्र का परिणाम इस प्रकार है- आठ मुठ्ठी अन्न को किंचित कहते है, आठ किंचित का एक पुष्कल होता है और चार पुष्कलका एक पूर्णपात्र होता है। इस प्रकार दो सौ छप्पन मुठ्ठी का एक पूर्णपात्र होता है।
  5. 5.0 5.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 60 श्लोक 45-54

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महाभारत शान्ति पर्व में उल्लेखित कथाएँ


राजधर्मानुशासन पर्व
युधिष्ठिर के पास नारद आदि महर्षियों का आगमन | युधिष्ठिर का कर्ण को शाप मिलने का वृत्तांत पूछना | नारद का कर्ण को शाप प्राप्त होने का प्रसंग सुनाना | कर्ण को ब्रह्मास्त्र की प्राप्ति और परशुराम का शाप | कर्ण की मदद से दुर्योधन द्वारा कलिंगराज कन्या का अपहरण | कर्ण के बल और पराक्रम से प्रसन्न होकर जरासंध का उसे अंगदेश का राजा बनाना | युधिष्ठिर का स्त्रियों को शाप | युधिष्ठिर का अर्जुन से आन्तरिक खेद प्रकट करना | अर्जुन का युधिष्ठिर के मत का निराकरण करना | युधिष्ठिर का वानप्रस्थ एवं संन्यासी जीवन का निश्चय | भीम का राजा के लिए संन्यासी का विरोध | अर्जुन का इंद्र और ऋषि बालकों के संवाद का वर्णन | नकुल का गृहस्थ धर्म की प्रशंसा करते हुए युधिष्ठिर को समझाना | सहदेव का युधिष्ठिर को ममता और आसक्ति से मुक्त राज्य करने की सलाह देना | द्रौपदी का युधिष्ठिर को राजदण्डधारणपूर्वक शासन के लिए प्रेरित करना | अर्जुन द्वारा राज राजदण्ड की महत्ता का वर्णन | भीम का राजा को मोह छोड़कर राज्य-शासन के लिए प्रेरित करना | युधिष्ठिर द्वारा भीम की बात का विरोध एवं मुनिवृत्ति-ज्ञानी महात्माओं की प्रशंसा | जनक का दृष्टांत सुनाकर अर्जुन द्वारा युधिष्ठिर को संन्यास ग्रहण से रोकना | युधिष्ठिर द्वारा अपने मत की यथार्थता का प्रतिपादन | मुनिवर देवस्थान का युधिष्ठिर को यज्ञानुष्ठान के लिए प्रेरित करना | देवस्थान मुनि द्वारा युधिष्ठिर के प्रति उत्तम धर्म-यज्ञादि का उपदेश | क्षत्रिय धर्म की प्रशंसा करते हुए अर्जुन पुन: युधिष्ठिर को समझाना | व्यास जी द्वारा शंख और लिखित की कथा सुनाना | व्यास द्वारा सुद्युम्न के दण्डधर्मपालन का महत्त्व सुनाकर युधिष्ठिर को आज्ञा देना | व्यास का युधिष्ठिर को हयग्रीव का चरित्र सुनाकर कर्तव्यपालन के लिए जोर देना | सेनजित के उपदेश युक्त उद्गारों का उल्लेख करके व्यास का युधिष्ठिर को समझाना | युधिष्ठिर द्वारा धन के त्याग की महत्ता का प्रतिपादन | युधिष्ठिर को शोकवश शरीर त्यागने को उद्यत देख व्यास का समझाना | अश्मा ऋषि एवं जनक के संवाद द्वारा व्यास द्वारा युधिष्ठिर को समझाना | श्रीकृष्ण द्वारा नारद-सृंजय संवाद के रूप में युधिष्ठिर के शोक निवारण का प्रयत्न | महर्षि नारद और पर्वत का उपाख्यान | सुवर्णष्ठीवी के जन्म, मृत्यु और पुनर्जीवन का वृत्तांत | व्यास का अनेक युक्तियों से युधिष्ठिर को समझाना | व्यास का युधिष्ठिर को समझाते हुए देवासुर संग्राम का औचित्य सिद्ध करना | कर्मों को करने और न करने का विवेचन | पापकर्म के प्रायश्चितों का वर्णन | स्वायम्भुव मनु के कथानुसार का धर्म का स्वरूप | पाप से शुद्धि के लिए प्रायश्चित | अभक्ष्य वस्तुओं का वर्णन | दान के अधिकारी एवं अनधिकारी का विवेचन | व्यासजी और श्रीकृष्ण की आज्ञा से युधिष्ठिर का नगर में प्रवेश | नगर प्रवेश के समय पुरवासियों एवं ब्राह्मणों द्वारा राजा युधिष्ठिर का सत्कार | चार्वाक का ब्राह्मणों द्वारा वध | चार्वाक को प्राप्त हुए वर आदि का श्रीकृष्ण द्वारा वर्णन | युधिष्ठिर का राज्याभिषेक | युधिष्ठिर का धृतराष्ट्र के अधीन रहकर राज्य व्यवस्था के लिए अपने का भाइयों को नियुक्त करना | युधिष्ठिर और धृतराष्ट्र का युद्ध में मारे गये सगे-संबंधियों का श्राद्धकर्म करना | युधिष्ठिर द्वारा भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति | युधिष्ठिर द्वारा दिये हुए भवनों में सभी भाइयों का प्रवेश और विश्राम | युधिष्ठिर द्वारा ब्राह्मणों एवं आश्रितों का सत्कार | युधिष्ठिर और श्रीकृष्ण का संवाद | श्रीकृष्ण द्वारा भीष्म की प्रशंसा तथा युधिष्ठिर को उनके पास चलने का आदेश | भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की स्तुति-भीष्मस्तवराज | परशुराम द्वारा होने वाले क्षत्रिय संहार के विषय में युधिष्ठिर का प्रश्न | परशुराम के उपाख्यान क्षत्रियों का विनाश तथा पुन: उत्पन्न होने की कथा | श्रीकृष्ण द्वारा भीष्म के गुण-प्रभाव का वर्णन | श्रीकृष्ण का भीष्म की प्रशंसा करते हुए उन्हें युधिष्ठिर को धर्मोपदेश देने का आदेश देना | भीष्म द्वारा अपनी असर्मथता प्रकट करने पर भगवान श्रीकृष्ण का उन्हें वर देना | पाण्डवों व ऋषियों का भीष्म से विदा लेना | श्रीकृष्ण की प्रातश्चर्या | सात्यकि द्वारा कृष्ण का संदेश पाकर युधिष्ठिर का भाइयों सहित कुरुक्षेत्र में आना | श्रीकृष्ण और भीष्म की बातचीत | भीष्म द्वारा युधिष्ठिर को गुण-कथनपूर्वक प्रश्न करने का आदेश देना | भीष्म के आश्वासन पर युधिष्ठिर का उनके समीप जाना | युधिष्ठिर के पूछने पर भीष्म द्वारा राजधर्म का वर्णन | राजा के लिए पुरुषार्थ, सत्य, ब्राह्मणों की अदण्डनीयता | राजा की परिहासशीलता तथा मृदुता में प्रकट होने वाले दोष | राजा द्वारा धर्मानुकूल नीतिपूर्ण बर्ताव का वर्णन | भीष्म द्वारा राज्यरक्षा का वर्णन | युधिष्ठिर का 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राजधर्म का साररूप में वर्णन | दण्ड के स्वरूप, नाम, लक्षण और प्रयोग का वर्णन | दण्ड की उत्पत्ति का वर्णन | दण्ड का क्षत्रियों कें हाथ में आने की परम्परा का वर्णन | त्रिवर्ग के विचार का वर्णन | पाप के कारण राजा के पुनरुत्थान के विषय में आंगरिष्ठ और कामन्दक का संवाद | इन्द्र और प्रह्लाद की कथा | शील का प्रभाव, अभाव में धर्म, सत्य, सदाचार और लक्ष्मी के न रहने का वर्णन | सुमित्र और ऋषभ ऋषि की कथा | राजा सुमित्र का मृग की खोज में तपस्वी मुनियों के आश्रम पर पहुँचना | सुमित्र का मुनियों से आशा के विषय में प्रश्न करना | ऋषभ का सुमित्र को वीरद्युम्न व तनु मुनि का वृतान्त सुनाना | तनु मुनि का वीरद्युम्न को आशा के स्वरूप का परिचय देना | ऋषभ के उपदेश से सुमित्र का आशा को त्याग देना | यम और गौतम का संवाद | आपत्ति के समय राजा का धर्म

आपद्धर्म पर्व

आपत्तिग्रस्त राजा के कर्त्तव्य का वर्णन | ब्राह्मणों और श्रेष्ठ राजाओं के धर्म का वर्णन | धर्म की गति को सूक्ष्म बताना | राजा के लिए कोश संग्रह की आवश्यकता | मर्यादा की स्थापना और अमर्यादित दस्युवृत्ति की निन्दा | बल की महत्ता और पाप से छूटने का प्रायश्रित्त | मर्यादा का पालन करने वाले कायव्य दस्यु की सद्गति का वर्णन | राजा के द्वारा किसका धन लेने व न लेने तथा कैसे बर्ताव करे इसके विचार का वर्णन | शत्रुओं से घिरे राजा के कृर्त्तव्य का वर्णन | राजा के कृर्त्तव्य के विषय में बिडाल व चूहे का आख्यान | शत्रु से सावधान रहने के विषय में राजा ब्रह्मदत्त और पूजनी चिड़िया का संवाद | भारद्वाज कणिक का सौराष्ट्रदेश के राजा को कूटनीति का उपदेश | विश्वामित्र और चाण्डाल का संवाद | आपत्काल में धर्म का निश्चय | उत्तम ब्राह्मणों के सेवन का आदेश | बहेलिये और कपोत-कपोती का प्रसंग | कबूतर द्वारा अपनी भार्या का गुणगान व पतिव्रता स्त्री की प्रशंसा | कबूतरी का कबूतर से शरणागत व्याध की सेवा के लिए प्रार्थना | कबूतर द्वारा अतिथि-सत्कार और अपने शरीर का बहेलिये के लिए परित्याग | बहेलिये का वैराग्य | कबूतरी का विलाप और अग्नि में प्रवेश कर उन दोनों को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति | बहेलिये को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति | इन्द्रोत मुनि का जनमेजय को फटकारना | जनमेजय का इन्द्रोत मुनि की शरण में जाना | इन्द्रोत का जनमेजय को शरण देना | इन्द्रोत का जनमेजय को धर्मोपदेश देना | ब्राह्मण बालक के जीवित होने की कथा | नारद जी का सेमल वृक्ष से प्रश्न | नारद जी का सेमल को उसका अहंकार देखकर फटकारना | वायु का सेमल को धमकाना और सेमल का विचारमग्न होना | सेमल का हार स्वीकार कर बलवान के साथ वैर न करने का उपदेश | समस्त अनर्थो का कारण लोभ को बताकर उसने होने वाले पापों का वर्णन | श्रेष्ठ महापुरुषों के लक्षण | अज्ञान और लोभ को ही समस्त दोषों का कारण सिद्ध करना | मन और इंद्रियों के संयम रूप दम का माहात्म्य | तप की महिमा | सत्य के लक्षण, स्वरूप और महिमा का वर्णन | काम, क्रोध आदि दोषों का निरूपण व नाश का उपाय | नृशंस अर्थात अत्यन्त नीच पुरुष के लक्षण | नाना प्रकार के पापों और प्रायश्रितों का वर्णन | खड्ग की उत्पत्ति और प्राप्ति व महिमा का वर्णन | धर्म, अर्थ और काम के विषय में विदुर व पाण्डवों के पृथक-पृथक विचार | अन्त में युधिष्ठिर का निर्णय | मित्र बनाने व न बनाने योग्य पुरुषों के लक्षण | कृतघ्न गौतम की कथा का आरम्भ | गौतम का समुद्र की ओर प्रस्थान व बकपक्षी के घर पर अतिथि होना | गौतम का आतिथ्यसत्कार व विरूपाक्ष के भवन में प्रवेश | गौतम का राक्षसराज के यहाँ से सुर्वणराशि लेकर लौटना | गौतम का अपने मित्र बक के वध का विचार मन में लाना | कृतघ्न गौतम द्वारा राजधर्मा का वध | राक्षसों द्वार कृतघ्न की हत्या व उसके माँस को अभक्ष्य बताना | राजधर्मा और गौतम का पुन: जीवित होना

मोक्षधर्म पर्व

शोकाकुल चित्त की शांति के लिए सेनजित और ब्राह्मण संवाद | पिता के प्रति पुत्रद्वारा ज्ञान का उपदेश | त्याग की महिमा के विषय में शम्पाक का उपदेश | धन की तृष्णा से दु:ख का वर्णन | धन के त्याग से परम सुख की प्राप्ति | जनक की उक्ति तथा राजा नहुष के प्रश्नों के उत्तर मे बोध्यगीता | प्रह्लाद और अवधूत का संवाद | आजगर वृत्ति की प्रशंसा का वर्णन | काश्यप ब्राह्मण और इन्द्र का संवाद | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम कर्ता को भोगने का प्रतिपादन | भरद्वाज और भृगु के संवाद में जगत की उत्पत्ति का वर्णन | आकाश से अन्य चार स्थूल भूतों की उत्पत्ति का वर्णन | पंचमहाभूतों के गुणों का विस्तारपूर्वक वर्णन | शरीर के भीतर जठरानल आदि वायुओं की स्थिति का वर्णन | जीव की सत्ता पर अनेक युक्तियों से शंका उपस्थित करना | जीव की सत्ता तथा नित्यता को युक्तियों से सिद्ध करना | मनुष्यों की और समस्त प्राणियों की उत्पत्ति का वर्णन | कर्मो का और सदाचार का वर्णन | वैराग्य से परब्रह्मा की प्राप्ति | सत्य की महिमा, असत्य के दोष व लोक और परलोक के सुख-दु:ख का विवेचन | ब्रह्मचर्य और गार्हस्थ्य आश्रमों के धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास धर्मों का वर्णन | हिमालय के उत्तर में स्थित लोक की विलक्षणता व महत्ता का प्रतिपादन | भृगु और भरद्वाज के संवाद का उपसंहार | शिष्टाचार का फलसहित वर्णन | पाप को छिपाने से हानि और धर्म की प्रशंसा | अध्यात्मज्ञान का निरूपण | ध्यानयोग का वर्णन | जपयज्ञ के विषय में युधिष्ठिर का प्रश्न | जप और ध्यान की महिमा और उसका फल | जापक में दोष आने के कारण उसे नरक की प्राप्ति | जापक के लिए देवलोक भी नरक तुल्य इसके प्रतिपादन का वर्णन | जापक को सावित्री का वरदान | धर्म, यम और काल का आगमन | राजा इक्ष्वाकु और ब्राह्मण का संवाद | सत्य की महिमा तथा जापक की गति का वर्णन | ब्राह्मण और इक्ष्वाकु की उत्तम गति का वर्णन | जापक को मिलने वाले फल की उत्कृष्टता | मनु द्वारा कामनाओं के त्याग एवं ज्ञान की प्रशंसा | परमात्मतत्त्व का निरूपण | आत्मतत्त्व और बुद्धि आदि पदार्थों का विवेचन | साक्षात्कार का उपाय | शरीर, इन्द्रिय और मन-बुद्धि से आत्मा की सत्ता का प्रतिपादन | आत्मा व परमात्मा के साक्षात्कार का उपाय तथा महत्त्व | परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | मनु बृहस्पति संवाद की समाप्ति | श्री कृष्ण से सम्पूर्ण भूतों की उत्पत्ति | श्री कृष्ण की महिमा का कथन | ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन | प्रत्येक दिशा में निवास करने वाले महर्षियों का वर्णन | विष्णु का वराहरूप में प्रकट हो देवताओं की रक्षा और दानवों का विनाश | नारद को अनुस्मृतिस्तोत्र का उपदेश | नारद द्वारा भगवान की स्तुति | श्री कृष्ण सम्बन्धी अध्यात्मतत्तव का वर्णन | संसारचक्र और जीवात्मा की स्थिति का वर्णन | निषिद्ध आचरण के त्याग आदि के परिणाम तथा सत्त्वगुण के सेवन का उपदेश | जीवोत्पत्ति के दोष और बंधनों से मुक्त तथा विषय शक्ति के त्याग का उपदेश | ब्रह्मचर्य तथा वैराग्य से मुक्ति | आसक्ति छोड़कर सनातन ब्रह्म की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने के उपदेश | स्वप्न और सुषुप्ति-अवस्था में मन की स्थिति का वर्णन | गुणातीत ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | सच्चिदान्नदघन परमात्मा, दश्यवर्ग प्रकृति और पुरुष उन चारों के ज्ञान से मुक्ति का वर्णन | परमात्मा प्राप्ति के अन्य साधनों का वर्णन | राजा जनक के दरबार में पञ्चशिख का आगमन | नास्तिक मतों के निराकरणपूर्वक शरीर से भिन्न आत्मा की नित्य सत्ता का प्रतिपादन | पञ्चशिख के द्वारा मोक्षतत्त्व के विवेचन का वर्णन | विष्णु द्वारा मिथिलानरेश जनकवंशी जनदेव की परीक्षा और उनके के लिए वर प्रदान | श्वेतकेतु और सुवर्चला का विवाह | पति-पत्नी का अध्यात्मविषयक संवाद | दम की महिमा का वर्णन | व्रत, तप, उपवास, ब्रह्मचर्य तथा अतिथि सेवा का विवेचन | सनत्कुमार का ऋषियों को भगवत्स्वरूप का उपदेश | इंद्र और प्रह्लाद का संवाद | इन्द्र के आक्षेप युक्त वचनों का बलि के द्वारा कठोर प्रत्युत्तर | बलि और इन्द्र का संवाद | बलि द्वारा इन्द्र को फटकारना | इन्द्र और लक्ष्मी का संवाद | बलि को त्यागकर आयी हुई लक्ष्मी की इन्द्र के द्वारा प्रतिष्ठा | इन्द्र और नमुचि का संवाद | काल और प्रारब्ध की महिमा का वर्णन | लक्ष्मी का दैत्यों को त्यागकर इन्द्र के पास आना | सद्गुणों पर लक्ष्मी का आना व दुर्गुणों पर त्यागकर जाने का वर्णन | जैगीषव्य का असित-देवल को समत्वबुद्धि का उपदेश | श्रीकृष्ण और उग्रसेन का संवाद | शुकदेव के प्रश्नों के उत्तर में व्यास जी द्वारा काल का स्वरूप बताना | व्यास जी का शुकदेव को सृष्टि के उत्पत्ति-क्रम तथा युगधर्मों का उपदेश | ब्राह्मप्रलय एंव महाप्रलय का वर्णन | ब्राह्मणों का कर्तव्य और उन्हें दान देने की महिमा का वर्णन | ब्राह्मण के कर्तव्य का प्रतिपादन करते हुए कालरूप नद को पार करने का उपाय | ध्यान के सहायक योग | फल और सात प्रकार की धारणाओं का वर्णन | मोक्ष की प्राप्ति | सृष्टि के समस्त कार्यों में बुद्धि की प्रधानता | प्राणियों की श्रेष्ठता के तारतम्य का वर्णन | नाना प्रकार के भूतों की समीक्षापूर्वक कर्मतत्त्व का विवेचन | युगधर्म का वर्णन एवं काल का महत्त्व | ज्ञान का साधन और उसकी महिमा | योग से परमात्मा की प्राप्ति का वर्णन | कर्म और ज्ञान का अन्तर | ब्रह्मप्राप्ति के उपाय का वर्णन | ब्रह्मचर्य-आश्रम का वर्णन | गार्हस्थ्य-धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास-आश्रम के धर्म और महिमा का वर्णन | संन्यासी के आचरण | ज्ञानवान संन्यासी का प्रशंसा | परमात्मा की श्रेष्ठता व दर्शन का उपाय | ज्ञानमय उपदेश के पात्र का निर्णय | महाभूतादि तत्त्वों का विवेचन | बुद्धि की श्रेष्ठता और प्रकृति-पुरुष-विवेक | ज्ञान के साधन व ज्ञानी के लक्षण और महिमा | परमात्मा की प्राप्ति का साधन | ज्ञान से ब्रह्म की प्राप्ति | ब्रह्मवेत्ता के लक्षण व परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | शरीर में पंचभूतों के कार्य व गुणों की पहचान | जीवात्मा और परमात्मा का योग द्वारा साक्षात्कार | कामरूपी अद्भुत वृक्ष व शरीर रूपी नगर का वर्णन | मन और बुद्धि के गुणों का विस्तृत वर्णन | युधिष्ठिर का मृत्युविषयक प्रश्न व ब्रह्मा की रोषाग्नि से प्रजा के दग्ध होने का वर्णन | ब्रह्मा के द्वारा रोषाग्नि का उपसंहार व मृत्यु की उत्पत्ति | मृत्यु की तपस्या व प्रजापति की आज्ञा से मृत्यु का प्राणियों के संहार का कार्य स्वीकार करना | धर्माधर्म के स्वरूप का निर्णय | युधिष्ठिर का धर्म की प्रमाणिकता पर संदेह उपस्थित करना | जाजलि की घोर तपस्या व जटाओं में पक्षियों का घोंसला बनाने से उनका अभिमान | आकाशवाणी की प्रेरणा से जाजलि का तुलाधार वैश्य के पास जाना | जाजलि और तुलाधार का धर्म के विषय में संवाद | जाजलि को तुलाधार का आत्मयज्ञविषयक धर्म का उपदेश | जाजलि को पक्षियों का उपदेश | राजा विचख्नु के द्बारा अहिंसा-धर्म की प्रशंसा | महर्षि गौतम और चिरकारी का उपाख्यान | दीर्घकाल तक सोच-विचारकर कार्य करने की प्रशंसा | द्युमत्सेन और सत्यवान का संवाद | अहिंसापूर्वक राज्यशासन की श्रेष्ठता का कथन | स्यूमरश्मि और कपिल का संवाद | प्रवृत्ति एवं निवृत्तिमार्ग के विषय में स्यूमरश्मि व कपिल संवाद | चारों आश्रमों में उत्तम साधनों के द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति का कथन | ब्रह्मण और कुण्डधार मेघ की कथा | यज्ञ में हिंसा की निंदा और अहिंसा की प्रशंसा | धर्म, अधर्म, वैराग्य और मोक्ष के विषय में युधिष्ठिर के प्रश्न | मोक्ष के साधन का वर्णन | नारद और असितदेवल का संवाद | तृष्णा के परित्याग के विषय में माण्डव्य मुनि और जनक का संवाद | पिता और पुत्र का संवाद | हारित मुनि के द्वारा आचरण व धर्मों का वर्णन | ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | ब्रह्म की प्राप्ति के विषय में वृत्र और शुक्र का संवाद | वृत्रासुर को सनत्कुमार का आध्यात्मविषयक उपदेश | भीष्म द्वारा युधिष्ठिर की शंका निवारण | इन्द्र और वृत्रासुर के युद्ध का वर्णन | वृत्रासुर के वध से प्रकट हुई ब्रह्महत्या का ब्रह्मा जी के द्वारा चार स्थानों में विभाजन | शिवजी के द्वारा दक्ष के यज्ञ का भंग | शिवजी के क्रोध से ज्वर की उत्पत्ति व उसके विविध रूप | पार्वती के रोष के निवारण के लिए शिव द्वारा दक्ष-यज्ञ का विध्वंस | महादेव जी का दक्ष को वरदान | स्तोत्र की महिमा | अध्यात्म ज्ञान और उसके फल का वर्णन | समंग द्वारा नारद जी से अपनी शोकहीन स्थिति का वर्णन | नारद जी द्वारा गालव मुनि को श्रेय का उपदेश | अरिष्टनेमि का राजा सगर को मोक्षविषयक उपदेश | उशना का चरित्र | उशना को शुक्र नाम की प्राप्ति | पराशर मुनि का राजा जनक को कल्याण की प्राप्ति के साधन का उपदेश | कर्मफल की अनिवार्यता | कर्मफल से लाभ | धर्मोपार्जित धन की श्रेष्ठता, व अतिथि-सत्कार का महत्त्व | गुरुजनों की सेवा से लाभ | सत्संग की महिमा व धर्मपालन का महत्त्व | ब्राह्मण और शूद्र की जीविका | मनुष्यों में आसुरभाव की उत्पत्ति व शिव के द्वारा उसका निवारण | विषयासक्त मनुष्य का पतन | तपोबल की श्रेष्ठता व दृढ़तापूर्वक स्वधर्मपालन का आदेश | वर्ण विशेष की उत्पत्ति का रहस्य | हिंसारहित धर्म का वर्णन | धर्म व कर्तव्यों का उपदेश | राजा जनक के विविध प्रश्नों का उत्तर | ब्रह्मा को साध्यगणों को उपदेश | योगमार्ग के स्वरूप, साधन, फल और प्रभाव का वर्णन | सांख्ययोग के अनुसार साधन का वर्णन | सांख्ययोग के फल का वर्णन | वसिष्ठ और करालजनक का संवाद | प्रकृति-संसर्ग के कारण जीव का बारंबार जन्म ग्रहण करना | प्रकृति के संसर्ग दोष से जीव का पतन | क्षर-अक्षर एवं प्रकृति-पुरुष के विषय में राजा जनक की शंका | योग और सांख्य के स्वरूप का वर्णन तथा आत्मज्ञान से मुक्ति | विद्या-अविद्या व पुरुष के स्वरूप के उद्गार का वर्णन | वसिष्ठ व जनक संवाद का उपसंहार | जनकवंशी वसुमान को मुनि का धर्मविषयक उपदेश | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश | इन्द्रियों में मन की प्रधानता का प्रतिदान | संहार क्रम का वर्णन | अध्यात्म व अधिभूत वर्णन तथा राजस और तामस के भावों के लक्षण | राजा जनक के प्रश्न | प्रकृति पुरुष का विवेक और उसका फल | योग का वर्णन व उससे परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति | मृत्यु सूचक लक्षण व मृत्यु को जीतने का उपाय | याज्ञयवल्क्य द्वारा सूर्य से वेदज्ञान की प्राप्ति का प्रसंग सुनाना | विश्वावसु को जीवात्मा और परमात्मा की एकता के ज्ञान का उपदेश देना | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश देकर विदा होना | पञ्चशिख और जनक का संवाद | सुलभा का राजा जनक के शरीर में प्रवेश करना | राजा जनक का सुलभा पर दोषारोपण करना | सुलभा का राजा जनक को अज्ञानी बताना | व्यास जी का शुकदेव को धर्मपूर्ण उपदेश देते हुए सावधान करना | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम का वर्णन | शंकर द्वारा व्यास को पुत्रप्राप्ति के लिये वरदान देना | शुकदेव की उत्पति तथा संस्कार का वृतान्त | पिता की आज्ञा से शुकदेव का मिथिला में जाना | शुकदेव का ध्यान में स्थित होना | राजा जनक द्वारा शुकदेव जी का पूजन तथा उनके प्रश्न का समाधान | जनक द्वारा बह्मचर्याश्रम में परमात्मा की प्राप्ति | शुकदेव द्वारा मुक्त पुरुष के लक्षणों का वर्णन | शुकदेव का पिता के पास लौट आना


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