वराह अवतार की संक्षिप्त कथा

महाभारत सभा पर्व के ‘अर्घाभिहरण पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 38 के अनुसार वराह अवतार की संक्षिप्त कथा का वर्णन इस प्रकार है[1]-


भीष्म जी द्वार कृष्ण के वारह अवतार का वर्णन

भीष्मजी कहते हैं- कुरुनन्दन! भगवान के अब तक कई सहस्र अवतार हो चुके हैं। मैं यहाँ कुछ अवतारों का यथाशक्ति वर्णन करूँगा। तुम ध्यान देरक उनका वृत्तान्त सुनों। पूर्वकाल में जब भगवान पद्मनाभ समुद्र के जल में शयन कर रहे थे, पुष्कर में उनसे अनेक देवताओं और महर्षियों का प्रादुर्भाव हुआ। ‘यह भगवान का ‘पोष्करिक’ (पुष्कर सम्बन्धी) पुरातन आवतार कहा गया है, जो वैदिक श्रुतियों द्वारा अनुमोदित है। महात्मा श्रीहरि का जो वराह नामक अवतार है, उस में भी प्रधानत: वैदिक श्रुति ही प्रमाण है। उस अवतार के समय भगवान ने वराहरूप धारण करके पर्वतों और वनों सहित सारी पृथ्वी को जल से बाहर निकाला था। चारों वेद ही भगवान वराह के चार पैर थे। यूप ही उनकी दाढ़ थे। क्रतु (यज्ञ) ही दाँत और ‘चिति’ (दृष्टि का चयन) ही मुख थे। अग्नि जिह्वा, कुश रोम तथा ब्रह्म मस्तक थे। वे महान् तप से सम्पन्न थे। दिन और रात ही उनके दो नेत्र थे। उनका स्वरूप दिव्य था। वेदांग ही उनके विभिन्न अंग थे। श्रुतियाँ ही उनके लिए आभूषण का काम देती थीं। घी उनकी नासिका, स्त्रुवा उनकी यूथुन और सामवेद का स्वर ही उनकी भीषण गर्जना थी। उनका शरीर बहुत बड़ा था। धर्म और सत्य उनका स्वरूप था, वे अलौकिक तेज से सम्पन्न थे। वे विभिन्न कर्मरूपी विक्रम से सुशोभित हो रहे थे, पशु उनके घुटनों के स्थान में थे और महान वृषभ (धर्म) ही उनका श्रीविग्रह था। उद्राता का होमरूप कर्म उनका लिंग था, फल और बीत ही उनके लिये महान औषध थे, वे बाह्य और आभयन्तर जगत के आत्मा थे, वैदिक मंत्र ही उनके शारीरिक अस्थि विकार थे। देखने में उनका स्वरूप बड़ा ही सौम्य था। यज्ञ की वेदी ही उनके कंधे, हविष्य सुगन्ध और हव्य कव्य आदि उनके वेग थे। प्रागवंश (यज मानगूह एवं पत्नीशाला) उनका शरीर कहा गया है। वे महान तेजस्वी और उनके प्रकार की दीक्षाओं से व्याप्त थे। दक्षिणा उनके हृदय के स्थान में थीं, वे महान् योगी और महान शास्त्रस्वरूप थे। प्रीतिकारक उपाकर्म उनके ओष्ठ और प्रवर्ग्य कर्म ही उनके रत्नों के आभूषण थे।[1]
जल में पढ़ने वाली छाया (परछाई) ही पत्नी की भाँति उनकी सहायिका थी। इस प्रकार यज्ञमय वराहरूप धारण करके एकार्णव के जल में प्रविष्ठ हो सर्वशक्तिमान् सनातन भगवान विष्णु ने उस जल में गिरकर डूबी हुई पर्वत, वन और समुद्रों सहित अपनी महारानी भूदेवी का (दाढ़ या) सींग की सहयाता से मार्कण्डेय मुनि के देखते देखते उद्धार किया। सहस्रों मस्ताकों से सुशोभित होने वाले उन भगवान ने सींग (या दाढ़) के द्वारा सम्पूर्ण जगत के हित के लिये इस पृथ्वी का उद्धार करके उसे जगत का एक सुदृढ़ आश्रय बना दिया। इस प्रकार भूत, भविष्य और वर्तमानस्वरूप भगवान यज्ञ वराह ने समुद्र का जल हरण करने वाली भूदेवी का पूर्व काल में उद्धार किया था। उस समय उन देवाधिदेव विष्णु ने समस्त दानवों का संहार किया था यह वराह अवतार का वृततान्त बतलाया गया।[2]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 6
  2. महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 7

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