लिङ्ग पुराण

लिङ्ग पुराण, चौखम्बा संस्कृत सीरीज आफ़िस, वाराणसी का आवरण पृष्ठ

'लिंग पुराण' शैव सम्प्रदाय का पुराण है। 'लिंग' का अर्थ शिव की जननेन्द्रिय से नहीं अपितु उनके 'पहचान चिह्न' से है, जो अज्ञात तत्त्व का परिचय देता है। इस पुराण में लिंग का अर्थ विस्तार से बताया गया है। यह पुराण प्रधान प्रकृति को ही लिंग रूप मानता है-

प्रधानं प्रकृतिश्चैति यदाहुर्लिंगयुत्तमम्।
गन्धवर्णरसैर्हीनं शब्द स्पर्शादिवर्जितम्॥[1]

अर्थात प्रधान प्रकृति उत्तम लिंग कही गई है जो गन्ध, वर्ण, रस, शब्द और स्पर्श से तटस्थ या वर्जित है।

कथा भाग

'लिंग पुराण' का कथा भाग 'शिव पुराण' के समान ही है। शैव सिद्धान्तों का अत्यन्त सरल, सहज, व्यापक और विस्तृत वर्णन जैसा इस पुराण में किया गया है, वैसा किसी अन्य पुराण में नहीं है। इस पुराण में कुल एक सौ तिरसठ अध्याय हैं। पूर्वार्द्ध में एक सौ आठ और उत्तरार्द्ध में पचपन अध्याय हैं। इसमें शिव के अव्यक्त ब्रह्मरूप का विवेचन करते हुए उनसे ही सृष्टि का उद्भव बताया गया है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. लिंग पुराण 1/2/2

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