साह गोविन्दलाल जी का परिवार लखनऊ के जौहरियों में मुख्य था। लखनऊ इस समय नवाबों का प्रसिद्ध शहर हुआ करता था। गोविन्दलाल की दूसरी स्त्री से साह कुन्दनलाल और साह फुन्दनलाल हुए। दोनों भाइयों में प्रगाढ़ प्रेम था। भारतेन्दु जी के शब्दों में तो यह ‘राम-लखन की जोड़ी’ थी।
वृन्दावन आगमन
पारिवारिक कलह के कारण दोनों भाई कुन्दनलाल तथा फुन्दनलाल संवत 1913 विक्रमी (1856 ई.) में में लखनऊ छोड़कर वृन्दावन चले गये। वृन्दावन उन दिनों प्रेमी भक्तों का अखाड़ा हो रहा था। साह कुन्दनलाल ‘श्रीललितकिशोरी’ की छाप से और साह फुन्दनलाल 'श्रीललितमाधुरी’ के नाम से भगवान की प्रेम-लीलाओं का गुणगान करने लगे। पद दस हज़ार से कम न होंगे।
मन्दिर निर्माण
संवत 1917 विक्रमी (1860 ई.) में दोनों भाईयों ने संगमरमर का एक अति विचित्र मन्दिर बनवाना आरम्भ किया और संवत 1925 विक्रमी (1868 ई.) में उस मन्दिर में श्रीठाकुर जी पधराये गये। इस मन्दिर का नाम ‘ललितनिकुंज’ रखा गया। ललितकिशोरी जी कार्तिक शुक्ल 2, संवत 1930 विक्रमी (1873 ई.) को सशरीर वृन्दावन की रज में लीन हो गये।
पद रचना
ललितकिशोरी जी ने ‘रासविलास’, ‘अष्टयाम’ और 'समयप्रबन्ध' सम्बन्धी बड़े ही मधुर और प्रेमपूर्ण पद रचे हैं। अपने बड़े भाई के गोलोकवासी हो चुकने पर ललितमाधुरी ने जितने पद रचे हैं, उन सबमें अपने नाम को न रखकर ललितकिशोरी की ही छाप दी है। इनकी भ्रातृभक्ति और हरिभक्ति धन्य है। ललितकिशोरी जी की अलमस्ती का आनन्द भी उनका अपना है-
"जमुना पुलिन कुंज गहबर की कोकिल ह्वै द्रुम कूक मचाऊँ।
पद पंकज प्रिय लाल मधुप ह्वै मधुरे मधुरे गूँज सुनाऊँ।।
कूकर ह्वै बन बीथिन डोलौं, बचे सीथ रसिकन के खाऊँ।
ललितकिसोरी आस यहै मम, ब्रज रज तजि छिन अनत न जाऊँ।।"
ललितमाधुरी ने वृन्दावन के दिव्य आनन्द को किस उल्लास के साथ गाया है-
"देखौ बलि बृंदाबन आनंद।
नवल सरद निसि नव बसंत रितु, नवल सु राका चंद।।
नवल मोर पिक कीर कोकिला, कूजत नवल मलिंद।
रटत श्री राधे राधे माधव, मारुत सीतल मंद।।
नवल किसोर उमंगन खेलत, नवल रास रस कंद।
ललितामाधुरी रसिक दोउ बर, निरतत दियें कर फंद।।"
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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