लखि लोचन, सोचै हनुमान -सूरदास

सूरसागर

नवम स्कन्ध

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राग धनाश्री


 
लखि लोचन, सोचै हनुमान।
चहुँ दिसि लंक-दुर्ग दानवदल, कैसे पाऊँ जान।
सौ जोजन विस्तार कनकपुरि, चकरी जोजन बीस।
मनौ विश्वकर्मा कर अपुनै, रुचि राखी गिरि-सीस।
गरजत रहत मत गज चहुँदिसि, छत्र-धुजा चहुँ दीस।
भरमित भयौ देखि मारुत-सुत, दियौ महाबल ईस।
उडि़ हनुमंत गयौ आकासहिं पहुँयौ नगर मँझारि।
वन-उपवन, गम-अगम-अगोचर-मंदिर फिरयौ निहारि।
भई पैज अब हीन हमारी, जिय मैं कहै विचारि।
पटकि पूंछ माथौ धुनि लौटै, लखी न राघव-नारि।
नाना रूप निसाचर अद्भूत, सदा करत मद-पान।
ठौर ठौर अभ्यास महाबल करत कुंत-असि-बान।
जिय सिय-सोच करत मारुत-सुत जियति न मेरैं जान।
कै वह भाजि सिंधु मैं डूबो, कै उहिं तज्यौ परान।
कैसैं नाथहिं मुख दिखराऊँ जौ बिनु देखे जाउँ।
बानर बीर हँसैगे मोकौं, तैं बोरयौ पितु-नाउँ।
रिच्छप तर्क बोलिहै मोसौं, ताकौ बहुत डराउँ।
भलैं राम कौं सीय मिलाई, जीति कनकपुर गाउँ।
जब मोहिं अँगद कुसल पूछिहै, कहा कहौंगो वाहि।
या जीवन तैं मरन भलौ है, मैं देख्यौ अवगाहि।
मारौं आजु लंक लंकापति, लै दिखराउँ ताहि।
चौहद सहस जुवति अंत:पुर, लैहैं राघव चाहि।
मंदिर की परछाया बैठयौ, कर मीजै पछिताइ।
पहिलैं हूँ न लखी मैं सीता, क्यौंछ पहिचानी आइ।
दुर्बल दीन-छीन चिंति‍त अति जपत नाइ रघुराइ।
ऐसौ बिधि देखिहौं जानकी, रहिहौं सीस नवाइ।
बहुरि बीर जब गयौ अवासहिं, जहाँ बसै दसकंध।
नगनि जटित मनि-खंभ बनाए, पूरन बात-सुगंध।
स्वेत छत्र फहरात सीस पर, मनौ लच्छि कौ वंध।
चौहद सहस नाग-कन्या-रति, पुरयौ सौ रत मतिअंध।
बीना-झाँझ-पखाउज-आउज, और राजसी भोग।
पुहुप-प्रजंक परी नवजोबनि, सुरत्र-परिमल-संजोग।
जिय जिय गढै़ करै बिस्वासहिं, जानै लंका लोग।
इहिं सुख-हेत हरी है सीता, राघव विपति-वियोग।
पुनि आयौ सीता, जहँ बैठी, बन असोक के माहि।
चारौं ओर निसिचरी घेरे, नर जिहिं देखि डराहिं।
बैठयौ जाइ एक तरूवर पर, जाकी सीतल छाहिं।
बहु निसाचरी मध्यर जानकी, मलिन वसन तन माहिं।
बारंबार विसूरि सूर दुख, जपत नाम रघुनाहु।
ऐसी भाँति जानकी देखी, चंद गह्यौ ज्यौं राहु॥75॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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