विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीप्रवचन 7भगवान की प्रेम-परवशताश्रीशुक उवाच अच्छा! आज रासपंचाध्यायी सुनाने से पहले दो-चार बात। ऐसा है कि सबेरे वेदान्त सुनते हैं और शाम को भक्ति की बात आप सुनाते हैं। तो दोनों में क्या संगति है? ऐसा कई लोग पूछते हैं। बात यह है कि संपूर्ण जगत् ब्रह्म है। यदि ब्रह्म से अतिरिक्त है तो मिथ्या है- यह बात केवल ब्रह्मज्ञानी के ही अनुभव में आती है और वेदान्तों में केवल ब्रह्मज्ञानी के लिए ही ऐसे वाक्य लिखे गये हैं। जो अधिष्ठान आख्यात्मिका बोध होने से पहले किसी युक्ति से, किसी विज्ञान से, किसी मशीन से, किसी भावना से, किसी मानसिक स्थिति से इस संसार को मिथ्या समझ लेता है वह गलत समझता है। वेदान्तोक्त ब्रह्मज्ञान के बिना- तत्त्वमस्यादि महावाक्य जन्य प्रत्यक् चैतन्याभिन्न ब्रह्मतत्त्व के बोध के बिना यह प्रपञ्च मिथ्या हो नहीं सकता। ये सब जो गजल से ब्रह्मज्ञानी बनते हैं या विज्ञान से ब्रह्मज्ञानी बनते हैं या मशीन से ब्रह्मज्ञानी बनते हैं या ब्रह्म को कोई व्यावहारिक वस्तु समझकर ब्रह्मज्ञानी बनते हैं; झूठे ब्रह्मज्ञानी हैं। ब्रह्मज्ञान तो जब कोई शुद्ध अन्तःकरण पुरुष त्वं-पद-लक्ष्यार्थ और तत्पद-लक्ष्यार्थ- दोनों को वेदान्त की रीति से समझकर, दोनों की एकता को जानकर अपने को ब्रह्म अनुभव करता है, तभी होता है और तभी अपने से अन्यत्व के मिथ्यात्व को जानता है; यही ब्रह्मज्ञान की प्रणीला है और दूसरी सब प्रणाली झूठी है। ये जो अहं-अहं करते हैं सो भी और जो ‘नेति-नेति’ करते हैं, सो भी, उपनिषद् के बिना जो ब्रह्मज्ञान की प्रणाली है वह अर्थशास्त्रीय है और सच्ची नहीं है। ब्रह्मज्ञान के पहले यह जगत् बिलकुल सच्चा है। अब इसमें जरा ईश्वर की बात देखो! असल में, दुनिया के जितने साधन है, वे ईश्वर को काबू में करने के लिए हैं। आप इसमें कुछ अतिश्योक्ति मत मानना। यह आत्मा स्वभाव से ब्रह्म है और यह सबको अपने काबू में करना चाहता है, यहाँ तक कि ईश्वर को भी अपने काबू में रखना चाहता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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