विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीप्रवचन 20श्रीकृष्ण का अमिय-गरल-वर्षण
जब परमात्मा के केवल आनन्दस्वरूप का अनुसंधान करते हैं तब हृदय में भगवान् का प्रेम और संसार से वैराग्य का उदय होता है। तो जो कहते हैं कि दुःख की आत्यन्तिक निवृत्ति और परमानन्द की प्राप्ति लक्ष्य है, उन सबके लिए भगवद्भक्ति करना अनिवार्य है, क्योंकि प्रेम आनन्द से होता है और जो आनन्द के सिवाय होता है, उससे जो पृथक् होता है, वह तो दुःख होता है और दुःख से वैराग्य होता है। तो भक्ति जो है वह सच्चिदानन्द में से आनन्द प्रधान है; और सांख्य योग का जो विवेक है कि यह दृश्य और हम द्रष्टा, वह चैतन्यप्रधान है। द्रष्टा चैतन्य होता है और दृश्य जड़ होता है। तो जड़ से अपने आपको विवक्ति करना, अलग करना, चैतन्य हो जाना है और दुःख से अपने को अलग करना आनन्द से जोड़ना है। अब देखो, इसमें सूझ-बूझ की बात क्या है कि ‘मैं आनन्द हूँ’ ऐसा अनुसंधान नहीं करते। वह परमेश्वर जिसको हम पाना चाहते हैं ‘वह आनन्द है’, ऐसा अनुसंधान करते हैं। उधर वह चैतन्य है, ऐसा अनुसंधान नहीं करते, मैं दृश्य का द्रष्टा, जड़ का स्वयं चैतन्य हूँ, ऐसा अनुसंधान करते हैं। क्योंकि दूसरे को चैतन्य मानना केवल मान्यता हो जाएगी और अपने को आनन्द मानने में पुरुषार्थ की हानि हो जायेगी। तुम खुद ही आनन्द हो तो चाहते क्यों हो? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद्भागवत 10.29.19-22
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