रासपंचाध्यायी -अखण्डानन्द सरस्वती पृ. 198

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रासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती

प्रवचन 18

विकारयुक्त प्रेम से भी भगवत्प्राप्ति सम्भव है

उक्तं पुरस्तादेतत्ते......पेशैर्विमोहयन
श्रीशुक उवाच
उक्तं परस्तादेतत्ते चैद्यः सिद्धिं यथा गतः ।
द्विषन्नपि हृषिकेशं किमुताधोक्षजप्रियाः ।।
नृणां निःश्रेयसार्थाय व्यक्तिर्भगवतो नृप ।
अव्ययस्याप्रमेयस्य निर्गुणस्य गुणात्मनः ।।
कामं क्रोधं भयं स्नेहमैक्यं सौहृदमेव च ।
नित्यं हरौ विदधतो यान्ति तन्मयतांहि ते ।।
न चैवं विस्मयः कार्यो भवता भगवत्यजे ।
योगेश्वरेश्वरे कृष्णे यत यतद् विमुच्यते ।।
ता दृष्टान्तिकमायाता भगवान् व्रजयोषितः ।
अवदद् वदतां श्रेष्ठो वाचः पेशैर्वमोहयन ।।[1]

रासलीला के संबंध में राजा परीक्षित ने शुकदेव जी से प्रश्न उठाया। शुकदेव जी ने कहा यदि भक्त के हृदय में श्रीकृष्ण से मिलने की हार्दिक व्याकुलता हो और प्रेम पूर्वक ध्यान हो, तो शरीर का एक-एक कण बदलकर भौतिक से दिव्य हो जाता है, लौकिक से अलौकिक हो जाता है, आधिभौतिक देह की जगह आतिवाहिक देह की प्राप्ति हो जाती है और मंगलमय, दिव्यमय होकर भगवाने के उपभोगयोग्य शरीर प्राप्त कर वह उनकी लीला में प्रविष्ट हो जाता है। भगवान् के प्रेमपूर्वक ध्यान में बड़ी शक्ति है।

राजा परीक्षित ने शंका की कि भगवान् का आदरभाव ज्ञान से होता है या भक्ति से होता है और गोपियों को न तो ज्ञान था और न तो ईश्वर की जैसी भक्ति होनी चाहिए वैसी भक्ति थी, ऐश्वर्य ज्ञानपूर्वक तो भक्ति नहीं थी, पहचानती नहीं थी गोपियों कि ईश्वर है; या भक्ति से होता है और गोपियों को न तो ज्ञान था और न तो ईश्वर की जैसी भक्ति होनी चाहिए वैसी भक्ति थी, ऐश्वर्य ज्ञानपूर्वक तो भक्ति नहीं थी, पहचानती नहीं थी गोपियाँ कि ईश्वर है; उल्टे उनको अपना यार समझती थीं। फिर दोनों के बिना जो गोपियों को गुणप्रवाहोपरम वह कैसे हुआ? वह जो गोपियों के शरीर में प्रकृति के गुणों का प्रवाह बन्द हो गया और भगवत् प्रवाह का आविर्भाव हो गया-बिना ज्ञान के, बिना भक्ति के, वह कैसे हो गया? प्रेम करने भर से उनको भगवान् की प्राप्ति कैस हो गयी?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीमद्भागवत 10.29.13-17

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13. श्रीकृष्ण के प्रति गोपियों का अभिसार 141
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17. जार-बुद्धि से भी भगवत्प्राप्ति सम्भव है 187
18. विकारयुक्त प्रेम से भी भगवत्प्राप्ति सम्भव है 198
19. गोपी दौड़कर गयीं कृष्ण के पास और कृष्ण ने कहा कि लौट-जाओ 209
20. श्रीकृष्ण का अमिय-गरल-वर्षण 214
21. गोपी के प्रेम की परीक्षा-धर्म का प्रलोभन 225
22. ‘लौट-जाओ’ सुनकर गोपियों की दशा का वर्णन 238
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(प्रणय-गीत प्रारम्भ)
25. गोपियों का समर्पण-पक्ष 261
26. श्रीकृष्ण में रति ही बुद्धिमानी है 276
27. गोपियों की न लौट पा सकने की बेबसी और मर जाने के परिणाम का उद्घाटन 286
28. गोपियों का श्रीकृष्ण को पूर्व रमण की याद दिलाना 297
29-31. गोपियों में दास्य का उदय 307
32. गोपियों में दास्य का हेतु-1 338
33. गोपियों में दास्य का हेतु-2 353
34. गोपियों में दास्य का हेतु-3 366
35-36. गोपियों की चाहत 376
(प्रणय-गीत समाप्त)
37-39. प्रथम रासक्रीड़ा का उपक्रम 393
40. रास में श्रीकृष्ण की शोभा 429
41. रास-स्थली की शोभा 441
42. रासलीला का अन्तरंग-1 453
43. रासलीला का अन्तरंग-2 467
44. रासलीला का अन्तरंग-3 480
45. रासलीला का अन्तरंग-4 494
46. अंतिम पृष्ठ 500

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