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रासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती
प्रवचन 16
जो जैसेहि तैसेहि उठि धायीं-3
प्रेम मे विरहजन्य ताप से मोक्ष
दुःसह श्रेष्ठ............... जारबुद्ध्यापि संगताः
दुःसहप्रेष्ठविरह तीव्रतापधुताशुभाः ।
ध्यानप्राप्ताच्युताश्लेष निर्वृत्या क्षीणमंगलाः ।।
तमेव परमात्मानं जारबुद्ध्यापि संगताः ।
जहुर्गुणमयं देहं सद्यः प्रक्षीणबन्धनाः ।।[1]
शिष्टास्तव यदि सखे बन्धुसंगेऽस्ति रंगः- यदि तुम्हें दुनियादारी की रंगीनी देखनी है, उसका मजा लेना है, तो कृष्ण के ऊपर नजर मत डालना। यह तो इसीलिए अहीर होकर आया कि नाचने में शर्म नहीं आवेगी- बाँसुरी बजावेंगे, नाचेंगे, जामेय पहनेंगे, कम्बल रखेंगे कन्धें पर, लाठी रखेंगे हाथ में, सोने का नहीं मोर-पंख का मुकुट बाधेंगे, मार-पीट की भी जरूरत पड़ेगी तो घड़ा फोड़कर, कपड़ा फाड़कर भी अपनी ओर खींचेगें;
यह कृष्ण तो खींचने के लिए ही आया है।
गोविन्दापहृतात्मानो नन्यवर्तन्त मोहिताः ।
गोपियाँ नहीं लौटीं, नही लौटी। उसी बीच में देखते हैं कि इस जन्म के जितने प्रेम के प्रतिबन्ध थे अर्थ के, भोग, के धर्म के- सब पर गोपियों ने विजय प्राप्त कर ली। पर कुछ गोपियाँ ऐसी थीं जिनके पूर्व प्रतिबन्धक विद्यमान थे; सांसारिक प्रारब्ध उनका बड़ा प्रबल था। कर्म-भोग के संचित और क्रियमाण कट भी जायँ किन्तु प्रारब्ध का तो- भोगादेव क्षयः- बिना भोग के क्षय होता नहीं- नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि। अपने प्रारब्ध कर्म का फल तो भोगना ही पड़ता है। तो अभी जिनके कर्म शेष थे, भोग शेष थे, इनको कई तरह के दुःक भी भोगने बाकी थे और कई तरह के सुख भी भोगने बाकी थे और जब तक संसार में सुख-दुःख का चक्कर लगा है, जब तक प्रबल पूर्व कर्म प्रतिबन्धक हैं, तब तक मनुष्य ईश्वर की ओर कैसे बढ़े? उसका भी रास्ता बताया-
अन्तर्गृहताः काश्चिद् गोप्योऽलब्धविनिर्गमाः ।
कष्णं तद्भावनायुक्ता दध्युर्मीलितलोचनाः ।।
दुःसहप्रेष्ठविरह तीव्रतापधुताशुभाः ।
ध्यानप्राप्ताच्युताश्लेषनिर्वृत्या क्षीणमंगलाः ।।
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