विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीप्रवचन 12गोपियों ने वंशी-ध्वनि सुनीनिशम्यगीतं तदनगवर्द्धनं। व्रजस्त्रियः कृष्णगृहीतमानसाःनिशम्यगीतं तदनंगवर्द्धनं व्रजस्त्रियः कृष्णगृहीतमानसाः । चलो भगवान् की लीला के प्रदेश में। प्रारम्भ हो रहा है नाटक डंके की चोट में। नगाड़े बज गये। घर-द्वार की फिकर घण्टे-आध घंटे के लिए भूल जाओ। समाज में, राजनीति में, घर-द्वार में, परिवार में, आपका यह कर्तव्य है, ऐसा बताने के लिए भगवान् की लीला मैं नहीं सुनाता हूँ, भला। वह भगवान् की लीला मैं नहीं सुनाता हूँ, भला। व आप अपने पुरोहित से, पंडित से, गुरु से पूछ लेना। और आपको ब्रह्मज्ञान हो जाए, कि आपको समाधि लग जाय, योगाभ्यास करे, इसके लिए भी नहीं। हमारा उद्देश्य है कि यदि आप सुन लेंगे तो आपको लीला का रस लेने में सुविधा होगी। आप इस समय थोड़ी देर के लिए अपने मन को संसार के चिन्तन से अलग कर लो। बस; एतावन्मात्र प्रयोजन है। आओ वृन्दावन धाम में, भगवद्रस का आस्वादन करें। बिलकुल कर्त्तव्यता का नाम नहीं है इसमें, इसमें उपासितव्य नहीं है, कर्तव्य नहीं है, अभ्यासितव्य नहीं है, ज्ञातव्य नहीं है, प्राप्तव्य नहीं है, त्यक्तव्य नहीं है, निर्द्वन्द्व वह सब अपनी निष्ठा के अनुसार घर में करते रहना। यहाँ तो आप थोड़ी देर के लिए जिस दुनिया में आप रहकर आये हो और जहाँ आपको जाना है, दोनों से अपने मन को अलग कर लो। यह अलग करे का अभ्यास, इतना उपयोगी है कि अपने मन को दुनिया से छुड़ा लेने की आदत पड़ जाय। आप अगर इस समय अपने मन को दुनिया से अलग करके कथा सुन सकोगे तो मरते समय भी दुनिया को छोड़कर भगवान् में मन लगा सकोगे। आदत पड़ी रहेगी कि कैसे दुनिया से मन अलग किया जाता है। एक सज्जन आये वृन्दावन। उन्होंने श्रीजीव गोस्वामीजी महाराज को एक पद सुनाया-सखी हौं श्याम रंग रंगी । अरे, सौ संस्कृत इस पर निछावर कर दें भाई। ‘देखि बिकाय गयी वह मूरति सूरति माँहि पगी’ वह मूर्ति देखकर मैं बिक गयी और उसकी सूरत में मैं पग गयी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भाग. 10.29.4
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