विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीप्रवचन 11भगवान ने वंशी बजायीजगौ कलं वामदृशां मनोहरम् दृष्ट्वा कुमुद्वन्तमखण्डमण्डलं रमानाभं नवकुंकुमारुणम् । भगवान पूर्ण सच्चिदानन्दघन हैं। उनका मन भी सच्चिदानन्दघन है। दूसरी वस्तु के लिए कोई गुंजाइश ही नहीं है। सच्चिदानन्दघन में ही विभाग कर लिया। क्या? कि ये भगवान, यह भगवान का मन। तो मन हो गया; फिर उसमें चंद्रमा आये; ये हो गये अधिदैव, ‘वनं च तत्कोमलगोभिरञ्जितम्’ चंद्रमा की कोमल किरणों से शीतल-शीतल ऋतु रश्मियों से सारा वन अभिरञ्जित हो गया। यह अधिभूत आ गया। अब हमारे सेठजी श्रीजयदयाल जी गोयन्दका के शब्दों में एक रकम सेती- एक प्रकार से देखो- भगवान में मन और मन में चंद्रमा और मन में वृन्दावन और मन में यह अनुरागरञ्जन। यह अलौकिक सृष्टि भगवान की- रासलीला प्रकट करने के लिए। काशी में एक स्वामी प्रकाशानन्दजी सरस्वती थे। चैतन्य महाप्रभु के ग्रंथों में वर्णन आता है कि वे दण्डी स्वामी थे- दस हजार शिष्यों ने उनके वेदान्त का स्वाध्याय किया था। उन्होंने वेदान्त-सिद्धांत-मुक्तावली नाम का ग्रंथ संस्कृत साहित्य में लिखा, जो एक जीववाद का सर्वोत्कृष्ट ग्रंथ माना जाता है। माण्डूक्य-कारिका के बाद अगर प्रक्रिया ग्रंथों में किसी को स्थान मिलता तो उसको। एक ही जीव है और सब जीवाभास हैं। जैसे- स्वपन्न में द्रष्टा जीव एक होता है और बाकी जितने मनुष्य होते हैं, पशु होते हैं, पक्षी होते हैं, वे जीवाभास होते हैं, वैसे जाग्रत में भी सम्पूर्ण जाग्रतावस्था का द्रष्टा एक जीव है और बाकी सब के सब जीवाभास हैं, इस सिद्धांत को एक जीववाद बोलते हैं। इसकी स्वामी प्रकाशानन्दजी ने वेदान्त में स्थापना की। श्रीचैतन्य महाप्रभु जब काशी में आये तो वे उनके प्रभाव में आ गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भाग. 10.29.3-4
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